अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।3.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।3.1।। हे जनार्दन यदि आपको यह मान्य है कि कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर हे केशव आप मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों प्रवृत्त करते हैं
।।3.1।। ज्यायसी श्रेयसी चेत् यदि कर्मणः सकाशात् ते तव मता अभिप्रेता बुद्धिः ज्ञानं हे जनार्दन। यदि बुद्धिकर्मणी समुच्चिते इष्टे तदा एकं श्रेयःसाधनमिति कर्मणो ज्यायसी बुद्धिः इति कर्मणः अतिरिक्तकरणं बुद्धेरनुपपन्नम् अर्जुनेन कृतं स्यात् न हि तदेव तस्मात् फलतोऽतिरिक्तं स्यात्। तथा च कर्मणः श्रेयस्करी भगवतोक्ता बुद्धिः अश्रेयस्करं च कर्म कुर्विति मां प्रतिपादयति तत् किं नु कारणमिति भगवत उपालम्भमिव कुर्वन् तत् किं कस्मात् कर्मणि घोरे क्रूरे हिंसालक्षणे मां नियोजयसि केशव इति च यदाह तच्च नोपपद्यते। अथ स्मार्तेनैव कर्मणा समुच्चयः सर्वेषां भगवता उक्तः अर्जुनेन च अवधारितश्चेत् तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि (गीता 3.1) इत्यादि कथं युक्तं वचनम्।।किञ्च
।।3.1।। अभी भी अर्जुन का यही विश्वास है कि गुरुजन पितामह आदि के साथ युद्ध करना भयानक कर्म है। लगता है अर्जुन या तो भगवान् के उपदेश को भूल गया है या वह उसे कभी समझ ही नहीं पाया था। श्रीकृष्ण ने यह बिल्कुल स्पष्ट किया था कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन गुरुजनों को मारने वाला नहीं था क्योंकि यह युद्ध व्यक्तियों के बीच न होकर दो सिद्धांतों के मध्य था। पाण्डवों का पक्ष धर्म और नैतिकता का था। परन्तु दुर्भाग्यवश अर्जुन अपने अहंकार को भूलकर अपने पक्ष के साथ एकरूप नहीं हो पाया। जिस मात्रा में वह आदर्श के साथ तादात्म्य नहीं कर पाया उस मात्रा में उसका अहंकार बना रहा और युद्ध करने में उसे नैतिक दोष दिखाई दिया।इस श्लोक में अर्जुन का तात्पर्य यह है कि यद्यपि श्रीकृष्ण के तर्कसंन्यासमार्ग का ही अनुमोदन कर रहे थे परन्तु उसे भयंकर कर्म में प्रवृत्त किया जा रहा था।
।।3.1 3.2।।ज्यायसीति। व्यामिश्रेणेति। कर्म उक्तं ज्ञानं च। तत्र न द्वयोः प्राधान्यं युक्तम् अपि तु ज्ञानस्य। तद्बलेन क्षपणीयत्वं यदि कर्मणां बुद्धियुक्तो जहातीमे (II 52) इत्यादिनयेन मूलत एव तर्हि (K तत्) कर्मणां (S K कर्मणा) किं प्रयोजनमिति प्रश्नाभिप्रायः।