श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.24।। यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.24।। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती),  अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती),  अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है;  यह नित्य,  सर्वगत,  स्थाणु (स्थिर),  अचल और सनातन है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।2.24।।शस्त्रादीनां तन्नाशकत्वासामर्थ्ये तस्य तज्जनितनाशानर्हत्वे हेतुमाह यतोऽच्छेद्योऽयमतो नैनंच्छिन्दन्ति शस्त्राणि अदाह्योऽयं यतोऽतो नैनं दहति पावकः यतोऽक्लेद्योऽयमतो नैनं क्लेदयन्त्यापः यतोऽशोष्योऽयमतो नैनं शोषयति मारुत इति क्रमेण योजनीयम्। एवकारः प्रत्येकं संबध्यमानोऽच्छेद्यत्वाद्यवधारणार्थः। चः समुच्चये हेतौ वा। छेदाद्यनर्हत्वे

हेतुमाहोत्तरार्धेन। नित्योऽयं पूर्वोपरकोटिरहितोऽतोऽनुत्पाद्यः। असर्वगतत्वे ह्यनित्यत्वं स्यात्यावद्विकारं तु विभागः इति

न्यायात्पराभ्युपगतपरमाण्वादीनामनभ्युपगमात्। अयं तु सर्वगतो विभुरतो नित्य एव। एतेन प्राप्यत्वं पराकृतम्। यदि चायं विकारी स्यात्तदा सर्वगतो न स्यात् अयं तु स्थाणुरविकारी अतः सर्वगत एव। एतेन विकार्यत्वमपाकृतम्। यदि वायं चलः क्रियावान्स्यात्तदा विकारी स्याद्धटादिवत् अयं त्वचलोऽतो न विकारी। एतेन संस्कार्यत्वं निराकृतम्।

पूर्वावस्थापरित्यागेनावस्थान्तरापत्तिर्विक्रिया। अवस्थैक्येऽपि चलनमात्रं क्रियति विशेषः। यस्मादेव तस्मात् सनातनोऽयं

सर्वदैकरूपः। न कस्या अपि क्रियायाः कर्मेत्यर्थः। उत्पत्त्याप्तिविकृतिसंस्कृत्यन्यतरक्रियाफलयोगे हि कर्मत्वं स्यात्। अयं तु नित्यत्वान्नोत्पाद्यः अनित्यस्यैव घटादेरुत्पाद्यत्वात्। सर्वगतत्वान्न प्राप्यः परिच्छिन्नस्यैव घटादेः प्राप्यत्वात्। स्थाणुत्वादविकार्यः विक्रियावतो घृतादेरेव विकार्यत्वात्। अचलत्वादसंस्कार्यः सक्रियस्यैव दर्पणादेः संस्कार्यत्वात्। तथाच श्रुतयःआकाशवत्सर्वगतश्च नित्यःवृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकःनिष्कलं निष्क्रियं शान्तम् इत्यादयः।यः पृथिव्यां

तिष्ठन्पृथिव्या अन्तरो योऽप्सु तिष्ठन्नद्भ्योऽन्तरो यस्तेजसि तिष्ठंस्तेजसोऽन्तरो यो वायौ तिष्ठन्वायोरन्तरः इत्याद्या च श्रुतिः सर्वगतस्य सर्वान्तर्यामितया तदविषयत्वं दर्शयति। यो हि शस्त्रादौ न तिष्ठति तं शस्त्रादयश्छिन्दन्ति अयंतु शस्त्रादीनां

सत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन तत्प्रेरकस्तदन्तर्यामी। अतः कथमेनं शस्त्रादीनि स्वव्यापारविषयीकुर्युरित्यभिप्रायः। अत्रयेन सूर्यस्तदपि तेजसेद्धः इत्यादिश्रुतयोऽनुसन्धेयाः। सप्तमाध्याये च प्रकटीकरिष्यति श्रीभगवानिति दिक्।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.24।।

यस्मात् अन्योन्यनाशहेतुभूतानि एनमात्मानं नाशयितुं नोत्सहन्ते अस्यादीनि तस्मात् नित्यः। नित्यत्वात् सर्वगतः। सर्वगतत्वात् स्थाणुः इव स्थिर इत्येतत्। स्थिरत्वात् अचलः अयम् आत्मा। अतः सनातनः चिरंतनः न कारणात्कुतश्चित् निष्पन्नः अभिनव इत्यर्थः।।
नैतेषां श्लोकानां पौनरुक्त्यं चोदनीयम् यतः एकेनैव श्लोकेन आत्मनः नित्यत्वमविक्रियत्वं चोक्तम् न जायते म्रियते वा इत्यादिना। तत्र यदेव आत्मविषयं किञ्चिदुच्यते तत् एतस्मात् श्लोकार्थात् न अतिरिच्यते किञ्चिच्छब्दतः पुनरुक्तम् किञ्चिदर्थतः इति। दुबोर्धत्वात् आत्मवस्तुनः पुनः पुनः प्रसङ्गमापाद्य शब्दान्तरेण तदेव वस्तु निरूपयति भगवान् वासुदेवः कथं नु नाम संसारिणामसंसारित्वबुद्धिगोचरतामापन्नं सत् अव्यक्तं तत्त्वं संसारनिवृत्तये स्यात् इति।।
किञ्च

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.24।। यह तो स्पष्ट ही है कि जिस वस्तु का नाश प्रकृति की विनाशकारी शक्तियाँ अथवा मानव निर्मित साधनों एवं शस्त्रास्त्रों के द्वारा संभव नहीं है उसे नित्य होना चाहिये।
इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में आत्मा के अनेक विशेषण बताये गये हैं जो शीघ्रतावश चाहें जहां से उठाकर निष्प्रयोजन ही प्रयोग में नहीं लाये गये हैं। विचारों की एक शृंखला के रूप में प्रत्येक शब्द को चुनकर प्रयोग किया गया है। प्रथम पंक्ति में वर्णित जो अविनाशी तत्व हैं उसको नित्य होना चाहिये। जो नित्य वस्तु है वह निश्चित ही सर्वगत भी होगी।
सर्वगत इस छोटे से शब्द का अर्थ व्यापक और तात्पर्य गम्भीर है। कोई भी वस्तु ऐसी शेष नहीं रह सकती जो सर्वगत तत्त्व के द्वारा व्याप्त न हो। नित्य आत्मा सर्वगत है तो उसका कोई आकार विशेष भी नहीं हो सकता क्योंकि आकार केवल परिच्छिन्न वस्तु का होता है जिसकी सीमा के बाहर उससे भिन्न अन्य कोई वस्तु रहती है। जैसे हाथ पैर इत्यादि अवयवों का आकार होता है क्योंकि इनके बाहर आसपास आकाश तत्त्व है। अत अपरिच्छिन्न सर्वगत आत्मा का कोई आकार नहीं है क्योंकि उसको परिच्छिन्न करने वाली कोई अन्य वस्तु है ही नहीं।
इस प्रकार नित्य सर्वगत वस्तु का स्थिर और अचल होना स्वाभाविक है। उसमें चलनादि क्रिया संभव नहीं। गति केवल उस वस्तु के लिये है जो किसी काल और देश विशेष में रहती हो तब उसका स्थानान्तरण किया जा सकता है। आत्मा का किसी काल अथवा देश में अभाव नहीं है तो उसमें गति होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं अपने स्वयं में ही घूम फिर नहीं सकता।
यहाँ स्थिर और अचल दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग व्यर्थ प्रतीत हो रहा है क्योंकि वे कुछ समानार्थी हैं। परन्तु स्थिर शब्द से अभिप्राय नीचे मूल की स्थिरता से है जैसे पेड़ एक जगह स्थिर होते हैं परन्तु उनकी वृद्धि ऊपर की ओर होती है। यहाँ अचल रहकर ऊर्ध्व गति का भी निषेध किया गया है। अनन्तस्वरूप आत्मा स्थिर और अचल है अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार की चलन क्रिया नहीं है।
प्राचीन पुरातन वस्तु को सनातन कहते हैं। इस सनातन शब्द के दो अर्थ हैं एक वाच्यार्थ (शाब्दिक) और दूसरा है लक्ष्यार्थ। उसका सरल वाच्यार्थ यह है कि आत्मा कोई नई बनी वस्तु नहीं है वह प्राचीन है। लक्ष्यार्थ के अनुसार इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा काल और देश से मर्यादित परिच्छिन्न नहीं है। किसी भी देश में किसी भी काल में कोई भी व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार से पूर्णत्व प्राप्त करता है तो वह साक्षात्कार एक ही होगा भिन्नभिन्न नहीं।
आगे भगवान कहते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.24।।ऐसा होनेके कारण

( यह आत्मा न कटनेवाला न जलनेवाला न गलनेवाला और न सूखनेवाला है )। आपसमें एक दूसरेका नाश कर देनेवाले पञ्चभूत इस आत्माका नाश करनेके लिये समर्थ नहीं है। इसलिये यह नित्य है।
नित्य होनेसे सर्वगत है। सर्वव्यापी होनेसे स्थाणु है अर्थात् स्थाणु ( ठूँठ ) की भाँति स्थिर है। स्थिर होनेसे यह आत्मा अचल है और इसीलिये सनातन है अर्थात् किसी कारणसे नया उत्पन्न नहीं हुआ है। पुराना है।
इन श्लोकोंमें पुनरुक्तिके दोषका आरोप नहीं करना चाहिये क्योकि न जायते म्रियते वा इस एक श्लोकके द्वारा ही आत्माकी नित्यता और निर्विकारता तो कही गयी फिर आत्माके विषयमें जो भी कुछ कहा जाय वह इस श्लोकके अर्थसे अतिरिक्त नहीं है। कोई शब्दसे पुनरुक्त है और कोई अर्थसे ( पुनरुक्त है )।
परंतु आत्मतत्त्व बड़ा दुर्बोध है सहज ही समझमें आनेवाला नहीं है इसलिये बारंबार प्रसंग उपस्थित करके दूसरेदूसरे शब्दोंसे भगवान् वासुदेव उसी तत्त्वका निरूपण करते हैं यह सोचकर कि किसी भी तरह वह अव्यक्त तत्त्व इन संसारी पुरुषोंके बुद्धिगोचर होकर संसारकी निवृत्तिका कारण हो।



Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।2.24।।लोकप्रसिद्धमविरुद्धमत्राप्यङ्गीकार्यम्। अहल्याजारत्वाद्यपि दोषकृतोऽपि ते न बहुतरो लेप आसीदित्युत्कर्षमेव वक्ति। बहुनरकफलो ह्यसौ। तस्य (मे तत्र) न लोम च (ना) मीयते कौ.उ.3।1 इति श्रुत्यन्तराच्च।यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् 15।19 इति तदुक्तेश्च।सत्यं सत्यं पुनः सत्यं शपथैश्चापि कोटिभिः। विष्णुमाहात्म्यलेशस्य विभक्तस्य च कोटिधा। पुनश्चानन्तधा तस्य पुनश्चापि ह्यनन्तधा। नैकांशसममाहात्म्याः श्रीशेषब्रह्मशङ्कराः। इति नारदीये। अन्योत्कर्ष ऐक्यं चतथैव सर्वशास्त्रेषु महाभारतमुत्तमम्। को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षान्महाभारतकृद्भवेत् वि.पु.3।4।5 इत्यादिग्रन्थान्तरसिद्धोत्कर्षमहाभारतविरुद्धम्। तत्र हिनास्ति नारायणसमं न भूतं न भविष्यति। एतेन सत्यवाक्येन सर्वार्थान्साधयाम्यहम्यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रश्च क्रोधसम्भवः। न त्वत्समोऽस्ति इत्यादिषु साधारणप्रश्नावसर एव महान्तमुत्कर्षं विष्णोर्वक्ति। अन्यत्र यत्किञ्चिदुक्तावप्यसाधारण एवावसरे। तद्ध्यग्न्यादेरपि वेदादावस्ति। त्वमग्न इन्द्रो ऋषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः ऋक्सं.2।5।17।3 विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ऋक्सं.8।4।1।1 इत्यादिषु तद्ग्रन्थविरोधाच्च।
तथाहि स्कान्दे शैवे यदन्तरं व्याघ्रहरीन्द्रयोर्वने यदन्तरं मेरुगिरीन्द्रविन्ध्ययोः। यदन्तरं सूर्यसुरेड्यबिम्बयोस्तदन्तरं रुद्रमहेन्द्रयोरपि। यदन्तरं सिंहगजेन्द्रयोर्वने यदन्तरं सूर्यशशाङ्कयोर्दिवि। यदन्तरं जाह्नविसूर्यकन्ययोस्तदन्तरं ब्रह्मगिरीशयोरपि। यदन्तरं प्रलयजवारिविप्रुषोर्यदन्तरं स्तम्बहिरण्यगर्भयोः। स्फुलिङ्गसंवर्त्तकयोर्यदन्तरं तदन्तरं विष्णुहिरण्यगर्भयोः। अनन्तत्वात्महाविष्णोस्तदन्तरमनन्तकम्। माहात्म्यसूचनार्थाय ह्युदाहरणमीरितम्। तत्समो ह्यधिको वापि नास्ति कश्चित्कदाचन। एतेन सत्यवाक्येन तमेव प्रविशाम्यहम् इत्याह। तत्रैव शिवं प्रति मार्कण्डेयवचनम् संसारार्णवनिर्मग्न इदानीं मुक्तिमेष्यसि इत्यादि। पाद्मे शैवे मार्कण्डेयकथाप्रबन्धे शिवान्निषिध्य विष्णोरेव मुक्तिमाह अहं भोगप्रदो वत्स मोक्षदस्तु जनार्दनः इत्यादि। समब्राह्मविरोधाच्च। वेदश्चेतिहासाद्यविरोधेन योज्यःयदि विद्यात् इति वचनात्। अनिर्णयाच्चेन्द्रादिशङ्कयाऽन्यथा तत्रापीष्टसिद्धिः नामवैशेष्यात्। अतो भगवदुत्कर्ष एव सर्वागमानां महातात्पर्यम्। तथापि स्वतः प्रामाण्यत्सन्नेवोच्यते अविरोधात्।
नच प्रमाणसिद्धस्य अन्यत्रादृष्ट्यापह्नवो युक्तः धर्मवैचित्र्यादर्थानाम्। स्वतः प्रामाण्यानङ्गीकारे मानोक्तदावप्यदोषत्वं च साधयेदित्यतिप्रसङ्गः। अनन्यापेक्षया च तत्परत्वं सिद्धमागमानाम्।नारायणपरा वेदाः भाग.2।5।15 सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति कठो.1।2।15वासुदेवपरा वेदाः भाग.1।2।28 इति। न चैतद्विरुद्धम् ईश्वरनियमात्। अनादौ च तत्सिद्धम्द्रव्यं कर्म च कालश्च भाग.2।10।12 इत्यादौ। प्रयोजकत्वं तु पूर्वोक्तन्यायेन। अतः सिद्धमेतत्। तच्चानन्यापेक्षाचिन्त्यशक्तित्वादेव युक्तम्। अतो न मायामयमेकम्।
अचलत्वं त्वप्रहर्षमनानन्दमदुःखमसुखमप्रज्ञमसद्वेत्यादिवत्। क्रियादृष्टेःतपो मे हृदयं साक्षात् ब्रह्मन् तनुर्विद्या क्रियाकृतिः भाग.6।4।46 इत्याद्युक्तम्। अतश्च न मायामयं सर्वम् ऐश्वर्यादिवाचिभगशब्देनैव सम्बोधनाच्च। तं त्वा भग ऋक्सं.5।4।8।5 इत्यादौ स्वरूपत्वान्न मायामयत्वं युक्तम्।विज्ञानशक्तिरहमासमननन्तशक्तेः भाग.3।9।24मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे भाग.6।4।48 पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च श्वे.उ.6।8 इत्यादिवचनात्।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।2.24।।शस्त्राग्न्यम्बुवायवः छेदनदहनक्लेदनशोषणानि आत्मानं प्रति कर्तुं न शक्नुवन्ति। सर्वगतत्वाद् आत्मनः सर्वतत्त्वव्यापकस्वभावतया सर्वेभ्यः तत्त्वेभ्यः सूक्ष्मत्वात् अस्य तैः व्याप्त्यनर्हत्वाद् व्याप्यकर्तव्यत्वात् च छेदनदहनक्लेदनशोषणानाम्। अत आत्मा नित्यः स्थाणुः अचलः अयं सनातनः स्थिरस्वभावः अप्रकम्प्यः पुरातनः च।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

2.24 See Comment under 2.25

English Translation by Shri Purohit Swami

2.24 It is impenetrable; It can be neither drowned nor scorched nor dried. It is Eternal, All-pervading, Unchanging, Immovable and Most Ancient.

English Translation By Swami Sivananda

2.24 This Self cannot be cut, burnt, wetted, nor dried up. It is eternal, all-pervading, stable, immovable and ancient.