मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।9.4।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।9.4।।इस प्रकार ज्ञानकी प्रशंसाद्वारा अर्जुनको सम्मुख करके कहते हैं --, मुझ अव्यक्तरूप परमात्माद्वारा अर्थात् मेरा जो परमभाव है? जिसका स्वरूप प्रत्यक्ष नहीं है यानी मन? बुद्धि और इन्द्रियोंका विषय नहीं है? ऐसे मुझ अव्यक्तमूर्तिद्वारा यह समस्त जगत् व्याप्त है -- परिपूर्ण है। उस अव्यक्तस्वरूप मुझ परमात्मामें ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणी स्थित हैं। क्योंकि कोई भी निर्जीव प्राणी व्यवहारके योग्य नहीं समझा जाता। अतः वे सब मुझमें स्थित हैं अर्थात् मुझ परमात्मासे ही आत्मवान् हो रहे हैं? इसलिये मुझमें स्थित कहे जाते हैं। उन भूतोंका वास्तविक स्वरूप मैं ही हूँ इसलिये अज्ञानियोंको ऐसी प्रतीति होती है कि मैं उनमें स्थित हूँ? अतः कहता हूँ कि मैं उन भूतोंमें स्थित नहीं हूँ। क्योंकि साकार वस्तुओंकी भाँति मुझमें संसर्गदोष नहीं है। इसलिये मैं बिना संसर्गके सूक्ष्मभावसे आकाशके भी अन्तर्व्यापी हूँ। सङ्गहीन वस्तु कहीं भी आधेयभावसे स्थित नहीं होती? यह प्रसिद्ध है।