श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।16.1।।श्रीभगवान् बोले -- भयका सर्वथा अभाव; अन्तःकरणकी शुद्धि; ज्ञानके लिये योगमें दृढ़ स्थिति; सात्त्विक दान; इन्द्रियोंका दमन; यज्ञ; स्वाध्याय; कर्तव्य-पालनके लिये कष्ट सहना; शरीर-मन-वाणीकी सरलता।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।16.1।। श्री भगवान् ने कहा -- अभय, अन्त:करण की शुद्धि, ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप और आर्जव।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।16.1।।अनन्तराध्यायेअधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके इत्यत्र मनुष्यदेहे प्राग्भवीयकर्मानुसारेण व्यज्यमाना वासनाः संसारस्यावान्तरमूलत्वेनोक्तास्ताश्च दैव्यासुरी राक्षसी चेति प्राणिनां प्रकृतयो नवमेऽध्याये सूचिताः। तत्र वेदबोधितकर्मात्मज्ञानोपायानुष्ठानप्रवृत्तिहेतुः सात्त्विकी शुभवासना दैवी प्रकृतिरित्युच्यते। एवं वैदिकनिषेधातिक्रमेण स्वभावसिद्धरागद्वेषानुसारिसर्वानर्थप्रवृत्तिहेतुभूता राजसी। तामसी चाशुभवासनासुरी राक्षसी च प्रकृतिरुच्यते। तत्रच विषयभोगप्राधान्येन रागप्राबल्यादासुरीत्वं? हिंसाप्राधान्येन द्वेषप्राबल्याद्राक्षसीत्वमिति विवेकः। संप्रति तु शास्त्रानुसारेण तद्विहितप्रवृत्तिहेतुभूता सात्त्विकी शुभवासना दैवी संपत्? शास्त्रातिक्रमेण तन्निषिद्धविषयप्रवृत्तिहेतुभूता राजसी? तामसी चाशुभवासना राक्षस्यासुर्योरेकीकरणेनासुरीसंपदिति द्वैराश्येन शुभाशुभवासनाभेदंद्वया ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च इत्यादिश्रुतिप्रसिद्धः शुभानामादानायाशुभानां हानाय च प्रतिपादयितुं षोडशोऽध्याय आरभ्यते। तत्रादौ श्लोकत्रयेणादेयां दैवीं संपदं श्रीभगवानुवाच -- अभयमिति। शास्त्रोपदिष्टेऽर्थे संदेहं विनाऽनुष्ठाननिष्ठत्वं एकाकी सर्वपरिग्रहशून्यः कथं जीविष्यामीति भयराहित्यं वाऽभयम्? सत्त्वस्यान्तःकरणस्य शुद्धिर्निर्मलता तस्याः सम्यक्ता भगवत्तत्त्वस्फूर्तियोग्यता सत्त्वसंशुद्धिः परवञ्चनमायानृतादिपरिवर्जनं वा परस्य व्याजेन वशीकरणं परवञ्चनं? हृदयेऽन्यथा कृत्वा बहिरन्यथा व्यवहरणं माया? अयथादृष्टकरणमनृतमित्यादि? ज्ञानं शास्त्रादात्मतत्त्वस्यावगमः? चित्तैकाग्रंतयां तस्य स्वानुभवारूढत्वं योगस्तयोर्व्यवस्थितिः सर्वदा तन्निष्ठता ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। यदा तु अभयं सर्वभूताभयदानसंकल्पपालनं एतच्चान्येषामपि परमहंसधर्माणामुपलक्षणम्। सत्त्वसंशुद्धिश्रवणादिपरिपाकेणान्तःकरणस्यासंभावनाविपरीतभावनादिमलराहित्यं। ज्ञानमात्मसाक्षात्कारः। योगो मनोनाशवासनाक्षयानुकूलः पुरुषप्रयत्नस्ताभ्यां विशिष्टा संसारिविलक्षणावस्थितिर्जीवन्मुक्तिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिरित्येवं व्याख्यायते तदा फलभूतैव दैवी संपदियं द्रष्टव्या। भगवद्भक्तिं विनान्तःकरणसंशुद्धेरयोगात्तया सापि कथितामहात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् इति नवमे दैव्यां संपदि भगवद्भक्तेरुक्तत्वाच्च भगवद्भक्तेरतिश्रेष्ठत्वादभयादिभिः सह पाठो न कृत इति द्रष्टव्यम्। महाभाग्यानां परमहंसानां फलभूतां दैवीं संपदमुक्त्वा ततो न्यूनानां गृहस्थादीनां साधनभूतामाह -- दानं स्वस्वत्वास्पदानामन्नादीनां यथाशक्ति शास्त्रोक्तः संविभागः। दमो बाह्येन्द्रियसंयमः ऋतुकालाद्यतिरिक्तकाले मैथुनाद्यभावः। चकारोऽनुक्तानां निवृत्तिलक्षणधर्माणां समुच्चयार्थः। यज्ञश्च श्रौतोऽग्निहोत्रदर्शपूर्णमासादिः? स्मार्तो देवयज्ञः पितृयज्ञो भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञ इति चतुर्विधः। ब्रह्मयज्ञस्य स्वाध्यायपदेन पृथगुक्तेः। चकारोऽनुक्तानां प्रवृत्तिलक्षणधर्माणां समुच्चयार्थः। एतत्त्रयं गृहस्थस्य। स्वाध्यायो ब्रह्मयज्ञः अदृष्टार्थमृग्वेदाद्यध्ययनरूपो यज्ञशब्देन पञ्चविधमहायज्ञोक्तिसंभवेऽप्यसाधारण्येन ब्रह्मचारिधर्मत्वकथनार्थं पृथगुक्तिः। तपस्त्रिविधं शारीरादि सप्तदशे वक्ष्यमाणं वानप्रस्थस्यासाधारणो धर्मः। एवं चतुर्णामाश्रमाणामसाधारणान्धर्मानुक्त्वा चतुर्णां वर्णानामसाधारणधर्मानाह -- आर्जवं अवक्रत्वं श्रद्दधानेषु श्रोतृषु स्वज्ञातार्थासंगोपनम्।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya



।।16.1।। --,अभयम् अभीरुता। सत्त्वसंशुद्धिः सत्त्वस्य अन्तःकरणस्य संशुद्धिः संव्यवहारेषु परवञ्चनामायानृतादिपरिवर्जनं शुद्धसत्त्वभावेन व्यवहारः इत्यर्थः।।ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ज्ञानं शास्त्रतः आचार्यतश्च आत्मादिपदार्थानाम् अवगमः? अवगतानाम् इन्द्रियाद्युपसंहारेण एकाग्रतया स्वात्मसंवेद्यतापादनं योगः? तयोः ज्ञानयोगयोः व्यवस्थितिः व्यवस्थानं तन्निष्ठता। एषा प्रधाना दैवी सात्त्विकी संपत्। यत्र येषाम् अधिकृतानां या प्रकृतिः संभवति? सात्त्विकी सा उच्यते। दानं यथाशक्ति संविभागः अन्नादीनाम्। दमश्च बाह्यकरणानाम् उपशमः अन्तःकरणस्य उपशमं शान्तिं वक्ष्यति। यज्ञश्च श्रौतः अग्निहोत्रादिः। स्मार्तश्च देवयज्ञादिः? स्वाध्यायः ऋग्वेदाद्यध्ययनम् अदृष्टार्थम्। तपः वक्ष्यमाणं शारीरादि। आर्जवम् ऋजुत्वं सर्वदा।।किं च --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।16.1।। इस प्रथम श्लोक को पढ़ने से हमें उन अमानित्वादि बीस गुणों (जीवनादर्शों) का स्मरण होता है? जिन्हें क्षेत्राध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने ज्ञान की संज्ञा प्रदान की थी। इस श्लोक में उन आदर्श गुणों की प्राय सम्पूर्ण सूची प्रस्तुत की गयी है? जो आध्यात्मिक जीवन जीने वाले एक सुसंस्कृत पुरुष में देखे जाते हैं। अपने व्यावहारिक जीवन में उन बीस गुणों को जीना ही आध्यात्मिक जीवन कहलाता है। भगवान् श्रीकृष्ण इन दैवी गुणों की गणना करते समय प्रथम स्थान अभय को देते हैं। भय अविद्या का लक्षण है। जहाँ विद्या है? वहाँ निर्भयता है। गुणों की इस सूची में अभय को प्रथम स्थान देकर गीताचार्य़ यह इंगित करते हैं कि किसी साधक की नैतिक पूर्णता उसके आध्यात्मिक विकास के समान अनुपात में होती है।अन्तकरण की शुद्धि अपने व्यक्तित्व के बाह्य स्तर पर साधक को कितना ही संयम क्यों न हो? फिर भी वह संयम उसे रचनात्मक और निश्चयात्मक शक्ति प्रदान नहीं कर सकता? जो कि नैतिक जीवन का सार है? मर्म है। गीता? सैद्धांतिक और व्यावहारिक इन दोनों ही दृष्टियों से एक शक्तिशाली धर्म का उपदेश देती है। निष्क्रिय सदाचार का पालन करने वाली आज्ञाकारी पीढ़ी से भगवान् श्रीकृष्ण सन्तुष्ट नहीं हैं। वे चाहते हैं कि समाज के सभी लोग न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में ही सर्वोच्च नैतिक मूल्यों को जियें? वरन् सामाजिक जीवन में भी धर्माचरण की ऐसी नवचेतना जाग्रत करें? जिससे मनुष्यों की सम्पूर्ण पीढ़ी ही सत्य और धर्म के प्रकाश से उज्वल बन जाये। धर्म शब्द के अर्थ में उद्देश्यों की सत्यता और साधनों की शुद्धता अन्तर्निहित है।ज्ञानयोगव्यवस्थिति अत्यन्त देहासक्त और विषयासक्त पुरुष को उपर्युक्त अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। आत्मा के दिव्य गान के साथ एकस्वर हुए मन में ही अपनी निम्न स्तर की वृत्तियों? बन्धनकारक आसक्तियों और निन्द्य उद्देश्यों को त्यागने की आवश्यक सार्मथ्य होती है। ये हीन वृत्तियां सदैव अन्तकरण में उभर कर सामने आती रहती हैं। ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति ही मन को निम्नस्तर के प्रलोभनों से निवृत्त करने का निश्चयात्मक उपाय है। यदि कोई बालक कांच की निर्मित नाजुक कलाकृति के साथ खेल रहा हो? तो उसके मातापिता? उस बहुमूल्य वस्तु की सुरक्षा के लिए? प्राय बालक को चॉकलेट आदि कोई वस्तु देते हैं और वह बालक उसे पान्ो के लिए उस कांच की मूल्यवान् वस्तु को त्याग देता है। इसी प्रकार? आत्मा के आनन्द को अनुभव करने वाले पुरुष इन्द्रियों के विषयों तथा तज्जनित क्षणिक सुखों में स्वभावत आसक्त नहीं होता।दान? दम (इन्द्रिय संयम) और यज्ञ ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति प्राप्त करने के ये तीन साधन हैं जिनके द्वारा एक साधक अन्तकरण की योग्यता प्राप्त कर सकता है। बहुलता के भाव से उत्पन्न हुई दान की प्रवृत्ति ही वास्तविक दान है। जब हम अन्यों के साथ एकत्व का अनुभव करते हैं? तभी हम सबके साथ अपने सर्वस्व का विभाजन करने के लिए तत्पर होते हैं? अन्यथा नहीं। इस प्रकार? दान का उदय हमारी इस क्षमता से होता है? जिसके द्वारा हम अपनी परिग्रह और लोभ की प्रवृत्ति को संयमित करते हैं। जहाँ इनका संयमन एक पक्ष है? तो दूसरा पक्ष है यज्ञ अर्थात् त्याग की भावना। यज्ञ भावना से प्रेरित होने पर ही हम अपने संग्रह का दान कर सकते हैं। दान शब्द से केवल धन या वस्तुओं का ही दान नहीं? वरन् दुखियों के साथ सहानुभूति का भाव तथा ज्ञानदान भी इसमें सम्मिलित है।यदि दान साधक के वैराग्य को विकसित करता है? जिससे वह साधक अपनी सम्पत्ति का विनियोग दीनजनों की सहायता में करता है? तो हम कह सकते हैं कि हमारे व्यक्तिगत जीवन में इन्द्रियसंयम (दम)? उसी यज्ञ भावना का संप्रयोग है। इन्द्रियों के विषयों में विचरण करने का पूर्ण अधिकार देने का अर्थ अपनी सम्पूर्ण शक्ति का निष्फल ही अपव्यय करना है। साधक को चाहिए कि अपनी इस शक्ति का उपयोग वह अपने ध्यानाभ्यास में करे। मन को आत्मा में समाहित करने के लिए सूक्ष्म शक्ति की आवश्यकता होती है और उसे साधक इन्द्रियसंयम के द्वारा अपने में ही निहित देख सकता है। दान और दम के बिना सत्य की तीर्थयात्रा मात्र स्वप्न ही है।यज्ञ वैदिककाल में यज्ञ शब्द का अर्थ श्रद्धायुक्त होमहवन आदि का अनुष्ठान समझा जाता था। उस काल में साधकगण इन यज्ञों का श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करते थे। पौराणिक काल में वैदिक कर्मकाण्ड का स्थान मूर्तिपूजा? प्रार्थना जैसी भक्ति साधनाओं ने ले लिया जो उसी रूप में आज भी विद्यमान हैं। यज्ञ अर्थात् पूजा के अनुष्ठान से मन को एक आलम्बन प्राप्त होने से इन्द्रियों का संयमन करने में सरलता होती है। उसी प्रकार? चित्त की शुद्धता भी प्राप्त होने से दान की भावना भी जागृत होती है। इन गुणों के होने से आत्मानुभूति सहज सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार? इस श्लोक में यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रत्येक उत्तरोत्तर गुण अपने पूर्व के गुण से किस्ा प्रकार संबद्ध है।स्वाध्याय इस शब्द का पारम्परिक अर्थ है? वेदों का नित्य पठन तथा यथासंभव उसका अध्ययन भी करना। वेदों के नित्य? नियमित अध्ययन से हमें अपने व्यावहारिक जीवन में दैवी गुणों को जीने की प्रेरणा मिलती है। परन्तु? स्वाध्याय से मात्र वेदपठन या बौद्धिक स्तर पर उसके अर्थ को समझना ही पर्याप्त नहीं है। संस्कृत के इस शब्द का आशय है स्वयं का अध्ययन अर्थात् आत्मनिरीक्षण। वेदप्रतिपादित सत्यों को समझकर उनका स्वानुभवकरण ही वास्तविक स्वाध्याय है। स्वाध्याय और यज्ञ से हमें आत्मसंयम का जीवन जीने का साहस प्राप्त होगा? जो हमें अपने ध्यानाभ्यास में चित्त की स्थिरता प्रदान करेगा।तप शारीरिक स्तर पर पालन किये जाने वाले व्रत? उपवास आदि तप कहलाते हैं। तपाचरण से बाह्यजगत् के भोगों में व्यर्थ ही नष्ट होने वाली हमारी शक्ति का संचय होता है? जिसके सदुपयोग आत्मविकास के लिए किया जा सकता है।आर्जवम् इसका अर्थ है सरलता। बुद्धि के विचार? मन की भावनाओं और कर्मों में कुटिलता का साधक के व्यक्तित्व पर आत्मघातक परिणाम होता है। हमारे वास्तविक उद्देश्यों और प्रेरणाओं? निश्चय और आकांक्षाओं? विवेक और अनुभवों को असत्य सिद्ध करने वाले हमारे कर्मों का परिणाम अपने व्यक्तित्व की वक्रता होता है। जो व्यक्ति इस प्रकार का व्यक्तित्व जीता है? उसका जीवन दो भागों में विभाजित हो जाता है और शीघ्र ही वह अपनी कार्यकुशलता की आभा को खो देता है और व्यक्तिगत दृढ़ता की शक्ति की दृष्टि से भी दुर्बल हो जाता है।इस प्रकार? इस अध्याय के प्रथम श्लोक में ही? दैवीगुणों का उल्लेख करते हुए? उनके परस्पर संबंधों को भी दर्शाया गया है। हिन्दू धर्ण में वर्णित नैतिक मूल्य और सदाचार के नियम किसी कल्पनाकुशल सन्त या उदास देवदूत की स्वैच्छिक घोषणाएं नहीं हैं। विवेक और अनुभवों की दृढ़ चट्टानों की नींव पर उनका निर्णाण हुआ है। निष्ठापूर्वक उनका पालन करने और सजगतापूर्वक उन्हें जीने पर? वे हमारी प्राय सुप्त दैवी क्षमताओं को व्यक्त करने में अपना योगदान देते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार ये दैवी गुण अपने आप में स्वर्ग प्रवेश का अधिकार प्रदान नहीं कर सकते? परन्तु मनुष्य के हृदय में स्थित दिव्य आत्मतत्त्व को पूर्णतया उजागर करने म्ों वे पूर्ण तैयारी के रूप में सहायक होते हैं।और आगे कहते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।16.1।।उन तीनोंमें दैवी प्रकृति संसारसे मुक्त करनेवाली है? तथा आसुरी और राक्षसी प्रकृतियाँ बन्धन करनेवाली हैं? अतः यहाँ दैवी प्रकृति सम्पादन करनेके लिये और दूसरी दोनों त्यागनेके लिये दिखलायी जाती हैं -- श्रीभगवान् बोले --, अभयनिर्भयता? सत्त्वसंशुद्धि -- अन्तःकरणकी शुद्धि व्यवहारमें दूसरेके साथ ठगाई? कपट और झूठ आदि अवगुणोंको छोड़कर शुद्ध भावसे आचरण करना। ज्ञान और योगमें निरन्तर स्थिति -- शास्त्र और आचार्यसे आत्मादि पदार्थोंको जानना ज्ञान है और उन जाने हुए पदार्थोंका इन्द्रियादिके निग्रहसे ( प्राप्त ) एकाग्रताद्वारा अपने आत्मामें प्रत्यक्ष अनुभव कर लेना योग है। उन ज्ञान और योग दोनोंमें स्थिति अर्थात् स्थिर हो जाना -- तन्मय हो जाना? यही प्रधान सात्त्विकी -- दैवी संपद् है। और भी जिन अधिकारियोंकी जिस विषयमें जो सात्त्विकी प्रकृति हो सकती है वह कही जाती है -- दान -- अपनी शक्तिके अनुसार अन्नादि वस्तुओंका विभाग करना। दम -- बाह्य इन्द्रियोंका संयम। अन्तःकरणकी उपरामता तो शान्तिके नामसे आगे कही जायगी। यज्ञ -- अग्निहोत्रादि श्रौतयज्ञ और देवपूजनादि स्मार्तयज्ञ। स्वाध्याय -- अदृष्टलाभके लिये ऋक् आदि वेदोंका अध्ययन करना। तप -- शारीरिक आदि तप जो आगे बतलाया जायगा और आर्जव अर्थात् सदा सरलता सीधापन।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।16.1।। साधनविघ्नहर्त्रे नमः। पुमर्थसाधनविरोधीत्यनेनाध्यायेन दर्शयति -- तपो ब्रह्मचर्यादि।ब्रह्मचर्यादिकं तपः इति ह्यभिधानम्।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।16.1।।श्रीभगवानुवाच -- इष्टानिष्टवियोगसंयोगरूपस्य दुःखस्य हेतुदर्शनजं दुःखं भयम्? तन्निवृत्तिः अभयम्।

सत्त्वसंशुद्धिः सत्त्वस्य अन्तःकरणस्य रजस्तमोभ्याम् असंस्पृष्टत्वम्।

ज्ञानयोगव्यवस्थितिः प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपविवेकनिष्ठा।

दानं न्यायार्जितधनस्य पात्रे प्रतिपादनम्।

दमः मनसो विषयौन्मुखनिवृत्तिसंशीलनम्।

यज्ञः फलाभिसन्धिरहितभगवदाराधनरूपमहायज्ञाद्यनुष्ठानम्।

स्वाध्यायः सविभूतेः भगवतः तदाराधनप्रकारस्य च प्रतिपादकः कृत्स्नो वेदः? इति अनुसंधाय वेदाभ्यासनिष्ठा।

तपः कृच्छ्रचान्द्रायणद्वादश्युपवासादेः भगवत्प्रीणनकर्मयोग्यतापादनस्य करणम्।

आर्जवम् मनोवाक्कायकर्मवृत्तीनाम् एकनिष्ठा परेषु।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

16.1 See Coment under 16.5

English Translation by Shri Purohit Swami

16.1 "Lord Shri Krishna continued: Fearlessness, clean living, unceasing concentration on wisdom, readiness to give, self-control, a spirit of sacrifice, regular study of the scriptures, austerities, candour,

English Translation By Swami Sivananda

16.1 The Blessed Lord said Fearlessness, purity of heart, steadfastness in knowledge and Yoga, almsgiving, control of the senses, sacrifice, study of scriptures, austerity and straightforwardness.