श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.19।। जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.19।। जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं,  क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।2.19।।नन्वेयंअशोच्यानन्वशोचस्त्वम् इत्यादिना भीष्मादिबन्धुविच्छेदनिबन्धने शोकेऽपनीतेऽपि तद्वधकर्तृत्वनिबन्धनस्य पापस्य नास्ति प्रतीकारः। नहि यत्र शोको नास्ति तत्र पापं नास्तीति नियमः द्वेष्यब्राह्मणवधे शोकाविषये पापाभावप्रसङ्गात्। अतोऽहं कर्ता त्वं प्रेरक इति द्वयोरपि हिंसानिमित्तपातकापत्तेरयुक्तमिदं वचनंतस्माद्युध्यस्व भारत इत्याशङ्क्य

काठकपठितयर्चा परिहरति भगवान् एनं प्रकृतं देहिनमदृश्यत्वादिगुणकं यो हन्तारं हननक्रियायाः कर्तारं वेत्ति अहमस्य हन्तेति विजानाति यश्चान्य एनं मन्यते हतं हननक्रियायाः कर्मभूतं देहहननेन हतोऽहमिति विजानाति तावुभौ

देहाभिमानित्वादेनमविकारिणमकारकस्वभावमात्मानं न विजानीतो न विवेकेन जानीतः शास्त्रात्। कस्मात्। यस्मान्नायं हन्ति न हन्यते। कर्ता कर्म च न भवतीत्यर्थः। अत्र य एनं वेत्ति हन्तारं हतं चेत्येतावति वक्तव्ये पदानामावृत्तिर्वाक्यालंकारार्था। अथवा य एनं वेत्ति हन्तारं तार्किकादिरात्मनः कर्तृत्वाभ्युपगमात् तथा यश्चैनं मन्यते हतं चार्वाकादिरात्मनो विनाशित्वाभ्युपगमात् तावुभौ न विजानीत इति योज्यम्। वादिभेदख्यापनाय पृथगुपन्यासः। अतिशूरातिकातरविषयतया वा पृथगुपदेशः।हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम् इति पूर्वार्धे श्रौतः पाठः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.19।।

 य एनं  प्रकृतं देहिनं  वेत्ति  विजानाति  हन्तारं  हननक्रियायाः कर्तारं  यश्च एनम्  अन्यो  मन्यते हतं  देहहननेन हतः अहम् इति हननक्रियायाः कर्मभूतम्  तौ उभौ न विजानीतः  न ज्ञातवन्तौ अविवेकेन आत्मानम्। हन्ता अहम् हतः अस्मि अहम् इति देहहननेन आत्मानमहंप्रत्ययविषयं यौ विजानीतः तौ आत्मस्वरूपानभिज्ञौ इत्यर्थः। यस्मात् न  अयम्  आत्मा  हन्ति  न हननक्रियायाः कर्ता भवति    च  हन्यते  न च कर्म भवतीत्यर्थः अविक्रियत्वात्।।
कथमविक्रय आत्मेति द्वितीयो मन्त्रः

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.19।। आत्मा नित्य अविकारी होने से न मारी जाती है और न ही वह किसी को मारती है । शरीर के नाश होने से जो आत्मा को मरी मानने हैं या जो उसको मारने वाली समझते हैं वे दोनों ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते और व्यर्थ का विवाद करते हैं। जो मरता है वह शरीर है और मैं मारने वाला हूँ यह भाव अहंकारी जीव का है। शरीर और अहंकार को प्रकाशित करने वाली चैतन्य आत्मा दोनों से भिन्न है। संक्षेप में इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा न किसी क्रिया का कर्त्ता है और न किसी क्रिया का विषय अर्थात् उस पर किसी प्रकार की क्रिया नहीं की जा सकती।
आत्मा किस प्रकार अविकारी है इसका उत्तर अगले श्लोक में दिया गया है।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.19।।जो तू मानता है कि मेरेद्वारा युद्धमें भीष्मादि मारे जायँगे मैं ही उनका मारनेवाला हूँ यह तेरी बुद्धि ( भावना ) सर्वथा मिथ्या है। कैसे

जिसका वर्णन ऊपरसे आ रहा है इस आत्माको जो मारनेवाला समझता है अर्थात् हननक्रियाका कर्ता

मानता है और जो दूसरा ( कोई ) इस आत्माको देहके नाशसे मैं नष्ट हो गया ऐसे नष्ट हुआ मानता है अर्थात् हननक्रियाका कर्म मानता है।
वे दोनों ही अहंप्रत्ययके विषयभूत आत्माको अविवेकके कारण नहीं जानते।
अभिप्राय यह कि जो शरीरके मरनेसे आत्माको मैं मारनेवाला हूँ मैं मारा गया हूँ इस प्रकार जानते हैं वे दोनों ही आत्मस्वरूपसे अनभिज्ञ हैं।
क्योंकि यह आत्मा विकाररहित होनेके कारण न तो किसीको मारता है और न मारा जाता है अर्थात् न तो हननक्रियाका कर्ता होता है और न कर्म होता है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।2.19।।व्यवहारस्तु भ्रान्त इत्याह य एनमिति। कुतः उक्तहेतुभ्यो नायं हन्ति न हन्यते। न हि प्रतिबिम्बस्य क्रिया। स हि बिम्बक्रिययैव क्रियावान्। ध्यायतीव बृ.उ.4।3।7 इति श्रुतेश्च।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।2.19।। एनम्  उक्तस्वभावम् आत्मानं प्रति हन्तारं  हननहेतुकम् अपि  यो  मन्यते  यः च एनं  केन अपि हेतुना  हतं मन्यते उभौ तौ न विजानीतः।  उक्तैः हेतुभिः अस्य नित्यत्वाद् एव  अयं  हननहेतुः न भवति अत एव च अयम् आत्मा  न हन्यते।  हन्तिधातुः अपि आत्मकर्मकःशरीरवियोगकरणवाची।न हिंस्यात् सर्वा भूतानिब्राह्मणो न हन्तव्यः (क0 स्मृ0 8।2) इत्यादीनि अपि शास्त्राणि अविहितशरीरवियोगकरणविषयाणि।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

2.19 Ya enam etc. Whosoever veiws This i.e., the Self and the body, to be the slayer and the slain, ignorance is in him. That is why he is in bondage. The same [point the Lord] clarifies -

English Translation by Shri Purohit Swami

2.19 He who thinks that the Spirit kills, and he who thinks of It as killed, are both ignorant. The Spirit kills not, nor is It killed.

English Translation By Swami Sivananda

2.19 He who takes the Self to be the slayer and he who thinks It is slain, neither of them ï1knowsï1. It slays not, nor is It slain.