श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।11.5।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।11.5।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे पार्थ ! मेरे सैकड़ों तथा सहस्रों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा आकृति वाले दिव्य रूपों को देखो।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।11.5।। --,पश्य मे पार्थ? रूपाणि शतशः अथ सहस्रशः? अनेकशः इत्यर्थः। तानि च नानाविधानि अनेकप्रकाराणि दिवि भवानि दिव्यानि अप्राकृतानि नानावर्णाकृतीनि च नाना विलक्षणाः नीलपीतादिप्रकाराः वर्णाः तथा आकृतयश्च अवयवसंस्थानविशेषाः येषां रूपाणां तानि नानावर्णाकृतीनि च।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।11.5।। यदि समस्त आभूषण का मूल तत्त्व स्वर्ण है? तो विश्व का प्रत्येक आभूषण समष्टि स्वर्ण में उपलब्ध होना चाहिए। आभूषण में स्वर्ण को देखना अपेक्षत सरल है? क्योंकि वह इन्द्रियों के द्वारा किया जाने वाला दर्शन? है अर्थात् वह इन्द्रियगोचर है। परन्तु नाना आकार प्रकार तथा वर्णों के समस्त आभूषणों को समष्टि स्वर्ण में देख पाना अधिक कठिन है? क्योंकि वह बुद्धि द्वारा दिया जाने वाला दर्शन है अर्थात बुद्धिगम्य दर्शन है।इस बात को ध्यान में रखकर भगवान् के कथन को पढ़ने पर उनका अभिप्राय स्वत स्पष्ट हो जाता है। मेरे शतश और सहस्रश नाना प्रकार आकार तथा वर्णों के अलौकिक रूपों को देखो। भगवान् श्रीकृष्ण को अपना विराट् स्वरूप धारण करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि अर्जुन को केवल इतना ही करना था कि अपने समक्ष स्थित रूप को वह देखे। परन्तु दुर्भाग्य से? द्रष्टव्य रूप को देखने के लिए उपयुक्त दर्शन का उपकरण उसके पास नहीं था? और इसलिए? अर्जुन उन सबको नहीं देख सका? जो भगवान् श्रीकृष्ण में पहले से ही विद्यमान था।सुदूर स्थित कोई नक्षत्र या किसी अन्य वस्तु को देखने के लिए दूरदर्शी यन्त्र का उपयोग किया जाता है। परन्तु उस यन्त्र की अक्षरेखा पर होने मात्र से वह वस्तु दिखाई नहीं दे सकती। उसे देखने के लिये दूरदर्शी यन्त्र को समायोजित करना पड़ता है? जिससे कि वह वस्तु सूक्ष्म निरीक्षक के दृष्टिपथ में आ जाये। इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने स्वयं को विराट् रूप में परिवर्तित नहीं किया? परन्तु अर्जुन को केवल आन्तरिक समायोजन करने में सहायता प्रदान की जिससे कि वह भगवान् श्रीकृष्ण में विद्यमान विश्वरूप का अवलोकन कर सके। इसीलिये? भगवान् कहतें हैं कि? देखो। वे इस श्लोक में उन दर्शनीय वस्तुओं को गिनाते हैं।वे दिव्य रूप कौनसे हैं अगले श्लोक में बताते हैं

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।11.5।।No commentary.

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

11.5 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

11.5 O son of Prtha, pasya, behold; me, My; rupani, forms; satasah, in (their) hundreds; atha, and; sahasrasah, in thousands, i.e. in large numbers. And they are nana-vidhani, of different kinds; divyani, celestial, supernatural; and nana-varna-akrtini, of various colours and shapes-forms which have different (nana) colours (varna) such as blue, yellow, etc. as also (different) shapes (akrtayah), having their parts differently arranged.

English Translation By Swami Gambirananda

11.5 The Blessed Lord said O son of Prtha, behold My forms in (their) hundreds and in thousands, of different kinds, celestial, and of various colours and shapes.