श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।17.3।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।17.3।।हे भारत ! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा अन्तःकरणके अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है। इसलिये जो जैसी श्रद्धावाला है, वही उसका स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा -- स्थिति है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।17.3।। हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव, संस्कार) के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा ही उसका स्वरूप होता है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।17.3।।प्राग्भवीयान्तःकरणगतवासनारूपनिमित्तकारणवैचित्र्येण श्रद्धावैचित्र्यमुक्त्वा तदुपादानकारणान्तःकरणवैचित्र्येणापि तत्त्रैविध्यमाह -- सत्त्वानुरूपेति। सत्त्वं प्रकाशशीलत्वात्सत्त्वप्रधानत्रिगुणपञ्चीकृतपञ्चमहाभूतारब्धमन्तःकरणं तच्च क्वचिदुद्रिक्तसत्त्वमेव यथा देवानां क्वचिद्रजसाभिभूतसत्त्वं? यथा यक्षादीनां क्वचित्तमसाभिभूतसत्त्वं यथा प्रेतभूतादीनाम्। मनुष्याणां तु प्रायेण व्यामिश्रमेव तच्च शास्त्रीयविवेकज्ञानेनोद्भूतसत्त्वं रजस्तमसी अभिभूय क्रियते। शास्त्रीयविवेकविज्ञानशून्यस्य तु सर्वस्य प्राणिजातस्य सत्त्वानुरूपा श्रद्धा सत्त्ववैचित्र्याद्विचित्रा भवति सत्त्वप्रधानेऽन्तःकरणे सात्त्विकी? रजःप्रधाने,तस्मिन् राजसी? तमःप्रधाने तु तस्मिंस्तामसीति। हे भारत महाकुलप्रसूत ज्ञाननिरतेति वा शुद्धसात्त्विकत्वं द्योतयति। यत्त्वया पृष्टं तेषां निष्ठा केति तत्रोत्तरं शृणु। अयं शास्त्रीयज्ञानशून्यः कर्माधिकृतः पुरुषः त्रिगुणान्तःकरणसंपिण्डितः श्रद्धामयः प्राचुर्येणास्मिन् श्रद्धा प्रस्तुतेति तत्प्रस्तुतवचने मयट् अन्नमयो यज्ञ इतिवत्। अतो यो यच्छ्रद्धो या सात्त्विकी राजसी तामसी वा श्रद्धा यस्य स एव श्रद्धानुरूप एव सः सात्त्विको राजसस्तामसो वा श्रद्धयैव निष्ठा व्याख्यातेत्यभिप्रायः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।17.3।। --,सत्त्वानुरूपा विशिष्टसंस्कारोपेतान्तःकरणानुरूपा सर्वस्य प्राणिजातस्य श्रद्धा भवति भारत। यदि एवं ततः किं स्यादिति? उच्यते -- श्रद्धामयः अयं श्रद्धाप्रायः पुरुषः संसारी जीवः। कथम् यः यच्छ्रद्धः या श्रद्धा यस्य जीवस्य सः यच्छ्रद्धः स एव तच्छ्रद्धानुरूप एव सः जीवः।।ततश्च कार्येण लिङ्गेन देवादिपूजया सत्त्वादिनिष्ठा अनुमेया इत्याह --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।17.3।। सत्त्वानुरूप श्रद्धा हम जगत् में देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तित्व की पोषक श्रद्धा भिन्नभिन्न प्रकार की होती है। जितनी अधिक भिन्नता इस श्रद्धा में देखी जाती है? उसके कारण को जानने की हमारी जिज्ञासा भी उतनी ही बढ़ती जाती है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव अर्थात् संस्कारों के अनुरूप होती है। निश्चितरूप से यह कह पाना कठिन है कि श्रद्धा हमारे स्वभाव को निर्धारित करती है अथवा हमारा स्वभाव श्रद्धा का निर्धारणकर्ता है। इन दोनों में अन्योन्याश्रय है।तथापि? गीता में स्वभाव को ही श्रद्धा का निर्धारक घोषित किया गया है। यद्यपि? जीवन में अनेक अवसरों पर दुखदायक अनुभवों अथवा अन्य प्रबल कारणों से मनुष्य की एक प्रकार की श्रद्धा खंडित होकर नवीन श्रद्धा जन्म लेती है और उस स्थिति में उसका स्वभाव उस श्रद्धा का अनुकरण भी करता है। परन्तु? सामान्य दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा का गुण और वर्ण उसके स्वभाव के अनुरूप ही होता है। श्रद्धा का मूल या सारतत्त्व मनुष्य की उस गूढ़ शक्ति में निहित होता है? जिसके द्वारा वह अपने चयन किये हुए लक्ष्य की प्राप्ति का निश्चय दृढ़ बनाये रखता है।मनुष्य की सार्मथ्य ही लक्ष्य प्राप्ति में उसके विश्वास को निश्चित करती है। तत्पश्चात् यह विश्वास उसकी सार्मथ्य को द्विगुणित कर उस मनुष्य की योजनाओं को कार्यान्वित करने में सहायक होता है। इस प्रकार क्षमता और श्रद्धा परस्पर पूरक और सहायक होते हैं मनुष्य के स्वभाव पर गुणों के प्रभाव का वर्णन पहले किया जा चुका है। पूर्वकाल में अर्जित किसी गुणविशेष के आधिक्य का प्रभाव मनुष्य में उसकी बाल्यावस्था से ही दिखाई देता है। यहाँ प्रयुक्त सत्त्वानुरूपा शब्द के द्वारा इसी तथ्य को इंगित किया गया है।मनुष्य श्रद्धामय है प्रत्येक भक्त श्रद्धापूर्वक जिस देवता की उपासना या आराधना करता है वह अपनी उस श्रद्धा के फलस्वरूप अपने उपास्य को प्राप्त होता है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य अपनी श्रद्धा के अनुरूप ही होता है। मनुष्य के कर्म और उपलब्धियों में श्रद्धा के महत्व को सभी विचारकों ने स्वीकार किया है। गीता की ही भाषा में इस तथ्य को पूर्व के अध्याय में विस्तार से बताया गया है।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।17.3।।वह श्रद्धा इस तरह तीन प्रकारकी होती है --, हे भारत सभी प्राणियोंकी श्रद्धा ( उनके ) भिन्नभिन्न संस्कारोंसे युक्त अन्तःकरणके अनुरूप होती है। यदि ऐसा है तो उससे क्या होगा इसपर कहते हैं -- यह पुरुष अर्थात् संसारी जीव श्रद्धामय है क्योंकि जो जिस श्रद्धावाला है अर्थात् जिस जीवकी जैसी श्रद्धा है? वह स्वयं भी वही है? अर्थात् उस श्रद्धाके अनुरूप ही है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।17.3।।सत्त्वानुरूपा चित्तानुरूपा। यो यच्छ्रद्धः स एव सः? सात्त्विकश्रद्धः सात्विक इत्यादि।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।17.3।।सत्त्वम् अन्तःकरणम्? सर्वस्य पुरुषस्य अन्तःकरणानुरूपा श्रद्धा भवति अन्तःकरणं यादृशगुणयुक्तम्? तद्विषया श्रद्धा जायते इत्यर्थः। सत्त्वशब्दः पूर्वोक्तानां देहेन्द्रियादीनां प्रदर्शनार्थः।श्रद्धामयः अयं पुरुषः? श्रद्धामयः श्रद्धापरिणामः यो यच्छ्रद्धः? यः पुरुषो यादृश्या श्रद्धया युक्तः? स एव सः स तादृशश्रद्धापरिणामः। पुण्यकर्मविषये श्रद्धायुक्तः चेत् पुण्यकर्मफलसंयुक्तः भवति इति श्रद्धाप्रधानः फलसंयोग इति उक्तं भवति इति।तद् एव विवृणोति --

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

17.3 Sattva etc. The word sattva in 'corresponding to one's own sattva' is a synonym of svabhava 'primary nature'. This person i.e., Soul, is necessarily connected with a faith that dominates all [his] other activities. [Hence], he is to be deemed just to be mainly consisting of that.

English Translation by Shri Purohit Swami

17.3 The faith of every man conforms to his nature. By nature he is full of faith. He is in fact what his faith makes him.

English Translation By Swami Sivananda

17.3 The faith of each is in accordance with his nature, O Arjuna. The man consists of his faith; as a man's faith is, so is he.