श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।18.78।।जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।18.78।। जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।18.78।।एवंच सति स्वपुत्रे विजयादिसंभावनां परित्यजेत्याह -- यत्रेति। यत्र यस्मिन् युधिष्ठिरपक्षे योगेश्वरः सर्वयोगसिद्धीनामीश्वरः सर्वज्ञः सर्वशक्तिर्भगवान्कृष्णो भक्तदुःखकर्षणस्तिष्ठति नारायणो यत्र पार्थो धनुर्धरो यत्र गाण्डीवधन्वा तिष्ठत्यर्जुनो नरस्तत्र नरनारायणाधिष्ठिते तस्मिन् युधिष्ठिरपक्षे श्री राजलक्ष्मीर्विजयः शत्रुपराजयनिमित्त उत्कर्षो भूतिरुत्तरोत्तरं राजलक्ष्म्या विवृद्धिर्ध्रुवाऽवश्यंभाविनीति सर्वत्रान्वयः। नीतिर्नयः एवं मम मतिर्निश्चयस्तस्माद्वृथा पुत्रविजयाशां त्यक्त्वा भगवदनुगृहीतैर्लक्ष्मीविजयादिभाग्भिः पाण्डवैः सह सन्धिरेव विधीयतामित्यभिप्रायः।वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।

पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।

काण्डत्रयात्मकं शास्त्रं गीताख्यं येन निर्मितम्। आदिमध्यान्तषट्केषु तस्मै भगवते नमः।।

श्रीगोविन्दमुखारविन्दमधुना मिष्टं महाभारते गीताख्यं परमं रहस्यमृषिणा व्यासेन विख्यापितम्।

व्याख्यातं भगवत्पदैः प्रतिपदं श्रीशङ्कराख्यैः पुनर्विस्पष्टं मधुसूदनेन मुनिना स्वज्ञानशुद्ध्यै कृतम्।।

इह योऽस्ति विमोहयन्मनः परमानन्दघनः सनातनः। गुणदोषभृदेष एव नस्तृणतुल्यो यदयं स्वयं जनः।।

श्रीरामविश्वेश्वरमाधवानां प्रसादमासाद्य मया गुरूणाम्। व्याख्यानमेतद्विहितं सुबोधं समर्पितं तच्चरणाम्बुजेषु।। ,

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।18.78।। --,यत्र यस्मिन् पक्षे योगेश्वरः सर्वयोगानाम् ईश्वरः? तत्प्रभवत्वात् सर्वयोगबीजस्य? कृष्णः? यत्र पार्थः यस्मिन् पक्षे धनुर्धरः गाण्डीवधन्वा? तत्र श्रीः तस्मिन् पाण्डवानां पक्षे श्रीः विजयः? तत्रैव भूतिः श्रियो विशेषः विस्तारः भूतिः? ध्रुवा अव्यभिचारिणी नीतिः नयः? इत्येवं मतिः मम इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये

अष्टादशोऽध्यायः।।।।श्रीमद्भगवद्गीताशास्त्रं संपूर्णम्।।,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।18.78।। सात सौ एक श्लोकों वाली श्रीमद्भगवद्गीता का यह अन्तिम श्लोक है। अधिकांश व्याख्याकारों ने इस श्लोक पर पर्याप्त विचार नहीं किया है और इसकी उपयुक्त व्याख्या भी नहीं की है। प्रथम दृष्टि में इसका शाब्दिक अर्थ किसी भी बुद्धिमान पुरुष को प्राय निष्प्राण और शुष्क प्रतीत होगा। आखिर इस श्लोक में संजय केवल अपने विश्वास और व्यक्तिगत मत को ही तो प्रदर्शित कर रहा है? जिसे गीता के पाठक स्वीकार करे ही? ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। संजय का कथन यह है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन हैं? वहाँ समृद्धि (श्री)? विजय? विस्तार और अचल नीति है? यह मेरा मत है।यदि संजय का उद्देश्य अपने व्यक्तिगत मत को हम पर थोपने का होता? और इस श्लोक में किसी विशेष सत्य का प्रतिपादन नहीं किया होता? तो? सार्वभौमिक शास्त्र के रूप में गीता को प्राप्त मान्यता समाप्त हो गयी होती।पूर्ण सिद्ध महर्षि व्यास इस प्रकार की त्रुटि कभी नहीं कर सकते थे? इस श्लोक का गम्भीर आशय है? जिसमें अकाट्य सत्य का प्रतिपादन किया गया है।योगेश्वर श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता में? श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप आत्मा के ही प्रतीक हैं। यह आत्मतत्त्व ही वह अधिष्ठान है? जिस पर विश्व की घटनाओं का खेल हो रहा है। गीता में उपदिष्ट विविध प्रकार की योग विधियों में किसी भी विधि से अपने हृदय में उपस्थित उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।धनुर्धारी पार्थ इस ग्रन्थ में? पृथापुत्र अर्जुन एक भ्रमित? परिच्छिन्न? असंख्य दोषों से युक्त जीव का प्रतीक है। जब वह अपने प्रयत्न और उपलब्धि के साधनों (धनुष बाण) का परित्याग करके शक्तिहीन आलस्य और प्रमाद में बैठ जाता है? तो निसन्देह? वह किसी प्रकार की सफलता या समृद्धि की आशा नहीं कर सकता। परन्तु जब वह धनुष् धारण करके अपने कार्य में तत्पर हो जाता है? तब हम उसमें धनुर्धारी पार्थ के दर्शन करते हैं? जो सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए तत्पर है।इस प्रकार? योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है? तो कोई भी शक्ति उसे सफलता से वंचित नहीं रख सकती। संक्षेप में? गीता का यह मत है कि आध्यात्मिकता को अपने व्यावहारिक जीवन में जिया जा सकता है? और अध्यात्म का वास्तविक ज्ञान जीवन संघर्ष में रत मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पदा है।आज समाज में सर्वत्र एक दुर्व्यवस्था और अशांति फैली हुई दृष्टिगोचर हो रही है। वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी? आज का मानव? जीवन की आक्रामक घटनाओं के समक्ष दीनहीन और असहाय हो गया है। इसका एकमात्र कारण यह है कि उसके हृदय का योगेश्वर उपेक्षित रहा है। मनुष्य की उन्नति का मार्ग है? लौकिक सार्मथ्य और आध्यात्मिक ज्ञान का सुखद मिलन। यही गीता में उपदिष्ट मार्ग है। मनुष्य के सुखद जीवन के विषय में श्री वेद व्यास जी की यही कल्पना है। केवल भौतिक उन्नति से जीवन में गति और सम्पत्ति तो आ सकती है? परन्तु मन में शांति नहीं। आन्तरिक शांति रहित समृद्धि एक निर्मम और घोर अनर्थ हैपरन्तु यह श्लोक दूसरे अतिरेक को भी स्वीकार नहीं करता है। कुरुक्षेत्र के समरांगण में युद्ध के लिए तत्पर धनुर्धारी अर्जुन के बिना योगेश्वर श्रीकृष्ण कुछ नहीं कर सकते थे। केवल आध्यात्मिकता की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति से हमारा भौतिक जीवन गतिशील और शक्तिशाली नहीं हो सकता। सम्पूर्ण गीता में व्याप्त समाञ्जस्य के इस सिद्धांत को मैंने यथाशक्ति एवं यथासंभव सर्वत्र स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। मनुष्य के चिरस्थायी सुख का यही एक मार्ग है।संजय इसी मत की पुष्टि करते हुए कहता है कि जिस समाज या राष्ट्र के लोग संगठित होकर कार्य करने? विपत्तियों को सहने और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं (धनुर्धारी अर्जुन)? और इसी के साथ ये लोग अपने हृदय में स्थित आत्मतत्त्व के प्रति जागरूक हैं (योगेश्वर श्रीकृष्ण)? तो ऐसे राष्ट्र में समृद्धि? विजय? भूति (विस्तार) और दृढ़ नीति होना स्वाभाविक और निश्चित है।समृद्धि? विजय? विस्तार और दृढ़ नीति का उल्लिखित क्रम भी तर्कसिद्ध है। विश्व इतिहास के समस्त विद्यार्थियों की इसकी युक्तियुक्तता स्पष्ट दिखाई देती है। अर्वाचीन काल और राजनीति के सन्दर्भ में? हम यह जानते हैं कि किसी एक विवेकपूर्ण दृढ़ राजनीति के अभाव में कोई भी सरकार राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा सकती। दृढ़ नीति के द्वारा ही राष्ट्र की प्रसुप्त क्षमताओं का विस्तार सम्भव होता है? और केवल तभी परस्पर सहयोग और बन्धुत्व की भावना से किसी प्रकार की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है। दृढ़ नीति और क्षमताओं के विस्तार के साथ विजय कोई दूर नहीं रह जाती। और इन तीनों की उपस्थिति में राष्ट्र का समृद्धशाली होना निश्चित ही है। आधुनिक राजनीति के सिद्धांतों में भी इससे अधिक स्वस्थ सिद्धांत हमें देखने को नहीं मिलता है।अत यह स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल संजय का ही व्यक्तिगत मत नहीं है? वरन् सभी आत्मसंयमी तत्त्वचिन्तकों का भी यह दृढ़ निश्चय है।गीता के अनेक व्याख्याकार? हमारा ध्यान गीता के प्रारम्भिक श्लोक के प्रथम शब्द धर्म तथा इस अन्तिम श्लोक के अन्तिम शब्द मम की ओर आकर्षित करते हैं। इन दो शब्दों के मध्य सात सौ श्लोकों के सनातन सौन्दर्य की यह माला धारण की गई है। अत इन व्याख्याकारों का यह मत है कि गीता का प्रतिपाद्य विषय है मम धर्म अर्थात् मेरा धर्म। मम धर्म से तात्पर्य मनुष्य के तात्विक स्वरूप और उसके लौकिक कर्तव्यों से है। जब इन दोनों का गरिमामय समन्वय किसी एक पुरुष में हो जाता है? तब उसका जीवन आदर्श बन जाता है। इसलिए? गीता के अध्येताओं को चाहिए कि उनका जीवन आत्मज्ञान? प्रेमपूर्ण जनसेवा एवं त्याग के समन्वय से युक्त हो। यही आदर्श जीवन है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्याय।।इस प्रकार? श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय समाप्त होता है।इस अन्तिम अध्याय का शार्षक मोक्षसंन्यासयोग है। यह नाम हमें वेदान्त के अस्पर्शयोग का स्मरण कराता है? जिसकी परिभाषा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में दी है। जीवन के असत् मूल्यों का परित्याग करने का अर्थ ही अपने स्वत सिद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करना है। हममें स्थित पशु का त्याग (संन्यास) करना ही? हममें स्थित दिव्यतत्त्व का मोक्ष है।

मेरे सद्गुरु स्वामी तपोवनजी महाराज को समर्पित।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।18.78।।बहुत कहनेसे क्या

समस्त योग और उनके बीज उन्हींसे उत्पन्न हुए हैं? अतः भगवान् योगेश्वर हैं। जिस पक्षमें ( वे ) सब योगोंके ईश्वर श्रीकृष्ण हैं तथा जिस पक्षमें गाण्डीव धनुर्धारी पृथापुत्र अर्जुन है? उस पाण्डवोंके पक्षमें ही श्री? उसीमें विजय? उसीमें विभूति अर्थात् लक्ष्मीका विशेष विस्तार और वहीं अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।18.78।। पूर्णादोषमहाविष्णोर्गीतामाश्रित्य लेशतः।

निरूपणं कृतं तेन प्रीयतां मे सदा विभुः।सङ्कराख्यस्य दुयोर्नेर्निस्सृतेन रजस्वला। गीतानारी समीरेण शोधिता हंसरूपिणा।।1।।

मायिनः शलभायन्ते भास्करस्तस्करायते। यस्य तस्मिन्प्राणनाथे यतीन्द्रे भक्तिरस्तु मे।।2।।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।18.78।।यत्र योगेश्वरः कृत्स्नस्य उच्चावचरूपेण अवस्थितस्य चेतनस्य अचेतनस्य च वस्तुनो ये ये स्वभावयोगाः तेषां सर्वेषां योगानाम् ईश्वरः स्वसंकल्पायत्तस्वेतरसमस्तवस्तुस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिभेदः कृष्णो वसुदेवसूनुः यत्रपार्थो धनुर्धरः तत्पितृष्वसुः पुत्रः तत्पदद्वन्द्वैकाश्रयः तत्र श्रीः विजयो भूतिः नीतिःध्रुवा निश्चला इति मतिः मम इति। ,

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

18.74-78 Ityaham etc. upto matir mama While concluding the [Krsna-Arjuna] dialogue with Sanjaya's speech, the [sage Vyasa] teaches this : What leads to the Absolute Brahman is nothing but the recollection of the purport of the dialoguea recollection that is led finally to the status of the highly vivid, direct cognition admitting no differentiation [between its subject and object], resulting from the continuity helped by the series of incessant contemplations [on the purport of the dialogue] according to the method of firmly fixing. Thus, only through the recollection of the dialogue of the Bhagavat and Arjuna, the Reality could be reached and due to that come fortunes, voctories and prosperity.

English Translation by Shri Purohit Swami

18.78 Wherever is the Lord Shri Krishna, the Prince of Wisdom, and wherever is Arjuna, the Great Archer, I am more than convinced that good fortune, victory, happiness and righteousness will follow"

English Translation By Swami Sivananda

18.78 Wherever is Krishna, the Lord of Yoga; wherever is Arjuna, the wielder of the bow; there are prosperity, victory, happiness and firm policy; such is my conviction.