अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।18.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।18.1।। अर्जुन ने कहा -- हे महाबाहो ! हे हृषीकेश ! हे केशनिषूदन ! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ।।
।।18.1।। --,संन्यासस्य संन्यासशब्दार्थस्य इत्येतत्? हे महाबाहो? तत्त्वं तस्य भावः तत्त्वम्? याथात्म्यमित्येतत्? इच्छामि वेदितुं ज्ञातुम्? त्यागस्य च त्यागशब्दार्थस्येत्येतत्? हृषीकेश? पृथक् इतरेतरविभागतः केशिनिषूदन केशिनामा हयच्छद्मा कश्चित् असुरः तं निषूदितवान् भगवान् वासुदेवः? तेन तन्नाम्ना संबोध्यते अर्जुनेन।।संन्यासत्यागशब्दौ तत्र तत्र निर्दिष्टौ? न निर्लुठितार्थौ पूर्वेषु अध्यायेषु। अतः अर्जुनाय पृष्टवते तन्निर्णयाय भगवान् उवाच --,श्रीभगवानुवाच --,
।।18.1।। यद्यपि अर्जुन की जिज्ञासा शैक्षणिक रुचि की है? तथापि भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण गम्भीरता के साथ उसका उत्तर देते हैं। जब शिष्य अपना सन्देह या जिज्ञासा प्रकट करता है? तब निश्चय ही वह स्वयं अपनी कठिनाई नहीं जान पाता है। अत गुरु का यह कर्तव्य हो जाता है कि शिष्य की कठिनाई को समझकर उसका समाधान करे। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का यही प्रयत्न है।यह सम्पूर्ण अध्याय त्याग और संन्यास के अर्थ के चारों ओर घूमता रहता है। त्याग के बिना संन्यास अनाकलनीय है? असम्भव है? और यदि कोई ऐसा प्रयत्न करता है? तो उसका संन्यास केवल पाखण्ड ही कहा जायेगा। यह अध्याय हमारी उन वासनाओं? प्रवृत्तियों? उद्देश्यों आदि का वर्णन करता है? जो सर्वथा त्याज्य है। इनके ज्ञान से अवांछनीय गुणों का वास्तविक त्याग संभव हो सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर इस अध्याय का अध्ययन करना चाहिए? अन्यथा? निश्चय ही? यह हमें प्रभावित नहीं कर पायेगा।केशनिषूदन केशि नामक एक असुर अश्व का रूप धारण करके बालकृष्ण की हत्या करने आया था? परन्तु भगवान् ने उसे ही दो भागों में विदीर्ण कर दिया था। अत वे केशिनिषूदन के नाम से प्रसिद्ध हुए।इन शब्दों के तत्त्वनिर्णय हेतु
।।18.1।।संन्यासस्येति। पूर्वमुक्तं स त्यागी स च बुद्धिमान् ( II? 50 ) इति। तथा स संन्यासी च योगी च न निरग्निः ( VI? I ) इत्यादि। अतस्त्यागिसंन्यासासिनोर्द्वयोः श्रवणात् विशेषजिज्ञासोरयं प्रश्नः।