श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।11.4।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।11.4।। हे प्रभो ! यदि आप मानते हैं कि मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना संभव है, तो हे योगेश्वर ! आप अपने अव्यय रूप का दर्शन कराइये।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।11.4।। --,मन्यसे चिन्तयसि यदि मया अर्जुनेन तत् शक्यं द्रष्टुम् इति प्रभो? स्वामिन्? योगेश्वर योगिनो योगाः? तेषां ईश्वरः योगेश्वरः? हे योगेश्वर। यस्मात् अहम् अतीव अर्थी द्रष्टुम्? ततः तस्मात् मे मदर्थं दर्शय त्वम् आत्मानम् अव्ययम्।।एवं चोदितः अर्जुनेन श्री भगवान् उवाच --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।11.4।। पूर्व श्लोक में व्यक्त की गई इच्छा को ही यहाँ पूर्ण नम्रता एवं सम्मान के साथ दोहराया गया है। अपने सामान्य व्यावहारिक जीवन में भी हम सम्मान पूर्वक प्रार्थना अथवा नम्र अनुरोध करते समय इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं? जैसे यदि मुझे कुछ कहने की अनुमति दी जाये? मुझ पर बड़ी कृपा होगी? मुझे प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है इत्यादि। पाण्डव राजपुत्र अर्जुन? मानो? पुनर्विचार के फलस्वरूप पूर्व प्रयुक्त अपनी सैनिकी भाषा को त्यागकर नम्रभाव से अनुरोध करता है कि? यदि आप मुझे योग्य समझें? तो अपने अव्यय रूप का मुझे दर्शन कराइये।यहाँ बतायी गयी नम्रता एवं सम्मान किसी निम्न स्तर की इच्छा को पूर्ण कराने के लिए झूठी भावनाओं का प्रदर्शन नहीं है। भगवान् को सम्बोधित किये गये विशेषणों से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है। प्रथम पंक्ति में अर्जुन भगवान् को प्रभो कहकर और फिर? योगेश्वर के नाम से सम्बोधित करता है। यह इस बात का सूचक है कि अर्जुन को अब यह विश्वास होने लगा था कि श्रीकृष्ण केवल कोई मनुष्य नहीं हैं? जो अपने शिष्य को मात्र बौद्धिक सन्तोष अथवा आध्यात्मिक प्रवचन देने में ही समर्थ हों। वह समझ गया है कि श्रीकृष्ण तो स्वयं प्रभु अर्थात् परमात्मा और योगेश्वर हैं। इसलिए यदि वे यह समझते हैं कि उनका शिष्य अर्जुन विराट् के दर्शन से लाभान्वित हो? तो वे उसकी इच्छा को पूर्ण करने में सर्वथा समर्थ हैं।यदि कोई उत्तम अधिकारी शिष्य एक सच्चे गुरु से कोई नम्र अनुरोध करता है? तो वह कभी भी गुरु के द्वारा अनसुना नहीं किया जाता है अत

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।11.4।।No commentary.

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

11.4 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

11.4 Prabho, O Lord, Master; yadi, if; manyase, You think; iti, that; tat sakyam, it is possible; drastum, to be see; maya, by me, by Arjuna; tatah, then, since I am very eager to see, therefore; yogeswara, O Lord of Yoga, of yogis-Yoga stands for yogis; their Lord is yogeswara; tvam, You; darsaya, show; me, me, for my sake; atmanam avyayam, Your eternal Self. Being thus implored by Arjuna,

English Translation By Swami Gambirananda

11.4 O Lord, if You think that it is possible to be seen by me, then, O Lord of Yoga, You show me Your eternal Self.