धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।1.1।।धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक (युयुत्सव:) मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
1.1 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
।।1.1।। सम्पूर्ण गीता में यही एक मात्र श्लोक अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने कहा है। शेष सभी श्लोक संजय के कहे हुए हैं जो धृतराष्ट्र को युद्ध के पूर्व की घटनाओं का वृत्तान्त सुना रहा था।
निश्चय ही अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र को अपने भतीजे पाण्डवों के साथ किये गये घोर अन्याय का पूर्ण भान था। वह दोनों सेनाओं की तुलनात्मक शक्तियों से परिचित था। उसे अपने पुत्र की विशाल सेना की सार्मथ्य पर पूर्ण विश्वास था। यह सब कुछ होते हुये भी मन ही मन उसे अपने दुष्कर्मों के अपराध बोध से हृदय पर भार अनुभव हो रहा था और युद्ध के अन्तिम परिणाम के सम्बन्ध में भी उसे संदेह था। कुरुक्षेत्र में क्या हुआ इसके विषय में वह संजय से प्रश्न पूछता है। महर्षि वेदव्यास जी ने संजय को ऐसी दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिसके द्वारा वह सम्पूर्ण युद्धभूमि में हो रही घटनाओं को देख और सुन सकता था।
।।1.1।।धर्मक्षेत्र इति। अत्र केचित् व्याख्याविकल्पमाहुः कुरूणां करणानां यत् क्षेत्रमनुग्राहकं अतएव सांसारिकधर्माणां (S सांसारिकत्वधर्माणां) सर्वेषां क्षेत्रम् उत्पत्तिनिमित्तत्वात्। अयं स परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् (या. स्मृ. I 8) इत्यस्य च धर्मस्य क्षेत्रम् समस्तधर्माणां क्षयात् अपवर्गप्राप्त्या त्राणभूतं तदधिकारिशरीरम्। सर्वक्षत्राणां क्षदेः हिंसार्थत्वात् परस्परं वध्यघातकभावेन (S परस्परवध्य ) वर्तमानानां रागवैराग्यक्रोधक्षमाप्रभृतीनां समागमो यत्र तस्मिन् स्थिता ये मामका अविद्यापुरुषोचिता अविद्यामयाः संकल्पाः पाण्डवाः शुद्धविद्यापुरुषोचिता विद्यात्मानः ते किमकुर्वत कैः खलु के जिताः इति। मामकः अविद्यापुरुषः पाण्डुः शुद्धः।