श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ।

एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।15.20।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।15.20।।हे निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है। हे भरतवंशी अर्जुन ! इसको जानकर मनुष्य ज्ञानवान् (तथा प्राप्त-प्राप्तव्य) और कृतकृत्य हो जाता है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।15.20।। हे निष्पाप भारत ! इस प्रकार यह गुह्यतम शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको जानकर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है।।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।15.20।।इदानीमध्यायार्थं स्तुवन्नुपसंहरति -- इतीति। इति अनेन प्रकारेण गुह्यतमं रहस्यतमं संपूर्णं शास्त्रमेव संक्षेपेणेदमस्मिन्नध्याये मयोक्तं हे अनघ अव्यसन? एतद्बुद्ध्वान्योऽपि यः कश्चिद्बुद्धिमानात्मज्ञानवान्स्यात् कृतं सर्वं कृत्यं येन न पुनः कृत्यान्तरं यस्यास्ति स कृतकृत्यश्च स्यात्। विशिष्टजन्मप्रसूतेन ब्राह्मणेन यत्कर्तव्यं तत्सर्वं भगवत्तत्त्वे विदिते कृतं भवेत् न त्वन्यथा कर्तव्यं परिसमाप्यते कस्यचिदित्यभिप्रायः। हे भारत? त्वं तु महाकुलप्रसूतः स्वयं च व्यसनरहित इति कुलगुणेन स्वगुणेन चैतद्बुद्ध्वा कृतकृत्यो भविष्यसीति किमु वक्तव्यमित्यभिप्रायः।वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।

पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।1।।सदा सदानन्दपदे निमग्नं मनो मनोभावमपाकरोति। गतागतायासमपास्य सद्यः परापरातीतमुपैति तत्त्वम्।।2।।शैवाः सौराश्च गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः। भवन्ति यन्मयाः सर्वे सोहमस्मि परः शिवः।।3।।प्रमाणतोऽपि निर्णीतं कृष्णमाहात्म्यमद्भुतम्। न शक्नुवन्ति ये सोढुं ते मूढा निरयं गताः।।4।।,

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।15.20।। -- इति एतत् गुह्यतमं गोप्यतमम्? अत्यन्तरहस्यं इत्येतत्। किं तत् शास्त्रम्। यद्यपि गीताख्यं समस्तम् शास्त्रम् उच्यते? तथापि अयमेव अध्यायः इह शास्त्रम् इति उच्यते स्तुत्यर्थं प्रकरणात्। सर्वो हि गीताशास्त्रार्थः अस्मिन् अध्याये समासेन उक्तः। न केवलं गीताशास्त्रार्थ एव? किंतु सर्वश्च वेदार्थः इह परिसमाप्तः। यस्तं वेद स वेदवित् (गीता 15।1) वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः (गीता 15।15) इति च उक्तम्। इदम् उक्तं कथितं मया हे अनघ अपाप। एतत् शास्त्रं यथादर्शितार्थं बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् भवेत् न अन्यथा कृतकृत्यश्च भारत कृतं कृत्यं कर्तव्यं येन सः कृतकृत्यः विशिष्टजन्मप्रसूतेन ब्राह्मणेन यत् कर्तव्यं तत् सर्वं भगवत्तत्त्वे विदिते कृतं भवेत् इत्यर्थः न च अन्यथा कर्तव्यं परिसमाप्यते कस्यचित् इत्यभिप्रायः। सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते (गीता 4।33) इति च उक्तम्। एतद्धि जन्मसामग्र्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः। प्राप्यैतत्कृतकृत्यो हि द्विजो भवति नान्यथा (मनुस्मृति 12।93) इति च मानवं वचनम्। यतः एतत् परमार्थतत्त्वं मत्तः श्रुतवान् असि? अतः कृतार्थः त्वं भारत इति।।

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये

पञ्चदशोऽध्यायः।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।15.20।। प्रस्तुत अध्याय के इस अन्तिम श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने अर्जुन को गुह्यतम ज्ञान का उपदेश दिया है। इस ज्ञान को गुह्य या रहस्य इस दृष्टि से नहीं कहा गया है कि इसका उपदेश किसी को नहीं देना चाहिये अभिप्राय यह है कि परमात्मा इन्द्रिय अगोचर होने के कारण कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा उसे अपनी बुद्धि से नहीं जान सकता है। अत वह उसके लिये रहस्य ही बना रहेगा। केवल एक शास्त्रज्ञ और आत्मानुभवी आचार्य के उपदेश से ही परमात्मज्ञान हो सकता है।हे निष्पाप वह कर्म? भावना या विचार? पाप कहलाता है? जिसको करने पर कालान्तर में हमारे मन में विक्षेप? पश्चाताप तथा आत्मग्लानि उत्पन्न होती है। इन के होने पर अन्तकरण में आत्मविचार करने के लिये आवश्यक सूक्ष्मता और सजगता नहीं रहती। अत इस सन्दर्भ में अर्जुन को निष्पाप कहकर संबोधित करना यह दर्शाता है कि वह आत्मज्ञान के योग्य है।अपने पुरुषोत्तम स्वरूप को जानने वाला पुरुष बुद्धिमान् बन जाता है। इसका अर्थ यह है कि इस ज्ञान के पश्चात् वह जीवन में वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को समझने में और कर्म से संबंधित निर्णय लेने में त्रुटि नहीं करता है। फलस्वरूप वह न स्वयं के लिये भ्रम और दुख उत्पन्न करता है और न ही समाज के अन्य व्यक्तियों के लिये।परमात्मा के ज्ञान का फल है कृतकृत्यता। मन में पूर्ण सन्तोष का वह भाव? जो जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर उदय होता है? कृतकृत्यता कहलाता है। तत्पश्चात् उस व्यक्ति के लिये न कोई प्राप्तव्य शेष रहता है और न कोई कर्तव्य। यह श्लोक उत्तम अधिकारियों को आत्मज्ञान के इस श्रेष्ठ फल का आश्वासन देता है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्याय।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।15.20।।इस अध्यायमें मोक्षरूप फलके देनेवाले भगवत्तत्त्वज्ञानको कहकर अब उसकी स्तुति करते हैं --, यह गुह्यतम -- सबसे अधिक गोपनीय अर्थात् अत्यन्त गूढ़ रहस्य है। वह क्या है शास्त्र। यद्यपि सारी गीताका नाम ही शास्त्र कहा जाता है? परंतु यहाँ स्तुतिके लिये प्रकरणसे यह ( पंद्रहवाँ ) अध्याय ही शास्त्र नामसे कहा गया है। क्योंकि इस अध्यायमें केवल सारे गीताशास्त्रका अर्थ ही संक्षेपसे नहीं कहा गया है? किन्तु इसमें समस्त वेदोंका अर्थ भी समाप्त हो गया है। यह कहा भी है कि जो उसे जानता है वही वेदको जाननेवाला है समस्त वेदोंसे मैं ही जाननेयोग्य हूँ। हे निष्पाप अर्जुन ऐसा यह ( परम गोपनीय शास्त्र ) मैंने कहा है। हे भारत ऊपर दिखलाये हुए अर्थसे युक्त इस शास्त्रको जानकर ही? मनुष्य बुद्धिमान् और कृतकृत्य होता है? अन्य प्रकारसे नहीं। अभिप्राय यह है कि जिसने करनेयोग्य सब कुछ कर लिया हो? वह कृतकृत्य है? अतः श्रेष्ठ कुलमें जन्म लेनेवाले ब्राह्मणद्वारा जो कुछ किया जानेयोग्य है? वह सब भगवान्का तत्त्व जान लेनेपर किया हुआ हो जाता है। अन्य प्रकारसे किसीके भी कर्तव्यकी समाप्ति नहीं होती। कहा भी है कि हे पार्थ समस्त कर्मसमुदाय? ज्ञानमें सर्वथा समाप्त हो जाता है। तथा मनुका भी वचन है कि विशेषरूपसे ब्राह्मणके जन्मकी यही पूर्णता है क्योंकि इसीको प्राप्त करके द्विज कृतकृत्य होता है अन्य प्रकारसे नहीं। हे भारत क्योंकि तूने मुझसे यह परमार्थतत्त्व सुना है? इसलिये तू कृतार्थ हो गया है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।15.20।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।15.20।।इत्थं मम पुरुषोत्तमत्वप्रतिपादनं सर्वेषां गुह्यानां गुह्यतमम् इदं शास्त्रं त्वम् अनघतया योग्यतम इति कृत्वा मया तव उक्तम्। एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च मां प्रेप्सुना उपादेया या बुद्धिः सा सर्वा उपात्ता स्यात्। यत् च तेन कर्तव्यम्? तत् च सर्वं कृतं स्याद् इत्यर्थः।अनेन श्लोकेन अनन्तरोक्तं पुरुषोत्तमविषयं ज्ञानं शास्त्रजन्यम् एव एतत् सर्वं करोति न तु साक्षात्काररूपम् इति उच्यते।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

15.20 Iti etc. The most secret [scripture] : Because it explains the oneness of all. One becomes a man of wisdom by knowing this only and not by the knowledge of worldly affairs. One becomes a man of success by just understanding this, and not even by the deeds like the total victory over the foes, earning wealth, enjoying women and so on. The word ca 'also' indicates a wonder. Has it not been witnessed that [always] one becomes a man of success by what has been accomplished ? But it is strange that [in the present case one becomes a man of success] by just what has been realised. The word iti 'thus' indicates the conclusion of the treatise. For, what is to be taught has come to an end completely. That is why in the Sixteenth Chapter the eligibility of the pupil, Arjuna, is exclusively dealt with; and nothing new is taught. The intention [of that chapter] is to say only this much : 'The divine wealth is just of that nature; but the devilish wealth born of illusion is of this nature; you (Arjuna) are however endowed with the divine wealth of wisdom'. Hence [the Lord] is going to say 'Don't worry. [You are endowed] with the divine wealth' (XVI, 5). That is why earlier in the context of explaining the clash between the wisdom and ignorance this has been indicated [by me (Ag.)]: 'It is the confrontation between the wisdom and ignorance that has been detailed under the pretext of [describing] the wars between the gods and devils.' So, while dealing essentially with the ality of a pupil, other subjects are mentioned incidentally. So also the pair of chapters (Ch. XVII & XVIII) would follow. But the teaching [proper] has come to an end completely here itself. For what is to be achieved is nothing but serving (attaining) the Absolute Lord-the serving, which is of the nature of total absorption into Him by one's entire being. All other things are only to achieve this end. This has been explained earlier. The Supreme Happiness is indeed nothing but a complete absorption into the Supreme Lord by one's entire being.

English Translation by Shri Purohit Swami

15.20 Thus, O Sinless One, I have revealed to thee this most mystic knowledge. He who understands gains wisdom and attains the consummation of life."

English Translation By Swami Sivananda

15.20 Thus, this most secret science has been taught by Me, O sinless one; on knowing this, a man becomes wise, and all his duties are accomplished, O Arjuna.