श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.4।। मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.4।। कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) प्राप्त करता है।।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।3.4।।तत्र कारणाभावे कार्यानुपपत्तेः कर्मणा तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्यात्मज्ञाने विनियुक्तानामनारम्भादननुष्ठानाच्चित्तशुद्ध्यभावेन ज्ञानायोग्यो बहिर्मुखः नैष्कर्म्यं सर्वकर्मशून्यत्वं ज्ञानयोगेन निष्ठामिति यावत् नाश्नुते न प्राप्नोति। ननुएतमेव प्रवाजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति इति श्रुतेः सर्वकर्मसंन्यासादेव ज्ञाननिष्ठोपपत्तेः कृतं कर्मभिरित्यत आह नच संन्यसनादेव चित्तशुद्धिंविना कृतात्सिद्धिं ज्ञाननिष्ठालक्षणां सम्यक्फलपर्यवसायित्वेन नाधिगच्छति नैव प्राप्नोतीत्यर्थः। कर्मजन्यां चित्तशुद्धिमन्तरेण सन्यास एव न संभवति यथा कथंचिदौत्सुक्यमात्रेण कृतोऽपि न फलपर्यवसायीति भावः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.4।। न कर्मणां क्रियाणां यज्ञादीनाम् इह जन्मनि जन्मान्तरे वा अनुष्ठितानाम् उपात्तदुरितक्षयहेतुत्वेन सत्त्वशुद्धिकारणानां तत्कारणत्वेन च ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण ज्ञाननिष्ठाहेतूनाम् ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः। यथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि (महा0 शान्ति0 204।8) इत्यादिस्मरणात् अनारम्भात् अननुष्ठानात् नैष्कर्म्यं निष्कर्मभावं कर्मशून्यतां ज्ञानयोगेन निष्ठां निष्क्रियात्मस्वरूपेणैव अवस्थानमिति यावत्। पुरुषः न अश्नुते न प्राप्नोतीत्यर्थः।।कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं नाश्नुते इति वचनात् तद्विपर्ययात् तेषामारम्भात् नैष्कर्म्यमश्नुते इति गम्यते। कस्मात् पुनः कारणात् कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं नाश्नुते इति उच्यते कर्मारम्भस्यैव नैष्कर्म्योपायत्वात्। न ह्युपायमन्तरेण उपेयप्राप्तिरस्ति। कर्मयोगोपायत्वं च नैष्कर्म्यलक्षणस्य ज्ञानयोगस्य श्रुतौ इह च प्रतिपादनात्। श्रुतौ तावत् प्रकृतस्य आत्मलोकस्य वेद्यस्य वेदनोपायत्वेन तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन (बृह0 उ0 4।4।22) इत्यादिना कर्मयोगस्य ज्ञानयोगोपायत्वं प्रतिपादितम्। इहापि च संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः (गीता 5।6) योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये (गीता 5।11) यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् (गीता 18।5) इत्यादि प्रतिपादयिष्यति।।ननु च अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् इत्यादौ कर्तव्यकर्मसंन्यासादपि नैष्कर्म्यप्राप्तिं दर्शयति। लोके च कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यमिति प्रसिद्धतरम्। अतश्च नैष्कर्म्यार्थिनः किं कर्मारम्भेण इति प्राप्तम्। अत आह न च संन्यसनादेवेति। नापि संन्यसनादेव केवलात् कर्मपरित्यागमात्रादेव ज्ञानरहितात् सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां ज्ञानयोगेन निष्ठां समधिगच्छति न प्राप्नोति।।कस्मात् पुनः कारणात् कर्मसंन्यासमात्रादेव केवलात् ज्ञानरहितात् सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां पुरुषो नाधिगच्छति इति हेत्वाकाङ्क्षायामाह

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।3.4।। अपने आत्मस्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति परिपूर्ण है। इस पूर्णत्व के अज्ञान के कारण हमारी बुद्धि में अनेक इच्छायें सुख को पाने के लिये उत्पन्न होती हैं। यह सब जानते हैं कि हम केवल उन्हीं वस्तुओं की इच्छा करते हैं जो पहले से हमारे पास पूर्ण रूप में अथवा पर्याप्त मात्रा में नहीं होतीं। जैसी इच्छायें वैसी ही विचार वृत्तियाँ मन में उठती हैं। मन में उठने वाली ये वृत्तियाँ विक्षेप कहलाती हैं। प्रत्येक क्षण इन वृत्तियों के गुणधर्म इच्छाओं के अनुरूप ही होते हैं। ये विचार ही शरीर के स्तर पर बाह्य जगत् में मनुष्य के कर्म के रूप में व्यक्त होते हैं। इस प्रकार अविद्या जनित इच्छा विक्षेप और कर्म की श्रृंंखला में हम बँधे पड़े हुए हैं।

इस पर और अधिक गहराई से विचार करने पर ज्ञात होगा कि वास्तव में यह सब भिन्नभिन्न न होकर एक आत्म अज्ञान के ही अनेक रूप हैं। यह अज्ञान बुद्धि मन और शरीर के स्तर पर क्रमश इच्छा विचार और कर्म के रूप में व्यक्त होता है। अत स्वाभाविक है कि यदि परम तत्त्व की परिभाषा अज्ञान के परे का अनुभव है तो यह भी सत्य है कि इच्छा शून्य या विचार शून्य या कर्म शून्य स्थिति ही आत्मस्वरूप है। कर्मशून्यत्व को यहाँ नैर्ष्कम्य कहा है।इस प्रकार विचार करने से ज्ञात होता है कि नैर्ष्कम्य का वास्तविक अर्थ पूर्णत्व है। अत भगवान् कहते हैं कि कर्मों के संन्यास मात्र से नैर्ष्कम्य सिद्धि नहीं मिलती। जीवनसंघर्षों से पलायन व्यक्ति के विकास के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग नहीं है। अर्जुन का विचार रणभूमि से पलायन करने का था और इसीलिए उसे वैदिक संस्कृति के सम्यक् ज्ञान की पुन शिक्षा देना आवश्यक था। भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिव्य गीतोपदेश का यही प्रयोजन भी था।कर्मयोग से अन्तकरण शुद्धि और तत्पश्चात् ज्ञानयोग से आत्मानुभूति संक्षेप में यह है आत्मविकास की साधना जिसका संकेत इस श्लोक में किया गया है। इसलिए हिन्दू धर्म पर लिखने वाले सभी महान् लेखक इस श्लोक को प्राय उद्धृत करते हैं।ज्ञान के बिना केवल कर्मसंन्यास से ही नैर्ष्कम्य अथवा पूर्णत्व क्यों नहीं प्राप्त होता कारण यह है कि

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.4।।यह बात स्पष्ट प्रकट करनेकी इच्छासे कि ज्ञाननिष्ठाकी प्राप्तिमें साधन होनेके कारण कर्मनिष्ठा मोक्षरूप पुरुषार्थमें हेतु है स्वतन्त्र नहीं है और कर्मनिष्ठारूप उपायसे सिद्ध होनेवाली ज्ञाननिष्ठा अन्यकी अपेक्षा न रखकर स्वतन्त्र ही मुक्तिमें हेतु है भगवान् बोले कर्मोंका आरम्भ किये बिना अर्थात् यज्ञादि कर्म जो कि इस जन्म या जन्मान्तरमें किये जाते हैं और सञ्चित पापोंका नाश करनेके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिमें कारण हैं एवं पापकर्मोंका नाश होनेपर मनुष्योंके ( अन्तःकरणमें ) ज्ञान प्रकट होता है इस स्मृतिके अनुसार जो अन्तःकरणकी शुद्धिमें कारण होनेसे ज्ञाननिष्ठाके भी हेतु हैं उन यज्ञादि कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मभावको कर्मशून्य स्थितिको अर्थात् जो निष्क्रिय आत्मस्वरूपमें स्थित होनारूप ज्ञानयोगसे प्राप्त होनेवाली निष्ठा है उसको नहीं पाता। पू0 कर्मोंका आरम्भ नहीं करनेसे निष्कर्मभावको प्राप्त नहीं होता इस कथनसे यह पाया जाता है कि इसके विपरीत करनेसे अर्थात् कर्मोंका आरम्भ करनेसे मनुष्य निष्कर्मभावको पाता है सो ( इसमें ) क्या कारण है कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मताको प्राप्त नहीं होता उ0 क्योंकि कर्मोंका आरम्भ ही निष्कर्मताकी प्राप्तिका उपाय है और उपायके बिना उपेयकी प्राप्ति हो नहीं सकती यह प्रसिद्ध ही है। निष्कर्मतारूप ज्ञानयोगका उपाय कर्मयोग है यह बात श्रुतिमें और यहाँ गीतामें भी प्रतिपादित है। श्रुतिमें प्रस्तुत ज्ञेयरूप आत्मलोकके जाननेका उपाय बतलाते हुए उस आत्माको बाह्मण वेदाध्ययन और यज्ञसे जाननेका इच्छा करते हैं इत्यादि वचनोंसे कर्मयोगको ज्ञानयोगका उपाय बतलाया है। तथा यहाँ ( गीताशास्त्रमें ) भी हे महाबाहो बिना कर्मयोगके संन्यास प्राप्त करना कठिन है योगी लोग आसक्ति छो़ड़कर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म किया करते हैं यज्ञ दान और तप बुद्धिमानोंको पवित्र करनेवाले हैं इत्यादि वचनोंसे आगे प्रतिपादित करेंगे। यहाँ यह शंका होती है कि सब भूतोंको अभयदान देकर संन्यास ग्रहण करे इत्यादि वचनोंमें कर्तव्यकर्मोंके त्यागद्वारा भी निष्कर्मताकी प्राप्ति दिखलायी है और लोकमें भी कर्मोंका आरम्भ न करनेसे निष्कर्मताका प्राप्त होना अत्यन्त प्रसिद्ध है। फिर निष्कर्मता चाहनेवालेको कर्मोंके आरम्भसे क्या प्रयोजन इसपर कहते हैं केवल संन्याससे अर्थात् बिना ज्ञानके केवल कर्मपरित्यागमात्रसे मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धिको अर्थात् ज्ञानयोगसे होनेंवाली स्थितको नहीं पाता।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।3.4।।इतश्च नियोक्ष्यामीत्याह न कर्मणामिति। कर्मणां युद्धादीनामनारम्भेण नैष्कर्म्यं निष्कर्मतां काम्यकर्मपरित्यागेन प्राप्यत इति मोक्षं नाश्नुते। ज्ञानमेव तत्साधनं न तु कर्माकरणमित्यर्थः। कुतः पुरुषत्वात्। सर्वदा स्थूलेन सूक्ष्मेण वा पुरेण युक्तो ननु जीवः यदि कर्माकरणेन मुक्तिः स्यात् स्थावराणाम्। न चाकरणे कर्माभावान्मुक्तिर्भवति प्रतिजन्मकृतानामनन्तकर्मणां भावात्।न च सर्वाणि भुक्तानि एकस्मिञ्च्छरीरे बहूनि हि कर्माणि करोति। तानि चैकैकानि बहुजन्मफलानि कानिचित् तत्र चैकैकानि कर्माणि भुञ्जन्प्राप्नोत्येव शेषेण मानुष्यम्। ततश्च बहुशरीरफलकर्माणीत्यसमाप्तिः। तच्चोक्तंजीवंश्चतुर्दशादूर्ध्वं पुरुषो नियमेन तु। स्त्री वाप्यनूनदशकं देहं मानुषमार्जते। चतुर्दशोर्ध्वजीवीनि संसारश्चादिवर्जितः। अतोऽवित्वा परं देवं मोक्षाशा का महामुने इति ब्राह्मे। यदि सादिः स्यात्संसारः पूर्वकर्माभावादतत्प्राप्तिः। अबन्धकत्वं त्वकामेनैव भवति। तच्च वक्ष्यतेअनिष्टंमिष्टं 18।12 इति।ननु निष्कामकर्मणः फलाभावान्मोक्षः स्मृतः।निष्कामं ज्ञानपूर्वं तु निवृत्तमिह चोच्यते। निवृत्तं सेवमानस्तु ब्रह्माभ्येति सनातनम् इति मानवे। अतस्तत्साभ्यादकरणेऽपि भवतीत्यत आह न चेति। सन्न्यासः काम्यकर्मपरित्यागः। काम्यानां कर्मणां 18।2 इति वक्ष्यमाणत्वात्। अकामकर्मणामन्तःकरणशुद्ध्या ज्ञानान्मोक्षो भवति। तच्चोक्तंकर्मभिः शुद्धसत्त्वस्य वैराग्यं जायते हृदि इति भागवते । विरक्तानामेव च ज्ञानमुक्तम्न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्वरीयसीरपि वाचः समासन्। स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् भाग.5।11।3 इति। न तु फलाभावात् कर्माभावात्। अतो न कर्मत्याग एव मोक्षसाधनम्।यत्याश्रमस्तु प्रायत्यार्थो भगवत्तोषणार्थश्च। अप्रयतत्वमेव हि प्रायो गृहस्थादीनाम् इतरकर्मोद्योगात्। अप्रयतानां च न ज्ञानम् तथा हि श्रुतिः नाशान्तो नासमाहितः कठो.2।23 इति। महांश्च यत्याश्रमे भगवतस्तोषः। तथा ह्याह यत्याश्रमं तुरीयं तु दीक्षां मम सुतोषिणीम् इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। आधिकारिकास्तु तथैव प्रायत्ये समर्थाः। स एव च महान्भगवतस्तोषः। तच्चोक्तम् देवादीनामादिराज्ञां महोद्योगोऽपि भोगिनः। विष्णोश्चलति तद्भोगोऽत्यतीव हरितोषणम् इति पाद्मे।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।3.4।। शास्त्रीयाणां कर्मणाम् अनारम्भाद् एव पुरुषः नैष्कर्म्यं ज्ञाननिष्ठाम् आप्नोति सर्वेन्द्रियव्यापाराख्यकर्मोपरतिपूर्विकां ज्ञाननिष्ठां न प्राप्नोति इत्यर्थः। न च आरब्धस्य शास्त्रीयस्य कर्मणः त्यागात् यतः अनभिसंहितफलस्य परमपुरुषाराधनविषयस्य कर्मणः सिद्धिः आत्मनिष्ठा स्यात् अतः तेन विना तां न प्राप्नोति अनभिसंहितफलैः कर्मभिः अनाराधितगोविन्दैः अविनष्टानादिकालप्रवृत्तानन्तपापसंचयैः अव्याकुलेन्द्रियतापूर्विका आत्मनिष्ठा दुःसंपाद्या।एतद् एव उपपादयति

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

3.4 See Comment under 3.5

English Translation by Shri Purohit Swami

3.4 No man can attain freedom from activity by refraining from action; nor can he reach perfection by merely refusing to act.

English Translation By Swami Sivananda

3.4 Not by non-performance of actions does man reach actionlessness; nor by mere renunciation does he attain to perfection.