श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.56।। दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.56।। दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है? जिसके मन से राग? भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं? वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।2.56।।इदानीं व्युत्थितस्य स्थितप्रज्ञस्य भाषणोपवेशनगमनानि मूढजनविलक्षणानि व्याख्येयानि। तत्र किं

प्रभाषेतेत्यस्योत्तरमाह द्वाभ्याम् दुःखेष्विति। दुःखानि त्रिविधानि शोकमोहज्वरशिरोरोगादिनिमित्तान्याध्यात्मिकानि व्याघ्रसर्पादिप्रयुक्तान्याधिभौतिकानि अतिवातातिवृष्ट्यादिहेतुकान्याधिदैविकानि तेषु दुःखेषु

रजःपरिणामसंतापात्मकचित्तवृत्तिविशेषेषु प्रारब्धपापकर्मप्रापितेषु नोद्विग्नं दुःखपरिहाराक्षमतया व्याकुलं न भवति मनो यस्य सोऽनुद्विग्नमनाः। अविवेकिनो हि दुःखप्राप्तौ सत्यामहो पापोऽहं धिङ्मां दुरात्मानमेतादृशदुःखभागिनं को मे दुःखमीदृशं

निराकुर्यादित्यनुतापात्मको भ्रान्तिरूपस्तामसचित्तवृत्तिविशेष उद्वेगाख्यो जायते। यद्येवं पापानुष्ठानसमये स्यात्तदा

तत्प्रवृत्तिप्रतिबन्धकत्वेन सफलः स्यात्। भोगकालेऽनुभवकारणे सति कार्यस्योच्छेत्तुमशक्यत्वान्निष्प्रयोजने दुःखकारणे सत्यपि किमति मम दुःखं जायत इत्यविवेकजभ्रमरूपत्वान्न विवेकिनः स्थितप्रज्ञस्य संभवति। दुःखमात्रं हि प्रारब्धकर्मणा प्राप्यते नतु तदुत्तरकालीनो भ्रमोऽपि। ननु दुःखान्तरकारणत्वात्सोऽपि प्रारब्धकर्मान्तरेण प्राप्यतामिति चेत्। न। स्थितप्रज्ञस्य

भ्रमोपादानाज्ञाननाशेन भ्रमासंभवात्तज्जन्यदुःखप्रापकप्रारब्धाभावात् यथाकथंचिद्देहयात्रामात्रनिर्वाहकप्रारब्धकर्मफलस्य भ्रमाभावेऽपि बाधितानुवृत्त्योपपत्तेरिति विस्तरेणाग्रे वक्ष्यते। तथा सुखेषु सत्त्वपरिणामरूपप्रीत्यात्मकचित्तवृत्तिविशेषेषु त्रिविधेषु

प्रारब्धपुण्यकर्मप्रापितेषु विगतस्पृहः आगामितज्जातीयसुखस्पृहारहितः। स्पृहाहि नाम सुखानुभववृत्तिकाले तज्जातीयसुखस्य कारणं धर्ममननुष्ठाय वृथैव तदाकाङ्क्षारूपा तामसी चित्तवृत्तिर्भ्रान्तिरेव सात्राविवेकिन एव जायते। नहि कारणाभावे कार्यं भवितुमर्हति। अतो यथाऽसतिकारणे कार्यं माभूदिति वृथाकाङ्क्षा उद्वेगो विवेकिनो न संभवति। तथैवासति कारणे कार्यं

भूयादिति वृथाकाङ्क्षारूपा तृष्णात्मिका स्पृहापि नोपपद्यते। प्रारब्धकर्मणः सुखमात्रप्रापकत्वात्। हर्षात्मिका वा चित्तवृत्तिः स्पृहाशब्देनोक्ता सापि भ्रान्तिरेव। अहो धन्योऽहं यस्य ममेदृशं सुखमुपस्थितं को वा मया तुल्योऽस्ति भुवने केन वोपायेन ममेदृशं सुखं न विच्छिद्येतेत्येवमात्मिकोत्फुल्लतारूपा तामसी चित्तवृत्तिः। अतएवोक्तं भाष्येनाग्निरिवेन्धनाद्याधाने यः

सुखान्यनुविवर्धते स विगतस्पृहः इति। वक्ष्यति चन प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् इति। सापि न विवेकिनः संभवति भ्रान्तित्वात्। तथा वीतरागभयक्रोधः। रागः शोभनाध्यासनिबन्धनो विषयेषु

रञ्जनात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषोऽत्यन्ताभिनिवेशरूपः। रागविषयस्य नाशके समुपस्थिते तन्निवारणासामर्थ्यमात्मनो मन्यमानस्य दैन्यात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषो भयम्। एवं रागविषयविनाशके समुपस्थिते तन्निवारणसामर्थ्यमात्मनो

मन्यमानस्याभिज्वलनात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषः क्रोधः। ते सर्वे विपर्ययरूपत्वाद्विगता यस्मात्स तथा एतादृशो मुनिर्मननशीलः संन्यासी स्थितप्रज्ञ उच्यते। एवंलक्षणः स्थितधीः स्वानुभवप्रकटनेन शिष्यशिक्षार्थमनुद्वेगनिस्पृहत्वादिवाचः प्रभाषत इत्यन्वय उक्तः। एवंचान्योऽपि मुमुक्षुर्दुःखे नोद्विजेत् सुखे न प्रहृष्येत् रागभयक्रोधरहितश्च भवेदित्यभिप्रायः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.56।।

 दुःखेषु  आध्यात्मिकादिषु प्राप्तेषु न उद्विग्नं न प्रक्षुभितं दुःखप्राप्तौ मनो यस्य सोऽयम्  अनुद्विग्नमनाः।  तथा  सुखेषु  प्राप्तेषु विगता स्पृहा तृष्णा यस्य न अग्निरिव इन्धनाद्याधाने सुखान्यनु विवर्धते स  विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः  रागश्च भयं च क्रोधश्च वीता विगता यस्मात् स वीतरागभयक्रोधः।  स्थितधीः  स्थितप्रज्ञो  मुनिः  संन्यासी तदा  उच्यते।।
किञ्च

 

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.56।। स्थितप्रज्ञ का मुख्य लक्षण है आत्मानन्द की अनुभूति द्वारा सब कामनाओं का त्याग। श्रीकृष्ण ज्ञानी की पहचान का दूसरा लक्षण बताते हैं सुख और दुख में मन का समत्व रहना। शरीर धारणा के कारण उसको होने वाले अनुभवों के भोक्ता के रूप में उसके व्यवहार को यहां बताया गया है।
स्थितप्रज्ञ मुनि वह है जो राग भय और क्रोध से मुक्त है। यदि हम पूर्णत्व प्राप्त पुरुषों की जीवनियों का अध्ययन करें तो उनमें हमें सामान्य मनुष्य से सर्वथा विपरीत लक्षण देखने को मिलेंगे। सामान्य पुरुषों की सैकड़ों प्रकार की भावनायें और गुण ज्ञानी पुरुष में नहीं होते और इसलिये यहां केवल तीन गुणों के अभाव को बताने से हमें आश्चर्य होगा। तब एक शंका मन में उठती है क्या व्यास जी अन्य गुणों को भूल गये क्या यह वाक्य पूर्ण लक्षण बताता है परन्तु विचार करने पर ज्ञात होगा कि ये शंकायें निर्मूल हैं।
पूर्व श्लोक में ज्ञानी के निष्कामत्व को बताया गया है और यहाँ उसके मन की स्थिरता को। जगत् में अनेक विषयों के अनुभव से हम जानते हैं कि उनके साथ राग या आसक्ति की वृद्धि होने से मन में भय भी उत्पन्न होने लगता है। विषय को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा होने पर यह भय होता है कि वास्तव में वह वस्तु प्राप्त होगी अथवा नहीं। वस्तु के प्राप्त होने पर भी उसकी सुरक्षा के लिये चिन्ता और भय लगे ही रहते हैं।
राग और भय से अभिभूत व्यक्ति के और उसकी इष्ट वस्तु के मध्य कोई विघ्न आता है तो उस विघ्न की ओर मन में जो भाव उठता है उसे कहते हैं क्रोध। क्रोध के आवेग की तीव्रता राग और भय की तीव्रता के समान अनुपात में होती है। अर्थ यह हुआ कि राग ही निमित्तवशात् क्रोध के रूप में व्यक्त

होता है।
श्री शंकराचार्य जी भाष्य में लिखते हैं कि ज्ञानी पुरुष त्रिविध तापों में स्थिरचित्त रहता है। वे त्रिविध दुख हैं (क) आध्यात्मिकशरीर में रोग आदि (ख) आधिभौतिकबाह्य वस्तुओं आदि से प्राप्त जैसे व्याघ्र चोर आदि (ग) आधिदैविकप्रकृति के प्रकोप जैसे भूकम्प तूफान आदि। ईंधन के डालने पर अग्नि प्रज्वलित होती है। परन्तु ज्ञानी पुरुष में अनेक विषय रूप ईंधन डालने पर भी इच्छा की अग्नि उग्ररूप धारण नहीं करती। ऐसे पुरुष को कहते हैं स्थितप्रज्ञ मुनि।

और आगे कहते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.56।।तथा

आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकारके दुःखोंके प्राप्त होनेमें जिसका मन उद्विग्न नहीं होता अर्थात् क्षुभित नहीं

होता उसे अनुद्विग्नमना कहते हैं।
तथा सुखोंकी प्राप्तिमें जिसकी स्पृहातृष्णा नष्ट हो गयी है अर्थात् ईंधन डालनेसे जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुखके साथसाथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती वह विगतस्पृह कहलाता है।
एवं आसक्ति भय और क्रोध जिसके नष्ट हो गये हैं वह वीतरागभयक्रोध कहलाता है ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह स्थितधी यानी स्थितप्रज्ञ और मुनि यानी संन्यासी कहलाता है।



Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।2.56।।तदेव स्पष्टयत्युत्तरैस्त्रिभिः श्लोकैः। एतान्येव ज्ञानोपायानि तच्चोक्तम् तद्वै जिज्ञासुभिः साध्यं ज्ञानिनां यत्तु लक्षणम् इति। शोभनाध्यासो रागः।रसो रागस्तथा रक्तिः शोभनाध्यास इष्यते इत्यभिधानम्।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।2.56।।प्रियविश्लेषादि दुःखनिमित्तेषु उपस्थितेषु  अनुद्विग्नमनाः  न दुःखी भवति  सुखेषु विगतस्पृहः  प्रियेषु सन्निहितेषु अपि निःस्पृहः  वीतरागभयक्रोधः  अनागतेषु स्पृहा  रागस्तद्रवितः  प्रियविश्लेषाप्रियागमनहेतुदर्शननिमित्तिं दुःखं भयम् तद्रहितः प्रियविश्लेषाप्रियागमनहेतुभूतचेतनान्तरगतो दुःखहेतुः स्वमनोविकारः क्रोधः तद्रहितः एवंभूतो  मुनिः  आत्ममननशीलः  स्थितधीः  इति  उच्यते।
ततः अर्वाचीनदशा प्रोच्यते
 

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

2.56 Dukkhesu etc. Only that sage whose mental attitude is free from desire and hatred in the midst of pleasure and pain, and not anyone else, is a man-of-stabilized-intellect. This is also proper. For-

English Translation by Shri Purohit Swami

2.56 The sage, whose mind is unruffled in suffering, whose desire is not roused by enjoyment, who is without attachment, anger or fear - take him to be one who stands at that lofty level.

English Translation By Swami Sivananda

2.56 He whose mind is not shaken by adversity, who does not hanker after pleasures, and is free from attachment, fear and anger, is called a sage of steady wisdom.