बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।2.50।।समत्वबुद्धिसे युक्त होकर स्वधर्माचरण करनेवाला पुरुष जिस फलको पाता है वह सुन
समत्वयोगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ पुरुष अन्तःकरणकी शुद्धिके और ज्ञानप्राप्तिके द्वारा सुकृतदुष्कृतको पुण्यपाप दोनोंको यहीं त्याग देता है इसी लोकमें कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। इसलिये तू समत्वबुद्धिरूप योगकी प्राप्तिके लिये यत्न कर चेष्टा कर।
क्योंकि योग ही तो कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् स्वधर्मरूप कर्ममें लगे हुए पुरुषका जो ईश्वरसमर्पित बुद्धिसे उत्पन्न हुआ सिद्धिअसिद्धिविषयक समत्वभाव है वही कुशलता है।
यही इसमें कौशल है कि स्वभावसे ही बन्धन करनेवाले जो कर्म हैं वे भी समत्व बुद्धिके प्रभावसे अपने स्वभावको छोड़ देते हैं अतः तू समत्वबुद्धिसे युक्त हो।