सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।18.66।।सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
।।18.66।। भगवद्गीता के समस्त श्लोकों में यह श्लोक सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी अत्यधिक विवादास्पद बन गया है। इस श्लोक की व्याख्या करने में सभी अनुवादकों? भाष्यकारों समीक्षकों और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता एवं मौलिकता की पूँजी लगा दी है। व्यापक आशय के इस महान् श्लोक के माध्यम से प्रत्येक दार्शनिक ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। श्री रामानुजाचार्य के अनुसार सम्पूर्ण गीता का यह चरम श्लोक है।धर्म शब्द हिन्दू संस्कृति का हृदय है। विभिन्न सन्दर्भों में इस शब्द का प्रयोग किन्हीं विशेष अभिप्रायों से किया जाता है। यही कारण है कि भारतवर्ष के निवासियों ने इस पवित्र भूमि की आध्यात्मिक सम्पदा का आनन्द उपभोग किया और यहाँ के धर्म को सनातन धर्म की संज्ञा प्रदान की।हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है अस्तित्व का नियम। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है? अन्यथा नहीं? वह गुण उस वस्तु का धर्म कहलाता है। उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है? उष्णता के अभाव में नहीं? इसलिए? अग्नि का धर्म उष्णता है। शीतल अग्नि से अभी हमारा परिचय होना शेष है मधुरता चीनी का धर्म है? कटु चीनी मिथ्या हैजगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म (कृत्रिम या नैमित्तिक) गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है? परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है? जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है।इस दृष्टि से मनुष्य का निश्चित रूप से क्या धर्म है उसकी त्वचा का वर्ण? असंख्य और विविध प्रकार की भावनाएं और विचार? उसका स्वभाव (संस्कार)? उसके शरीर? मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व है। यही आत्मा समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए? मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है।यद्यपि नैतिकता? सदाचार? जीवन के समस्त कर्तव्य? श्रद्धा? दान? विश्व कल्याण की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। सदाचार आदि को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार? सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। इसलिए? हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक? मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को धर्म की संज्ञा दी गयी है? जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं।इसमें सन्देह नहीं है कि गीता के कतिपय श्लोकों में? भगवान् श्रीकृष्ण ने साधकों को किसी निश्चित जीवन पद्धति का अवलम्बन करने का आदेश दिया है और यह भी आश्वासन दिया है कि वे स्वयं उनका उद्धार करेंगे। उद्धार का अर्थ भगवत्स्वरूप की प्राप्ति है। परन्तु इस श्लोक के समान कहीं भी उन्होंने इतने सीधे और स्पष्ट रूप में? अपने भक्त के मोक्ष के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की अपनी तत्परता व्यक्त नहीं की हैं।ध्यानयोग के साधकों को तीन गुणों को सम्पादित करना चाहिए। वे हैं (1) ज्ञानपूर्वक ध्यान के द्वारा सब धर्मों का त्याग? (2) मेरी (ईश्वर की) ही शरण में आना? और? (3) चिन्ता व शोक का परित्याग करना। इस साधना का पुरस्कार मोक्ष है मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। यह आश्वासन मानवमात्र के लिये दिया गया है। गीता एक सार्वभौमिक धर्मशास्त्र है यह मनुष्य की बाइबिल है? मानवता का कुरान और हिन्दुओं का शक्तिशाली धर्मग्रन्थ है।सर्वधर्मान् परित्यज्य (सब धर्मों का परित्याग करके) हम देख चुके हैं कि अस्तित्व का नियम धर्म है? और कोई भी वस्तु अपने धर्म का त्याग करके बनी नहीं रह सकती। और फिर भी? यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त धर्मों का परित्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म की हमारी परिभाषा त्रुटिपूर्ण हैं अथवा? क्या इस श्लोक में ही परस्पर विरोधी कथन है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण मनुष्य अपने शरीर? मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न? र्मत्य जीव का जीवन जीता है। इन उपाधियों से तादात्म्य के फलस्वरूप उत्पन्न द्रष्टा? मन्ता? ज्ञाता? कर्ता? भोक्ता रूप जीव ही संसार के दुखों को भोगता है। वह शरीरादि उपाधियों के जन्ममरणादि धर्मों को अपने ही धर्म समझता है। परन्तु? वस्तुत? ये हमारे शुद्ध स्वरूप के धर्म नहीं हैं। वे गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ अहंकार का नाश ही है।इसलिए? समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर? मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के साथ हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है? उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं।मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है? जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं।साधना के केवल निषेधात्मक पक्ष को ही बताने से भारतीय दार्शनिकों को सन्तोष नहीं होता है निषेधात्मक आदेशों की अपेक्षा विधेयात्मक उपदेशों में वे अधिक विश्वास रखते हैं। भारतीय दर्शन की स्वभावगत विशेषता है? उसकी व्यावहारिकता। और इस श्लोक में हमें यही विशेषता देखने को मिलती है। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं? तुम मेरी शरण में आओ? मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा।मा शुच (तुम शोक मत करो) उपर्युक्त दो गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक को ध्यानाभ्यास में एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है। परन्तु यह शान्ति भी स्वरूपभूत शान्ति नहीं है। तथापि ऐसे शान्त मन का उपयोग आत्मस्वरूप में दृढ़ स्थिति पाने के लिए करना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य से? आत्मसाक्षात्कार की व्याकुलता या उत्कण्ठा ही इस शान्ति को भंग कर देती है। चिन्ता का स्पर्श पाकर एक स्वाप्निक सेतु के समान यह शान्ति लुप्त हो जाती है। बाह्य विषयों तथा शरीरादि उपाधियों से मन के ध्यान को निवृत्त करके उसे आत्मस्वरूप में समाहित कर लेने पर साधक को साक्षात्कार की उत्कण्ठा का भी त्याग कर देना चाहिए। ऐसी उत्कण्ठा भी चरम उपलब्धि में बाधक बन सकती है।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा) जो हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके हमारी शक्तियों को बिखेर देता है? वह पाप कहलाता है। हमारे कर्म ही हमारी शक्ति का ह्रास कर सकते हैं? क्योंकि मन और बुद्धि की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। संक्षेप में? कर्म मनुष्य के अन्तकरण में वासनाओं को अंकित करते जाते हैं? जिन से प्रेरित होकर मनुष्य बारम्बार कर्म में प्रवृत्त होता है।शुभ वासनाएं शुभ विचारों को जन्म देती हैं? तो अशुभ वासनाओं से अशुभ विचार ही उत्पन्न होते हैं। वृत्ति रूप मन है? अत जब तक शुभ या अशुभ वृत्तियों का प्रवाह बना रहता है? तब तक मन का भी अस्तित्व यथावत् बना रहता है। इसलिए वासनाक्षय का अर्थ ही वृत्तिशून्यता है? और यही मनोनाश भी है। मन और बुद्धि के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप कृष्णतत्व का साक्षात्कार करना है।जिस मात्रा में एक साधक अनात्मा से तादात्म्य का त्याग करने और आत्मानुसंधान करने में सफल होता है? उसी मात्रा में वह इस आत्मदर्शन को प्राप्त करता है। इस नवप्राप्त अनुभव में? वह अपनी सूक्ष्मतर वासनाओं के प्रति अधिकाधिक जागरूक होता जाता है। वासनाओं का यह भान अत्यन्त पीड़ादायक होता है। अत? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं? तुम शोक मत करो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। मन को विचलित करने वाली? कर्मों की प्रेरक? इच्छा और विक्षेपों को उत्पन्न करने वाली ये वासनाएं ही पाप हैं।यह श्लोक महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि यहाँ स्वयं सर्वशक्तिमान् भगवान् ही ऐसे साधक की सहायता करने के लिए तत्परता दिखाते हैं? जो उत्साह के साथ सर्वसंभव प्रयत्नों के द्वारा अपना योगदान देने को उत्सुक है। साधनाकाल में? यदि साधक अपने मन में दुर्दम्य आशावाद का स्वस्थ वातावरण बनाये रख पाता है? तो अध्यात्म मार्ग में उसकी प्रगति निश्चित होती है।इसके विपरीत? जिस साधक का मन नैराश्य और रुदन? विषाद और अवसाद से भरा रहता है वह कभी पूर्ण हृदय से आवश्यक प्रयत्न कर ही नहीं कर सकता है और? स्वाभाविक ही है कि उसके आत्मविकास का लक्ष्य कहीं दूरदूर तक भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। गूढ़ अभिप्रायों एवं व्यापक आशयों से पूर्ण यह एक श्लोक ही अपने आप में इस दार्शनिक काव्य गीता का उपसंहार है।इस अध्याय में सम्पूर्ण गीताशास्त्र के तत्त्वज्ञान का उपसंहार किया गया है। शास्त्रसिद्धांत पर विशेष बल देने के प्रयोजन से? इस श्लोक में पुन संक्षेप में उसका वर्णन करने के पश्चात्? अब शास्त्रसम्प्रदाय की विधि का वर्णन करते हैं।
18.66 सर्वधर्मान् all duties, परित्यज्य having abandoned, माम् to Me, एकम् alone, शरणम् refuge, व्रज take, अहम् I, त्वा thee, सर्वपापेभ्यः from all sins, मोक्षयिष्यामि will liberate, मा dont, शुचः grieve.
Commentary:
This is the answer given by the Lord to the estion put by Arjuna in chapter II, verse 7 I ask Thee which may be the better tell me that decidedly. I am Thy disciple, suppliant to Thee teach me.All Dharmas Righteous deeds, including Adharma all actions, righteous or unrighteous, as absolute freedom from all actions is intended to be taught here.Taking refuge in Me alone implies the knowledge of unity without any thought of duality knowing that there is nothing else except Me, the Self of all, dwelling the same in all. If thou art established in this faith, I shall liberate thee from all sins, from all bonds of Dharma and Adharma by manifesting Myself as thy own Self.To behold forms is the Dharma of the eye. The support or substratum of all forms is Brahman. When you look at an object behold Brahman Which is the one essence and abandon the form as it is illusory and unreal. Have the same attitude towards the other objects which pertain to the other senses.Give up the JivaDharma (the notions I am the doer o actions, I enjoy. I am a Brahmana. I am a Brahmachari. I am endowed with a little knowledge and power, etc. and get yourself established in BrahmaBhavana (the understanding or knowledge I am Brahman). This is what is meant by taking refuge in Lord Krishna, according to the Vedantins.Work ceaselessly for the Lord but surrender the fruits of all actions to the Lord. Take the Lord as your sole refuge. Live for Him. Work for Him. Serve Him in all forms. Think of Him only. Meditate on Him alone. See Him in all forms. Think of Him only. Meditate on Him alone. See Him everywhere. Worship Him in your heart. Consecrate your life, all actions, feelings and thoughts to the Lord. You will rest in Him. You will attain union with Him. You will attain immortal supreme peace and eternal bliss. This is the view of another school of thought.Sri Sankara very strongly refutes the idea that knowledge in conjunction with Karma (action) produces or leads to liberation. He says that Karma and knowledge may not go together in the same man, that karma helps the man to get purification of the heart, and that right knowledge of the Self alone will give him absolute freedom from Samsara. He says that work and knowledge are like darkness and light, that action is possible only in this universe of illusory phenomena which is the projection of ignorance and knowledge dispels this ignorance. (Cf.III.30IX.22)