श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2.52।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.52।। जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.52।। जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं।।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।2.52।।एवं कर्माण्यनुतिष्ठतः कदा मे सत्त्वशुद्धिः स्यादित्यत आह न ह्येतावता कालेन सत्त्वशुद्धिर्भवतीति

कालनियमोऽस्ति किंतु यदा यस्मिन्काले ते तव बुद्धिरन्तःकरणं मोहकलिलं व्यतितरिष्यति अविवेकात्मकं कालुष्यं अहमिदं ममेदमित्याद्यज्ञानविलसितमतिगहनं व्यतिकमिष्यति। रजस्तमोमलमपहाय शुद्धभावमापत्स्यत इति यावत्। तदा तस्मिन्काले श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च कर्मफलस्य निर्वेदं वैतृष्ण्यं गन्तासि प्राप्तासि प्राप्नोषि।परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायात् इति श्रुतेः। निर्वेदेन फलेनान्तःकरणशुद्धिं ज्ञास्यसीत्यभिप्रायः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.52।।

 यदा  यस्मिन्काले  ते  तव  मोहकलिलं  मोहात्मकमविवेकरूपं कालुष्यं येन आत्मानात्मविवेकबोधं कलुषीकृत्य विषयं प्रत्यन्तःकरणं प्रवर्तते तत् तव  बुद्धिः व्यतितरिष्यति  व्यतिक्रमिष्यति अतिशुद्धभावमापत्स्यते इत्यर्थः।  तदा  तस्मिन् काले  गन्तासि  प्राप्स्यसि  निर्वेदं  वैराग्यं  श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च  तदा श्रोतव्यं श्रुतं च ते निष्फलं प्रतिभातीत्यभिप्रायः।।
मोहकलिलात्ययद्वारेण लब्धात्मविवेकजप्रज्ञः कदा कर्मयोगजं फलं परमार्थयोगमवाप्स्यामीति चेत् तत् श्रृणु

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.52।। मोह निवृत्ति होने पर वैराग्य प्राप्ति का आश्वासन यहाँ अर्जुन को दिया गया है। श्रोतव्य शब्द से तात्पर्य उन सभी विषयोपभोगों से है जिनका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया गया है तथा श्रुत शब्द से सभी ज्ञान अनुभव सूचित किये गये हैं। यह स्वाभाविक है कि बुद्धि के शुद्ध होने पर विषयोपभोग में कोई राग नहीं रह जाता।

स्वरूप से दिव्य होते हुये भी चैतन्य आत्मा मोहावरण में फँसी हुई प्रतीत होती है। इस मोह का कारण है एक अनिर्वचनीय शक्ति माया। अव्यक्त विद्युत के समान माया भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होती परन्तु विभिन्न रूपों में उसकी अभिव्यक्ति से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है।
सभी जीवों की संरचना में माया के कार्य के निरीक्षण एवं अध्ययन से वेदान्त के आचार्यों ने यह पाया कि मनुष्य के व्यक्तित्व के दो स्तरों पर माया की अभिव्यक्ति दो प्रकार से होती है। बुद्धि पर आत्मस्वरूप के अज्ञान के रूप में पड़े इस आवरण को वेदान्त में माया की आवरण शक्ति कहा गया है। बुद्धि पर पड़े इस अज्ञान आवरण के कारण मन अनात्म जगत् की कल्पना करता है और उस जगत् के विषय में उसकी दो धारणायें दृढ़ होती हैं कि (क) यह सत्य है और (ख) यह अनात्मा (देह आदि) ही में हूँ। मन के स्तर पर कार्य करने वाली माया की यह शक्ति विक्षेप शक्ति कहलाती है।
इस श्लोक में कहा गया है कि कर्मयोग की भावना से कर्म करते रहने पर बुद्धि की शुद्धि होती है और तब उसके लिये सम्भव होता है कि आवरण को हटाकर आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर सके। इस प्रकार मोह निवृति का परिणाम है विषयोपभोग से वैराग्य परन्तु आत्मअज्ञान के होने पर मनुष्य विषयों से ही सुख पाने की आशा में दिनरात परिश्रम करता रहता है।
शीत ऋतु में बादलों से सूर्य के आच्छादित होने पर मनुष्य अग्नि जलाकर उसके समीप बैठता है किन्तु धीरेधीरे बादलों के हट जाने पर सूर्य की उष्णता का अनुभव कर वह अग्नि के पास से उठकर धूप का आनन्द लेता है। वैसे ही आनन्दस्वरूप के अज्ञान के कारण विषयों को पाने के लिये चल रही मनुष्य की भागदौड़ स्वत समाप्त हो जाती है जब वह स्वस्वरूप को पहचान लेता है।
यहाँ सम्पूर्ण जगत् का निर्देश श्रुत और श्रोतव्य इन दो शब्दों से किया गया है। इसमें सभी इन्द्रियों द्वारा ज्ञात होने वाले विषय समाविष्ट हैं। कर्मयोगी की बुद्धि न तो पूर्वानुभूत विषय सुखों का स्मरण करती है और न ही भविष्य में प्राप्त होनेवाले अनुभवों की आशा।
भाष्यकार भगवान् शंकराचार्य अगले श्लोक की संगति बताते हैं कि यदि तुम्हारा प्रश्न हो कि मोहावरण भेदकर और विवेकजनित आत्मज्ञान को प्राप्त कर कर्मयोग के फल परमार्थयोग को तुम कब पाओगे तो सुनो

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.52।।योगानुष्ठानजनित सत्त्वशुद्धिसे उत्पन्न हुई बुद्धि कब प्राप्त होती है इसपर कहते हैं

जब तेरी बुद्धि मोहकलिलको अर्थात् जिसके द्वारा आत्मानात्मके विवेकविज्ञानको कलुषित करके अन्तःकरण विषयोंमें प्रवृत्त किया जाता है उस मोहात्मक अविवेककालिमाको उल्लङ्घन कर जायगी अर्थात् जब तेरी बुद्धि बिल्कुल शुद्ध हो जायगी।
तब उस समय तू सुननेयोग्यसे और सुने हुएसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा। अर्थात् तब तेरे लिये सुननेयोग्य और सुने हुए ( सब विषय ) निष्फल हो जायँगे यह अभिप्राय है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।2.52।।कियत्पर्यन्तमवश्यं कर्तव्यानि मुमुक्षुणैवं कर्माणीत्याह यदेति। निर्वेदं नितरां लाभम्। प्रयोगात् तस्माद्ब्राह्मणः पाण्डित्यं निर्विद्य बृ.उ.3।5।1 इत्यादि। न हि तत्र वैराग्यमुपपद्यते तथा सति पाण्डित्यादिति स्यात्।
न च ज्ञानिनां भगवन्महिमादिश्रवणेन विरक्तिर्भवति।आत्मारामा हि मुनयो निर्ग्राह्या (निर्ग्रन्था) अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः भाग.1।7।10 इति वचनात् अनुष्ठानाच्च शुकादीनाम्। न च तेषां फलं सुखं नास्ति तस्यैव महत्सुखत्वात्। तेषांया निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्मध्यानाद्भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात्। साब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्किम्वन्तकासि लुलितात्पततां विमानात् भाग.4।9।10 इत्यादिवचनात्। तेषामप्युपासनादिफलस्य साधितत्वात् तारतम्याधिगतेश्च।
तथाहि यदि तारतम्यं न स्यात्नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं भाग.3।15।48नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचित् भाग.2।25।34एकत्वमप्युत दीयमानं न गृह्णन्ति इति मुक्तिमप्यनिच्छतामपि मोक्ष एव फलम्। तमिच्छतामपि भवति सुप्रतीकादीनाम्। कथमनिच्छतां स्तुतिरुपपन्ना स्यात् वचनाच्च।यथा भक्तिविशेषोऽत्र दृश्यते पुरुषोत्तमे। तथा मुक्तिविशेषोऽपि ज्ञानिनां लिङ्गभेदने इति।योगिनां भिन्नलिङ्गानामाविर्भूतस्वरूपिणाम्। प्राप्तानां परमानन्दं तारतम्यं सदैव हि इति।न त्वामतिशयिष्यन्ति मुक्तावपि कदाचन। मद्भक्तियोगाज्ज्ञानाच्च सर्वानतिशयिष्यसि इति च। साम्यवचनं तु प्राचुर्यविषयम् दुःखाभावविषयं च। तथा चोक्तम् दुःखाभावः परानन्दो लिङ्गभेदः समो मतः। तथापि परमानन्दो ज्ञानभेदात्तु भिद्यते इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अतो न वैराग्यं श्रुतादावत्र विवक्षितम्। न च सङ्कोचे मानं किञ्चिद्विद्यमान इतरत्र प्रयोगे महद्भिः श्रवणीयस्य श्रुतस्य च वेदादेः फलं प्राप्स्यसीत्यर्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।2.52।।उक्तप्रकारेण कर्मणि वर्तमानस्य तया वृत्त्या निर्धूतकल्मषस्य  ते बुद्धिः यदा मोहकलिलम्  अत्यल्पफलसङ्गहेतुभूतं मोहरूपं कलुषं  व्यतितरिष्यति।  तदा अस्मत्त इतः पूर्वं त्याज्यतया श्रुतस्य फलादेः इतः पश्चात्  श्रोतव्यस्य  च कृते स्वयम् एव निर्वेदं गन्तासि गमिष्यसि।
योगे त्विमां श्रृणु इत्यादिना उक्तस्य आत्मयाथात्म्यज्ञानपूर्वकस्य बुद्धिविशेषसंस्कृतकर्मानुष्ठानस्य लक्षणभूतं योगाख्यं फलम् आह

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

2.52 See Comment under 2.53

English Translation by Shri Purohit Swami

2.52 When thy reason has crossed the entanglements of illusion, then shalt thou become indifferent both to the philosophies thou hast heard and to those thou mayest yet hear.

English Translation By Swami Sivananda

2.52 When thy intellect crosses beyond the mire of delusion, then thou shalt attain to indifference as to what has been heard and what has yet to be heard.