श्री भगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।7.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।7.1।। हे पार्थ ! मुझमें असक्त हुए मन वाले तथा मदाश्रित होकर योग का अभ्यास करते हुए जिस प्रकार तुम मुझे समग्ररूप से, बिना किसी संशय के, जानोगे वह सुनो।।
।।7.1।। मयि वक्ष्यमाणविशेषणे परमेश्वरे आसक्तं मनः यस्य सः मय्यासक्तमनाः हे पार्थ योगं युञ्जन् मनःसमाधानं कुर्वन् मदाश्रयः अहमेव परमेश्वरः आश्रयो यस्य सः मदाश्रयः। यो हि कश्चित् पुरुषार्थेन केनचित् अर्थी भवति स तत्साधनं कर्म अग्निहोत्रादि तपः दानं वा किञ्चित् आश्रयं प्रतिपद्यते अयं तु योगी मामेव आश्रयं प्रतिपद्यते हित्वा अन्यत् साधनान्तरं मय्येव आसक्तमनाः भवति। यः त्वं एवंभूतः सन् असंशयं समग्रं समस्तं विभूतिबलशक्त्यैश्वर्यादिगुणसंपन्नं मां यथा येन प्रकारेण ज्ञास्यसि संशयमन्तरेण एवमेव भगवान् इति तत् श्रृणु उच्यमानं मया।।तच्च मद्विषयम्
।।7.1।। ध्यानाभ्यास का आरम्भ करने के पूर्व साधक जब तक केवल बौद्धिक स्तर पर ही वेदान्त का विचार करता है जैसा कि प्रारम्भ में होना स्वाभाविक है तब तक उसके मन में प्रश्न उठता रहता है कि परिच्छिन्न मन के द्वारा अनन्तस्वरूप सत्य का साक्षात्कार किस प्रकार किया जा सकता है यह प्रश्न सभी जिज्ञासुओं के मन में आता है और इसीलिए वेदान्तशास्त्र इस विषय का विस्तार से वर्णन करता है कि किस प्रकार ध्यान की प्रक्रिया से मन अपनी ही परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर अपने अनन्तस्वरूप का अनुभव करता है।इस षडाध्यायी के विवेच्य विषय की प्रस्तावना करते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन को वचन देते हैं कि वे आत्मसाक्षात्कार के सिद्धान्त एवं उपायों का समग्रत वर्णन करेंगे जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि किस प्रकार सुसंगठित मन के द्वारा आत्मस्वरूप का ध्यान करने से आत्मा की अपरोक्षानुभूति होती है। ध्यान के सन्दर्भ में मन शब्द का प्रयोग होने पर उससे शुद्ध एवं एकाग्र मन का ही अभिप्राय है न कि अशक्त तथा विखण्डित मन। अनुशासित और असंगठित मन जब अपने स्वरूप में समाहित होता है तब साधक का विकास तीव्र गति से होता है। इस प्रकरण कै विषय है आन्तरिक विकास का युक्तियुक्त विवेचन।श्रीभगवान् कहते हैं
।।7.1 7.2।।मय्यासक्तेति ज्ञानमिति। ज्ञानविज्ञाने ज्ञानक्रिये एव। ततो न किञ्चिदवशिष्यते सर्वस्य ज्ञेयजातस्य ज्ञानक्रियानिष्ठत्वात्।