श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्

यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये

यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।15.4।। (तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।15.4।। --,ततः पश्चात् यत् पदं वैष्णवं तत् परिमार्गितव्यम्? परिमार्गणम् अन्वेषणं ज्ञातव्यमित्यर्थः। यस्मिन् पदे गताः प्रविष्टाः निवर्तन्ति न आवर्तन्ते भूयः पुनः संसाराय। कथं परिमार्गितव्यमिति आह -- तमेव च यः पदशब्देन उक्तः आद्यम् आदौ भवम् आद्यं पुरुषं प्रपद्ये इत्येवं परिमार्गितव्यं तच्छरणतया इत्यर्थः। कः असौ पुरुषः इति? उच्यते -- यतः यस्मात् पुरुषात् संसारमायावृक्षप्रवृत्तिः प्रसृता निःसृता? ऐन्द्रजालिकादिव माया? पुराणी चिरंतनी।।कथंभूताः तत् पदं गच्छन्तीति? उच्यते --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।15.4।। कहीं ऐसा न हो कि कोई विद्यार्थी इस रूपक के वास्तविक अभिप्राय को न समझकर उसे कोई लौकिक वृक्ष ही समझ लें? गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसा वर्णन किया गया है? वैसा वृक्ष यहाँ उपलब्ध नहीं होता। पूर्व श्लोक में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष इस व्यक्त हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रतीक है। सूक्ष्म चैतन्य आत्मा विविध रूपों और विभिन्न स्तरों पर विविधत व्यक्त होता है जैसे शरीर? मन और बुद्धि में क्रमश विषय? भावनाओं और विचारों के प्रकाशक के रूप में और कारण शरीर में वह अज्ञान को प्रकाशित करता है। आत्मअज्ञान या वासनाओं को ही कारण शरीर कहते हैं। ये समस्त उपाधियाँ तथा उनके अनुभव अपनी सम्पूर्णता में अश्वत्थवृक्ष के द्वारा निर्देशित किये गये हैं। अत यह कोई परिच्छिन्न वृक्ष न होने के कारण कोई इसे एक दृष्टिक्षेप से देखकर समझ नहीं सकता है।कोई भी पुरुष इस संसार वृक्ष का आदि या अन्त या प्रतिष्ठा नहीं देख सकता। यह वृक्ष परम सत्य के अज्ञान से उत्पन्न होता है। जब तक वासनाओं का प्रभाव बना रहता है तब तक इसका अस्तित्व भी रहता है? किन्तु आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान से यह समूल नष्ट हो जाता है। बहुसंख्यक लोगों द्वारा इन आध्यात्मिक आशयों को न देखा जाता है और न पहचाना या समझा ही जाता है।इस संसार वृक्ष को काटने का एकमात्र शस्त्र है असंग अर्थात् वैराग्य। भौतिक जगत् जड़? अचेतन है। इसके द्वारा जो अनुभव प्राप्त किया जाता है? वह चैतन्य के सम्बन्ध के कारण ही संभव होता है। जब तक कार के चक्रों का सम्बन्ध मशीन से बना रहता है तब तक उनमें गति रहती है। यदि प्रवाहित होने वाली शक्ति को रोक दिया जाये? तो वे चक्र स्वत ही गतिशून्य स्थिति में आ जायेंगे। इसी प्रकार यदि हम अपना ध्यान शरीर? मन और बुद्धि से निवृत्त करें? तो तादात्म्य के अभाव में विषय? भावनाओं तथा विचारों का ग्रहण स्वत अवरुद्ध हो जायेगा। तादात्म्य की निवृत्ति को ही वैराग्य कहते हैं। यहाँ उसे असंग शस्त्र कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन्ा को उपदेश देते हैं कि उसको इस असंगशस्त्र के द्वारा संसारवृक्ष को काटना चाहिये।हमारी वर्तमान स्थिति की दृष्टि से उपर्युक्त अवस्था का अर्थ है शून्य? जहाँ न कोई विषय हैं और न भावनाएं हैं न कोई विचार ही हैं। अत हम ऐसे उपदेश को सहसा स्वीकार नहीं करेंगे। भगवान् हमारी मनोदशा को समझते हुये उसी क्रम में कहते हैं? तत्पश्चात् उस पद का अन्वेषण करना चाहिये? जिसे प्राप्त हुये पुरुष पुन लौटते नहीं हैं।उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन का निष्कर्ष यह निकलता है कि निदिध्यासन के अभ्यास के शान्त क्षणों में साधक को अपना ध्यान जगत् एवं उपाधियों से निवृत्त कर उस ऊर्ध्वमूल परमात्मा के चिन्तन में लगाना चाहिये? जहाँ से इस संसार की पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।यदि इस उपदेश को केवल यहीं तक छोड़ दिया गया होता? तो अधिक से अधिक वह एक सुन्दर काव्यात्मक कल्पना ही बन कर रह जाता। आध्यात्मिक मूल्यों को अपने व्यावहारिक जीवन में जीने की कला सिखाने वाली निर्देशिका के रूप में? गीता को यह भी बताना आवश्यक था कि किस प्रकार एक साधक इस उपदेश का पालन कर सकता है। इनका एक व्यावहारिक उपाय है? प्रार्थना। जिसका निर्देश इस श्लोक के अन्त में इन शब्दों में किया है? मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ? जहाँ से यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।यह श्लोक दर्शाता है कि जब हमारी बहिर्मुखी प्रवृत्ति बहुत कुछ मात्रा में क्षीण हो जाती है? तब हमें अपनी बुद्धि को सजगतापूर्वक संसार के आदिस्रोत सच्चिदानन्द परमात्मा में भक्ति और समर्पण के भाव के साथ समाहित करने का प्रयत्न करना चाहिये। इस आदि पुरुष का स्वरूप तथा उसके अनुभव के उपाय को बताना इस अध्याय का विषय है।किन गुणों से सम्पन्न साधक उस पद को प्राप्त होते हैं सुनो

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।15.3 -- 15.5।।न रूपमित्यादि अव्ययं तदित्यन्तम्। तं छित्त्वेति। विशेष्ये क्रियाऽभिधीयमाना सामर्थ्यादत्र विशेषणपदमुपादत्ते दण्डी प्रैष्याननुब्रूयात् इति विधिवत्। तेन अधोरूढानि मूलानि अस्य छिन्द्यादिति। तत् पदं प्रशान्तम् अव्ययं पदं तदेव।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

15.4 See Comment under 15.5

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

15.4 Tatah, thereafter; tat, that; padam, State of Visnu; parimargitavyam, has to be sought for, i.e. realized; gatah, going, entering; yasmin, where, into which State; they na, do not; nivartanti, return; bhuyah, again, for worldly life. As to how It is to be sought for, the Lord says: Prapadye, I take refuge; tam, in that; adyam, Primeval-existing from the beginning; purusam, Person, who has been mentioned by the word State; eva, Himself. The search has to be carried on thus, i.e., by taking refuge in Him. Who is that Person? That is being stated: Yatah, from whom, from which Person; prasrta, has ensued, like jugglery from a magician; purani, the eternal; pravrttih, Manifestation, the magic Tree of the World. What kind of persons reach that State? This is being answered:

English Translation By Swami Gambirananda

15.4 Thereafter, that State has to be sought for, going where they do not return again: I take refuge in that Primeval Person Himself, from whom has ensued the eternal Manifestation.