अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।9.3।।परंतु जो --, इस आत्मज्ञानरूप धर्मकी श्रद्धासे रहित हैं? अर्थात् इसके स्वरूपमें और फलमें आस्तिक भावसे रहित हैं -- नास्तिक हैं वे असुरोंके सिद्धान्तोंका अनुवर्तन करनेवाले देहमात्रको ही आत्मा समझनेवाले एवं पापकर्म करनेवाले इन्द्रियलोलुप मनुष्य? हे परंतप मुझ परमेश्वरको प्राप्त न होकर -- मेरी प्राप्तिकी तो उनके लिये आशङ्का भी नहीं हो सकती? मेरी प्राप्तिके मार्गकी साधनरूप भेदभक्तिको भी प्राप्त न होकर निश्चय ही घूमते रहते हैं। कहाँ घूमते रहते हैं मृत्युयुक्त संसारके मार्गमें? अर्थात् जो संसार मृत्युयुक्त है उस मृत्युसंसारके नरक और पशुपक्षी आदि योनियोंकी प्राप्तिरूप मार्गमें वे बारंबार घूमते रहते हैं।