श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।14.5।।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।14.5।। हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण देही आत्मा को देह के साथ बांध देते हैं।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।14.5।। -- सत्त्वं रजः तमः इति एवंनामानः। गुणाः इति पारिभाषिकः शब्दः? न रूपादिवत् द्रव्याश्रिताः गुणाः। न च गुणगुणिनोः अन्यत्वमत्र विवक्षितम्। तस्मात् गुणा इव नित्यपरतन्त्राः क्षेत्रज्ञं प्रति अविद्यात्मकत्वात् क्षेत्रज्ञं निबध्नन्तीव। तम् आस्पदीकृत्य आत्मानं प्रतिलभन्ते इति निबध्नन्ति इति उच्यते। ते च प्रकृतिसंभवाः भगवन्मायासंभवाः निबध्नन्ति इव हे महाबाहो? महान्तौ समर्थतरौ आजानुप्रलम्बौ बाहू यस्य सः महाबाहुः? हे महाबाहो देहे शरीरे देहिनं देहवन्तम् अव्ययम्? अव्ययत्वं च उक्तम् अनादित्वात् (गीता 13.31) इत्यादिश्लोकेन। ननु देही न लिप्यते इत्युक्तम्। तत कथम् इह निबध्नन्ति इति अन्यथा उच्यते परिहृतम् अस्माभिः इवशब्देन निबध्नन्ति इव इति।।तत्र सत्त्वादीनां सत्त्वस्यैव तावत् लक्षणम् उच्यते --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।14.5।। गुण शब्द अध्यात्मशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली का होने के कारण उसका किसी अन्य भाषा में अनुवाद करना कठिन है। विशेषकर अंग्रेजी में उसका समानार्थी कोई शब्द नहीं है। इसका कारण यह है कि पाश्चात्य मनोविज्ञान अभी भी शैशव अवस्था में ही है। जब उनके द्वारा मनोविज्ञान का सैद्धान्तिक और प्रायोगिक निरीक्षण तथा अध्ययन पूर्ण कर लिया जायेगा? केवल तभी? वे प्रत्येक व्यक्ति के अन्तकरण में उदित होने वाले विचारों पर इन गुणों के पड़ने वाले प्रभाव को समझ पायेंगे।आध्यात्मिक साहित्य में सत्त्व? रज और तम? इन तीन गुणों को क्रमश श्वेत? रक्त और कृष्ण वर्ण के द्वारा सूचित किया जाता है।संस्कृत में गुण शब्द का अर्थ रज्जु अर्थात् रस्सी भी होता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृति के ये तीन गुण रज्जु के समान हैं? जो सच्चित्स्वरूप आत्मतत्त्व को असत् और जड़ अनात्मतत्त्व के साथ बांध देते हैं। सारांशत? ये गुण वे तीन विभिन्न प्रकार के भाव हैं जिनके वशीभूत् होकर हमारा मन? निरन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों में विविध प्रकार से अपनी प्रतिक्रियारूपी क्रीड़ा करता रहता है।ये गुण प्रकृति से उत्पन्न हुये हैं। वे आत्मा को देह के साथ मानो बांध देते हैं? जिसके कारण वह जीव भाव को प्राप्त होकर जन्म और मरण के अविरल चक्र और संसार के दुखों में फँस जाता है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है? प्रकृति के ये गुण द्रव्याश्रित धर्म नहीं हैं। हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि ये विभिन्न प्रकार के भाव हैं? जिनके कारण भिन्नभिन्न व्यक्तियों का व्यवहार भिन्नभिन्न प्रकार का होता है।आत्मा और अनात्मा का यह संबंध मिथ्या है? वास्तविक नहीं। देशकालादि के परिच्छेदों से मुक्त आत्मा को इन परिच्छेदों से युक्त? स्वप्न के समान प्रक्षेपित? जड़ उपाधियों के साथ कभी नहीं बांधा जा सकता। वह इनके दोषों से सदा असंस्पृष्ट ही रहता है? जैसे? स्तंभ अपने में अध्यस्त प्रेत से और जाग्रत् पुरुष स्वप्न द्रष्टा के अपराधों से वस्तुत अलिप्त ही रहता है। इसी प्रकार? जब तक त्रिगुण जनित बन्धन बना रहता है? तब तक ऐसा प्रतीत होता है? मानो आत्मा इन अनात्म उपाधियों के संसर्गवशात् जीव भाव को प्राप्त हुआ है? परन्तु यथार्थत वह नित्यमुक्त ही रहता है।उपर्युक्त विवेचन से अब यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार इन गुणों के स्वरूप तथा उनसे उत्पन्न बन्धन की प्रक्रिया का स्पष्ट ज्ञान हमें मुक्ति का अधिकार पत्र प्रदान कर सकता है।अब? भगवान् श्रीकृष्ण सर्वप्रथम सत्त्वगुण का लक्षण बताते हैं

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।14.5।।सत्त्वमिति। देही चायं आत्मतया सत्त्वरजस्तमोभिर्धर्मैः अपवर्गपर्यन्ताय भोगाय निबद्ध्यते।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

14.5 Sattvam etc. This embodied Soul is bound fast by Her (the Mother) by means of Her attributes of the Sattva, the Rajas and the Tamas for the former's enjoyment that continues till his emancipation. The nature of these is detailed one by one -

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

14.5 O mighty-armed one-who are possessed of hands which are great and mighty, and extend upto the knees, gunah, the alities are named sattva, rajas and tamas. And they, prakrti-sambhavah, born of Nature, born of Maya which belongs to God; nibadhnanti, bind, as it were; the avyayam, immutable-the immutability has been spoken of in the verse, 'Being without beginning৷৷.,' etc. (13.31); dehinam, embodied being; dehe, to the body. The word guna is a technical term, and is not a ality like colour etc. which inhere in some substance. Nor is it meant here that ality and substance are different. Therefore they are ever dependent on the Knower of the field, just as alities are dependent (on some substance). Being of the nature of ignorance, they bind the Knower of the field, as it were. They come into being, making That (Knower) their sustainer. In this sense it is said that they bind. Objection; Was it not said that the embodied one does not become defiled (see 13.31-2)? So, why as it contrarily said here that 'they bind'? Reply: We have rutted this objection by using the word iva (as it were) in 'they bind, as it were'.

English Translation By Swami Gambirananda

14.5 O mighty-armed one, the alities, viz sattva, rajas and tamas, born of Nature, being the immutable embodies being to the body.