श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।16.2।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।16.2।।अहिंसा, सत्यभाषण; क्रोध न करना; संसारकी कामनाका त्याग; अन्तःकरणमें राग-द्वेषजनित हलचलका न होना; चुगली न करना; प्राणियोंपर दया करना सांसारिक विषयोंमें न ललचाना; अन्तःकरणकी कोमलता; अकर्तव्य करनेमें लज्जा; चपलताका अभाव।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।16.2।। अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, अपैशुनम् (किसी की निन्दा न करना), भूतमात्र के प्रति दया, अलोलुपता , मार्दव (कोमलता), लज्जा, अचंचलता।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।16.2।।अहिंसेति। प्राणिवृत्तिच्छेदो हिंसा तदहेतुत्वमहिंसा। सत्यमनर्थाननुबन्धि यथाभूतार्थवचनम्। परैराक्रोशे ताडने वा कृते सति प्राप्तो यः क्रोधस्तस्य तत्कालमुपशमनमक्रोधः। दानस्य प्रागुक्तेस्त्यागः संन्यासः। दमस्य प्रागुक्तेः शान्तिरन्तःकरणस्योपशमः। परस्मै परोक्षे परदोषप्रकाशनं पैशुनं तदभावोऽपैशुनम्। दया भूतेषु दुःखितेष्वनुकम्पा। अलोलुप्त्वं इन्द्रियाणां विषयसंनिधानेप्यविक्रियत्वम्। मार्दवमक्रूरत्वं वृथापूर्वपक्षादिष्वपि शिष्यादिष्वप्रियभाषणादिव्यतिरेकेण बोधयितृत्वम्। ह्रीरकार्यप्रवृत्त्यारम्भे तत्प्रतिबन्धिका लोकलज्जा। अचापलं,प्रयोजनंविनापि वाक्पाण्यादिव्यापारयितृत्वं चापलं तदभावः। आर्जवादयोऽचापलान्ता ब्राह्मणस्यासाधारणा धर्माः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।16.2।। --,अहिंसा अहिंसनं प्राणिनां पीडावर्जनम्। सत्यम् अप्रियानृतवर्जितं यथाभूतार्थवचनम्। अक्रोधः परैः आक्रुष्टस्य अभिहतस्य वा प्राप्तस्य क्रोधस्य उपशमनम्। त्यागः संन्यासः? पूर्वं दानस्य उक्तत्वात्। शान्तिः अन्तःकरणस्य उपशमः। अपैशुनं अपिशुनता परस्मै पररन्ध्रप्रकटीकरणं पैशुनम्? तदभावः अपैशुनम्। दया कृपा भूतेषु दुःखितेषु। अलोलुप्त्वम् इन्द्रियाणां विषयसंनिधौ अविक्रिया। मार्दवं मृदुता अक्रौर्यम्। ह्रीः लज्जा। अचापलम् असति प्रयोजने वाक्पाणिपादादीनाम् अव्यापारयितृत्वम्।।किं च --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।16.2।। अहिंसा प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। स्वार्थ या द्वेषवशात् किसी को पीड़ित करना हिंसा है। अहिंसा का पालन शरीर? वाणी और मन इन तीनों स्तर पर होना चाहिए। कभीकभी बाह्यदृष्टि से कोई व्यक्ति शरीर को पीड़ा पहुँचाते हुए दिखाई देता है? जैसे एक शल्य चिकित्सक रोगी की चिकित्सा करते हुऐ? उसे पीड़ा देता है किन्तु वह हिंसा नहीं मानी जाती। वैसे भी शारीरिक स्तर पर सम्पूर्ण अहिंसा संभव नहीं हो सकती है? किन्तु मन में कदापि हिंसा का भाव नहीं होना चाहिए। चिकित्सक के मन में इस हिंसा का भाव न होने से उसके द्वारा की गई शल्य चिकित्सा को हिंसा नहीं कहा जाता।सत्यम् सत्य का कुछ भाव आर्जव शब्द की व्याख्या में प्रकट किया जा चुका है। प्रमाणों से सिद्ध अर्थ को उसी रूप में प्रकट करना सत्य कहलाता है।अक्रोध यहाँ इस शब्द का क्रोध का सर्वथा अभाव अर्थ अभिप्रेत नहीं है। साधना की स्थिति में कभीकभी किसी घटना अथवा किसी के दुर्व्यवहार से मन में क्रोध आ जाता है? परन्तु तत्काल ही उसे पहचान कर उसका उपशमन करने की क्षमता को यहाँ अक्रोध कहा गया है। साधक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह भी अपने क्रोध को क्रियारूप में व्यक्त न होने दे। इसी प्रकार की अन्य वृत्तियों का उपशमन करने की सार्मथ्य साधक को सम्पादित करनी चाहिए।त्याग यहाँ अहंकार और स्वार्थ का त्याग करने के लिए कहा गया है। पूर्व श्लोक के समान यहाँ उल्लिखित गुणों में भी परस्पर संबंध है। त्याग के अभाव में अक्रोध भी सिद्ध नहीं हो सकता? क्योंकि जब कोई हमारे अहंकार या स्वार्थ को चोट या हानि पहुंचाता है? तभी हमें क्रोध आता है।शान्ति उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न व्यक्ति के मन में विक्षेपों का कोई कारण नहीं रह जाता? इसलिए उसके मन की शान्ति बनी रहती है। बाह्य जगत् की अथवा उसके व्यक्तिगत जीवन की परिस्थितियां कितनी ही दुखदायक और आक्रामक क्यों न हों? उस व्यक्ति का मनसन्तुलन कभी विचलित नहीं होता है।अपैशुनम् किसी व्यक्ति के दोषों को अन्य लोगों के समक्ष प्रकट करने को पैशुन कहते हैं। पैशुन का अभाव ही अपैशुन है। वाणी की मधुरता या कर्कशता वक्ता के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। एक अयुक्त (अर्थात् अशुद्ध अन्तकरण वाले) पुरुष को अन्य लोगों की द्वेषयुक्त निन्दा करने में एक प्रकार का आसुरी आनन्द प्राप्त होता है। प्राय यह कोमल और मांसल जिह्वा ही किसी विनाशकारी अस्त्र से भी अधिक विध्वंसकारी सिद्ध होती है। आत्मविकास के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने की आकांक्षा रखने वाले उद्यमी साधक को ऐसा आन्तरिक सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिए कि उसकी वाणी आत्मा की सुरभि का अनुकरण करे। स्वर की कोमलता? वचनों की स्पष्टता? निश्चय्ा की सत्यता? प्रच्छन्न अर्थ से रहित विचारों को श्रोता के मन में स्पष्ट करने की क्षमता? निष्कपटता? भक्ति और प्रेम इन सब से परिपूर्ण संभाषण वक्ता के व्यक्तित्व के आत्मचरित्र का एक विशिष्ट और श्रेष्ठ गुण ही बन जाता है। इस प्रकार के मधुर संभाषण के गुण का स्वयं में विकास करने से अपने व्यक्तित्व के अन्य आयामों का भी स्वत विकास हो जाता है? जो अन्तकरण को अनुशासित करने के लिए आवश्यक होता है।भूतमात्र के प्रति दया दुख और कष्ट से पीड़ित प्राणियों के प्रति कृपा का भाव दया कहलाता है। इसके अतिरिक्त? एक साधक को समाज में रहते हुए यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि समाज के सभी लोग उन्हीं आदर्शों या जीवन मूल्यों का अनुकरण करें? जिनके प्रति स्वयं उसकी श्रद्धा है। लोगों की दृष्टियों में भेद होता है और इसलिए उसे अपने आसपास के लोगों में अपूर्णता और दोष दिखाई दे सकते हैं। परन्तु? उनको इन समस्त दोषों के अन्तरंग में स्थित आत्मा के असीम सौन्दर्य को देखते रहना चाहिए। आत्मदर्शन की यह क्षमता ही सभी साधुओं और सन्तों के मन में स्थित प्राणिमात्र के प्रति दया का रहस्य है। सब के प्रति मन में प्रेम होने पर ही उनके प्रति असीम सहानुभूति और स्नेह का भाव हृदय में उठ सकता है। आत्मा की इस सुन्दरता को यदि अत्यन्त दुखी और दुश्चरित्र व्यक्ति में भी हम नहीं देख सके? तो उनके प्रति हमारे हृदय में स्नेह और दया उत्पन्न नहीं हो सकती।अलोलुपता प्रलोभित और आकर्षित करने वाले विषयों की उपस्थिति में भी मन में विकार उत्पन्न नहीं होना अलोलुपता है।मार्दव (मृदुता) और लज्जा यहाँ लज्जा का अर्थ है? निषिद्ध और निन्द्य प्रकार के कर्म करने में लज्जा का अनुभव करना। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि निन्द्य कर्मों का त्याग करना तथा शुभ कर्मों में गर्व का न होना अर्थात् नम्रता? विनयशीलता का होना लज्जा शब्द का अभिप्रेत अर्थ है। वस्तुत जो व्यक्ति उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न होता है? उसमें स्वभाव की मृदुता और विनयशीलता स्वाभाविक रूप में आ जाती है? क्योंकि ये दोनों गुण मनुष्य की श्रेष्ठ संस्कृति के द्योतक हैं।अचापलम् मनुष्य के मन की चंचलता और स्वभाव की अस्थिरता उसकी शारीरिक चेष्टाओं में प्रकट होती है। सतत चंचलता? अकस्मात् कर्म का प्रारम्भ करना? अश्लील प्रकार की शारीरिक चेष्टाएं? व्यसनानन्द के अतिरेक से अंग प्रक्षेपण इत्यादि लक्षण केवल एक असंस्कृत व्यक्ति में देखे जाते हैं? जिसने न कभी स्वभाव की स्थिरता को और न कभी व्यक्तित्व को आदर्शपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया हो। ये लक्षण एक शिशु में देखे जाते हैं? और उस दशा में वे उसके सौन्दर्यवर्धक ही माने जाते हैं। परन्तु जैसेजैसे व्यक्ति का विकास होता जाता है? उसका आत्मसंयम ही उसका सौन्दर्य समझा जाता है? जो उसकी शारीरिक चेष्टाओं के द्वारा स्पष्ट होता है।श्री शंकराचार्य जी इसका अर्थ बताते हैं? प्रयोजन के अभाव में हाथ? पैर? वाणी आदि इन्द्रियों का व्यापार न होना अचापलम् कहलाता है। यह इस शब्द का व्यापक अर्थ है और इसका आशय यह भी है कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए उपयोगी कार्य में तत्परता और समस्त शारीरिक शक्तियों की मितव्ययिता होना चाहिए। अनावश्यक चेष्टाएं करना दुर्बल व्यक्तित्व का लक्षण है। ऐसे व्यक्ति कल्पनाओं में ही खोये रहते हैं और मानसिक तथा बौद्धिक स्तर पर अत्यन्त दुर्बल होते हैं। अत अचापलम् नामक गुण के सम्पादन से हम अपने व्यक्तित्व की अनेक प्रकार की सामान्य दुर्बलताओं का उपचार कर सकते हैं।और

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।16.2।।तथा --, अहिंसा -- किसी भी प्राणीको कष्ट न देना? सत्यअप्रियता और असत्यसे रहित यथार्थ वचन। अक्रोध -- दूसरोंके द्वारा गाली दी जाने या ताड़ना दी जानेपर उत्पन्न हुए क्रोधको शान्त कर लेना। त्याग -- संन्यास ( दान नहीं ) क्योंकि दान पहले कहा जा चुका है। शान्ति -- अन्तःकरणका संकल्परहित होना? अपैशुन -- अपिशुनता किसी दूसरेके सामने पराये छिद्रोंको प्रकट करना पिशुनता ( चुगली ) है? उसका न होना अपिशुनता है। भूतोंपर दया -- दुखी प्राणियोंपर कृपा करना? अलोलुपता -- विषयोंके साथ संयोग होनेपर भी इन्द्रियोंमें विकार न होना? मार्दवकोमलता अर्थात् अक्रूरता। ह्री -- लज्जा और अचपलता -- बिना प्रयोजन वाणी? हाथ? पैर आदिकी व्यर्थ क्रियाओंका न करना।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।16.2।।पैशुनं परोपद्रवनिमित्तदोषाणां राजादेः कथनम्।परोपद्रवहेतूनां दोषाणां पेशुनं वचः। राजादेस्तु मदाद्भीतेरदृष्टिर्दर्प उच्यते इत्यभिधानात्। लौल्यं रागःरागो लौल्यं तथा रक्तिः इत्यभिधानात्। अचापलं स्थैर्यम्।चपलश्चञ्चलोऽस्थिरः इत्यभिधानात्।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।16.2।।अहिंसा परपीडावर्जनम्।

सत्यं यथादृष्टार्थगोचरभूतहितवाक्यम्।

अक्रोधः परपीडाफलचित्तविकाररहितत्वम्।

त्यागः आत्महितप्रत्यनीकपरिग्रहविमोचनम्।

शान्तिः इन्द्रियाणां विषयप्रावण्यनिरोधसंशीलनम्।

अपैशुनं परानर्थकवाक्यनिवेदनाकरणम्।

दया भूतेषु सर्वेषु दुःखासहिष्णुत्वम्।

अलोलुप्त्वम्? अलोलुपत्वम्? अलोलुत्वम् इति वा पाठः। विषयेषु निःस्पृहत्वम् इत्यर्थः।

मार्दवम् अकाठिन्यम् साधुजनसंश्लेषार्हता इत्यर्थः।

ह्रीः अकार्यकरणे व्रीडा।

अचापलं स्पृहणीयविषयसन्निधौ अचपलत्वम्।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

16.2 See Coment under 16.5

English Translation by Shri Purohit Swami

16.2 harmlessness, truth, absence of wrath, renunciation, contentment, straightforwardness, compassion towards all, uncovetousness, courtesy, modesty, constancy,

English Translation By Swami Sivananda

16.2 Harmlessness, truth, absence of anger, renunciation, peacefulness, absence of crookedness, compassion towards beings, non-covetousness, gentleness, modesty, absence of fickleness.