ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।6.8।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।6.8।।शास्त्रोक्त पदार्थोंको समझनेका नाम ज्ञान है और शास्त्रसे समझे हुए भावोंको वैसे ही अपने अन्तःकरणमें प्रत्यक्ष अनुभव करनेका नाम विज्ञान है ऐसे ज्ञान और विज्ञान से जिसका अन्तःकरण तृप्त है अर्थात् जिसके अन्तःकरणमें ऐसा विश्वास उत्पन्न हो गया है कि बस अब कुछ भी जानना बाकी नहीं है ऐसा जो ज्ञानविज्ञानसे तृप्त हुए अन्तःकरणवाला है तथा जो कूटस्थ यानी अविचल और जितेन्द्रिय हो जाता है वह युक्त यानी समाहित ( समाधिस्थ ) कहा जाता है। वह योगी मिट्टी पत्थर और सुवर्णको समान समझनेवाला होता है अर्थात् उसकी दृष्टिमें मिट्टी पत्थर और सोना सब समान हैं ( एक ब्रह्मरूप है )।