यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।6.4।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।6.4।। जब (साधक) न इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में आसक्त होता है तब सर्व संकल्पों के संन्यासी को योगारूढ़ कहा जाता है।।
।।6.4।। यदा समाधीयमानचित्तो योगी हि इन्द्रियार्थेषु इन्द्रियाणामर्थाः शब्दादयः तेषु इन्द्रियार्थेषु कर्मसु च नित्यनैमित्तिककाम्यप्रतिषिद्धेषु प्रयोजनाभावबुद्ध्या न अनुषज्जते अनुषङ्गं कर्तव्यताबुद्धिं न करोतीत्यर्थः। सर्वसंकल्पसंन्यासी सर्वान् संकल्पान् इहामुत्रार्थकामहेतून् संन्यसितुं शीलम् अस्य इति सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढः प्राप्तयोग इत्येतत् तदा तस्मिन् काले उच्यते। सर्वसंकल्पसंन्यासी इति वचनात् सर्वांश्च कामान् सर्वाणि च कर्माणि संन्यस्येदित्यर्थः। संकल्पमूला हि सर्वे कामाः संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसंभवाः (मनु 2।3)। काम जानामि ते मूलं संकल्पात्किल जायसे। न त्वां संकल्पयिष्यामि तेन मे न भविष्यसि (महा0 शान्ति0 177।25) इत्यादिस्मृतेः। सर्वकामपरित्यागे च सर्वकर्मसंन्यासः सिद्धो भवति स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते (बृह0 उ0 4।4।5) इत्यादिश्रुतिभ्यः यद्यद्धि कुरुते जन्तुः तत्तत् कामस्य चेष्टितम् (मनु0 2।4) इत्यादिस्मृतिभ्यश्च न्यायाच्च न हि सर्वसंकल्पसंन्यासे कश्चित् स्पन्दितुमपि शक्तः। तस्मात् सर्वसंकल्पसंन्यासी इति वचनात् सर्वान् कामान् सर्वाणि कर्माणि च त्याजयति भगवान्।।यदा एवं योगारूढः तदा तेन आत्मा उद्धृतो भवति संसारादनर्थजातात्। अतः
।।6.4।। स्वयं को साधनावस्था का अनुभव होने से एक साधक को आरुरुक्ष की स्थिति समझना कठिन नहीं है। साधक के लिए निष्काम कर्म साधन है। कर्मों का संन्यास तभी करना चाहिए जब मन के ऊपर पूर्ण संयम प्राप्त हो गया हो। इसके पूर्व ही कर्मों का त्यागना उतना ही हानिकारक होगा जितना कि योगारूढ़त्व की अवस्था को प्राप्त होने पर कर्मों से मन को क्षुब्ध करना। उस अवस्था में तो साधन है शम। स्वाभाविक ही योगारूढ़ के लक्षणों को जानने की उत्सुकता सभी साधकों के मन में उत्पन्न होती है।इस श्लोक में श्रीकृष्ण मन रूपी अश्व पर आरूढ़ हुए पुरुष के बाह्य एवं आन्तरिक लक्षणों को दर्शाते हैं। उस पुरुष का एक लक्षण यह है कि वह मन से न इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है और न जगत् में किये जाने वाले कर्मों में। इस कथन का शाब्दिक अर्थ लेकर परमसत्य का विचित्र हास्यजनक चित्र खींचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि ध्यानाभ्यास के समय साधक का मन विषयों तथा कर्मों से पूर्णतया निवृत्त होता है जिससे वह एकाग्रचित्त से ध्यान करने में समर्थ होता है। मन के सहयोग के बिना इन्द्रियों की स्वयं ही विषयों की ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यदि मन को आनन्दस्वरूप आत्मतत्त्व के ध्यान में लगाया जाय तो उस निर्विषय आनन्द का अनुभव कर लेने के उपरान्त वह स्वयं ही विषयों के क्षणिक सुखों की खोज में नहीं भटकेगा। किसी धनवान् व्यक्ति का हष्टपुष्ट पालतू कुत्ता स्थानस्थान पर रखे कूड़ेदानों में अन्न के कणों को नहीं खोजता।इन्द्रियों के भोग तथा कर्म से परावृत्त हुआ मन आत्मचिन्तन में स्थिर हो जाता है। यहाँ न अनुषज्जते शब्द पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। सज्जते को अनु यह उपसर्ग लगाकर भगवान यहाँ दर्शाते हैं कि उस पुरुष को विषयों से रंचमात्र भी आसक्ति नहीं होती।उपर्युक्त स्थिति को प्राप्त होने पर भी संभव है कि साधक अपने मन में ही उठने वाले संकल्पोंविकल्पों से क्षुब्ध हो जाय। बाह्य जगत् के विक्षेपों की अपेक्षा इन संकल्पों से उत्पन्न विक्षेप अधिक भयंकर होते हैं । भगवान् कहते हैं कि योगारूढ़ पुरुष न केवल बाह्य विक्षेपों से मुक्त है बल्कि इस संकल्प शक्ति के विक्षेपों से भी।स्पष्ट है कि ऐसे योगारूढ़ के लिए ध्यान की गति तीव्र करने के लिए शम की आवश्यकता होती है।योगारूढ़ पुरुष अनर्थ रूप संसार से अपना उद्धार कर लेता है। इसलिए
।।6.4।।एष एवार्थः प्रकाश्यते यदेति। इन्द्रियार्थाः विषयाः तदर्थानि च कर्माणि विषयार्जनादीनि।