प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।3.27।। प्रकृतेः प्रकृतिः प्रधानं सत्त्वरजस्तमसां गुणानां साम्यावस्था तस्याः प्रकृतेः गुणैः विकारैः कार्यकरणरूपैः क्रियमाणानि कर्माणिलौकिकानि शास्त्रीयाणि च सर्वशः सर्वप्रकारैः अहंकारविमूढात्मा कार्यकरणसंघातात्मप्रत्ययः अहंकारः तेन विविधं नानाविधं मूढः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयं कार्यकरणधर्मा कार्यकरणाभिमानी अविद्यया कर्माणि आत्मनि मन्यमानः तत्तत्कर्मणाम् अहं कर्ता इति मन्यते।।यः पुनर्विद्वान्
।।3.27।।मूर्ख अज्ञानी मनुष्य कर्मोंमें किस प्रकार आसक्त होता है सो कहते हैं सत्त्व रजस् और तमस् इन तीनों गुणोंकी जो साम्यावस्था है उसका नाम प्रधान या प्रकृति है उस प्रकृतिके गुणोंसे अर्थात् कार्य और करणरूप समस्त विकारोंसे लौकिक और शास्त्रीय सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे किये जाते हैं। परंतु अहंकारविमूढात्मा कार्य और करणके संघातरूप शरीरमें आत्मभावकी प्रतीतिका नाम अहंकार है उस अहंकारसे जिसका अन्तःकरण अनेक प्रकारसे मोहित हो चुका है ऐसा देहेन्द्रियके धर्मको अपना धर्म माननेवाला देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृतिके कर्मोंको अपनेमें मानता हुआ उनउन कर्मोंका मैं कर्ता हूँ ऐसा मान बैठता है।