श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।6.47।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।6.47।। समस्त योगियों में जो भी श्रद्धावान् योगी मुझ में युक्त हुये अन्तरात्मा से (अर्थात् एकत्व भाव से मुझे भजता है, वह मुझे युक्ततम (सर्वश्रेष्ठ) मान्य है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।6.47।। योगिनामपि सर्वेषां रुद्रादित्यादिध्यानपराणां मध्ये मद्गतेन मयि वासुदेवे समाहितेन अन्तरात्मना अन्तःकरणेन श्रद्धावान् श्रद्दधानः सन् भजते सेवते यो माम् स मे मम युक्ततमः अतिशयेन युक्तः मतः अभिप्रेतः इति।।

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपाद

शिष्यस्य श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येषष्ठोऽध्यायः।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।6.47।। पूर्व श्लोक में आध्यात्मिक साधनाओं का तुलनात्मक मूल्यांकन करके ध्यानयोग को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया गया है। अब इस श्लोक में समस्त योगियों में भी सर्वश्रेष्ठ योगी कौन है इसे स्पष्ट किया गया है। ध्यानाभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में साधक को प्रयत्नपूर्वक ध्येय विषयक वृत्ति बनाये रखनी पड़ती है और मन को बारम्बार विजातीय वृत्ति से परावृत्त करना पड़ता है। स्वाभाविक ही है कि प्रारम्भ में ध्यान प्रयत्नपूर्वक ही होगा सहज नहीं। ध्येय (ध्यान का विषय) के स्वरूप तथा मन को स्थिर करने की विधि के आधार पर ध्यान साधना का विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है।इस दृष्टि से हमारी परम्परा में प्रतीकोपासना ईश्वर के सगुण साकार रूप का ध्यान गुरु की उपासना कुण्डलिनी पर ध्यान अथवा मन्त्र के जपरूप ध्यान आदि का उपदेश दिया गया है। इसी आधार पर कहा जाता है कि योगी भी अनेक प्रकार के होते हैं। यहाँ भगवान् स्पष्ट करते हैं कि उपर्युक्त योगियों में श्रेष्ठ और सफल योगी कौन है।जो श्रद्धावान् योगी मुझ से एकरूप हो गया है तथा मुझे भजता है वह युक्ततम है। यह श्लोक सम्पूर्ण योगशास्त्र का सार है और इस कारण इसके गूढ़ अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की जा सकती है। यही कारण है कि भगवान् आगामी सम्पूर्ण अध्याय में इस मन्त्र रूप श्लोक की व्याख्या करते हैं।इस अध्याय को समझने की दृष्टि से इस स्थान पर इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि ध्यानाभ्यास का प्रयोजन मन को संगठित करने में उतना नहीं है जितना कि अन्तकरण को आत्मस्वरूप में लीन करके शुद्ध स्वरूप की अनुभूति करने में है। यह कार्य वही पुरुष सफलतापूर्वक कर सकता है जो श्रद्धायुक्त होकर मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ही भजन करता है।भजन शब्द के साथ अनेक अनावश्यक अर्थ जुड़ गये हैं और आजकल इसका अर्थ होता है कर्मकाण्ड अथवा पौराणिक पूजा का विशाल आडम्बर। ऐसी पूजा का न पुजारी के लिए विशेष अर्थ होता है और न उन भक्तों को जो पूजा कर्म को देखते हुए खड़े रहते हैं। कभीकभी भजन का अर्थ होता है वाद्यों के साथ उच्च स्वर में कीर्तन करना जिसमें भावुक प्रवृति के लोगों को बड़ा रस आता है और वे भावावेश में उत्तेजित होकर अन्त में थक जाते हैं। यदा कदा ही उन्हें आत्मानन्द का अस्पष्टसा भान होता होगा। वेदान्त शास्त्र में भजन का अर्थ है जीव का समर्पण भाव से किया गया सेवा कर्म। भक्तिपूर्ण समर्पण से उस साधक को मन से परे आत्मतत्त्व का साक्षात् अनुभव होता है। इस प्रकार जो योगी आत्मानुसंधान रूप भजन करता है वह परमात्मस्वरूप में एक हो जाता है। ऐसे ही योगी को यहां सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।वेदान्त की भाषा में कहा जायेगा कि जिस योगी ने अनात्म जड़उपाधियों से तादात्म्य दूर करके आत्मस्वरूप को पहचान लिया है वह श्रेष्ठतम योगी है।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का ध्यानयोग नामक छठवां अध्याय समाप्त होता है।

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।6.47।।न च निरीश्वरं कष्टयोगमात्रं संसिद्धिदं इति उच्यते योगिनामपीति। सर्वयोगिमध्ये य एवं मामन्तःकरणे निवेश्य भक्तिश्रद्धातत्परो गुरुचरणसेवालब्धसंप्रदायक्रमेण मामेव नान्यत् (N नान्यम्) भजते विमृशति (SN omit विमृशति K substitutes विमृश्यते) स मे युक्ततमः परमेश्वरसमाविष्टः (S omits परमेश्वरसमाविष्टः)। इति सेश्वरस्य ज्ञानस्य सर्वप्राधान्यमुक्तम् इति।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

6.47 Yoginam etc. He, who establishes Me in his internal organ; who is totally addicted to devotion and faith and who serves i.e., internally experiences Me alone, and not anything else, following the method of tradition, learnt by rendering service to the revered teachers-he alone among all the Yogins, is the best master of the Yoga i.e., one who is fully absorbed in the Supreme Lord. Thus the superiority of the Yoga with Godly knowledge over all [other means] has been explained.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

6.47 Api, even; sarvesam yoginam, among all the yogis, among those who are immersed in meditation on Rudra, Aditya, and others; yah, he who; bhajate, adores; mam, Me; antaratmana,with his mind; madgatena, fixed on Me, concentrated on Me who am Vasudeva; and sraddhavan, with faith, becoming filled with faith; sah, he; is matah, considered; me, by Me; to be yukta-tamah, the best of the yogis, engaged in Yoga most intensely. [It has been shown thus far that Karma-yoga has monasticism as its ultimate culmination. And in the course of expounding Dhyana-yoga together with its ausxiliaries, and instructing about the means to control the mind, the Lord rules out the possibility of absolute ruin for a person fallen from Yoga. He has also stated that steadfastness in Knowledge is for a man who knows the meaning of the word tvam (thou) (in 'Thou are That'). All these instructions amount to declaring that Liberation comes from the knowledge of the great Upanisadic saying, 'Thou art That.']

English Translation By Swami Gambirananda

6.47 Even among all the yogis, he who adores Me with his mind fixed on Me and with faith,he is considered by Me to be the best of the yogis.