निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।4.21।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।4.21।। जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ है, जिसने सब प्रकारके संग्रहका परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित कर्मयोगी केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापको प्राप्त नहीं होता।
।।4.21।। जो आशा रहित है तथा जिसने चित्त और आत्मा (शरीर) को संयमित किया है, जिसने सब परिग्रहों का त्याग किया है, ऐसा पुरुष शारीरिक कर्म करते हुए भी पाप को नहीं प्राप्त होता है।।
।।4.21।।यदात्यन्तविक्षेपहेतोरपि ज्योतिष्टोमादेः सम्यग्ज्ञानवशान्न तत्फलजनकत्वं तदा शरीरस्थितिमात्रहेतोरविक्षेपकस्य भिक्षाटनादेर्नास्त्येव बन्धहेतुत्वमिति कैमुत्यन्यायेनाह निराशीर्गततृष्णः यतचित्तात्मा चित्तमन्तःकरणं आत्मा बाह्येन्द्रियसहितो देहस्तौ संयतौ प्रत्याहारेण निगृहीतौ येन सः। यतो जितेन्द्रियोऽतो विगततृष्णत्वात् त्यक्तसर्वपरिग्रहः त्यक्ताः सर्वे परिग्रहा भोगोपकरणानि येन सः एतादृशोऽपि प्रारब्धकर्मवशात् शारीरं शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं कौपीनाच्छादनादिग्रहणभिक्षाटनादिरूपं यतिं प्रति शास्त्राभ्यनुज्ञातं कर्म कायिकं वाचिकं मानसं च तदपि केवलं कर्तृत्वाभिमानशून्यं पराध्यारोपितकर्तृत्वेन कुर्वन्परमार्थतोऽकर्त्रात्मदर्शनान्नाप्नोति न प्राप्नोति किल्बिषं धर्माधर्मफलभूतमनिष्टं संसारम्। पापवत्पुण्यस्याप्यनिष्टफलत्वेन किल्बिषत्वात्। ये तु शरीरनिर्वर्त्यं शारीरमिति व्याचक्षते तन्मते केवलं कर्म कुर्वन्नित्यतोऽधिकार्थालाभादव्यावर्तकत्वेन शारीरपदस्य वैयर्थ्यम्। अथ वाचिकमानसिकव्यावर्तनार्थमिति ब्रूयात् तदा कर्मपदस्य विहितमात्रपरत्वेन शारीरं विहितं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषमित्यप्रसक्तप्रतिषेधोऽनर्थकः वाचिकं मानसं च विहितं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषमिति च शास्त्रविरुद्धमुक्तं स्यात् विहितप्रतिषिद्धसाधारण्यपरत्वेऽप्येवमेव व्याघात इति भाष्य एव विस्तरः।
।।4.21।। निराशीः निर्गताः आशिषः यस्मात् सः निराशीः यतचित्तात्मा चित्तम् अन्तःकरणम् आत्मा बाह्यः कार्यकरणसंघातः तौ उभावपि यतौ संयतौ येन सः यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः त्यक्तः सर्वः परिग्रहः येन सः त्यक्तसर्वपरिग्रहः शारीरं शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनम् केवलं तत्रापि अभिमानवर्जितम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति न प्राप्नोति किल्बिषम् अनिष्टरूपं पापं धर्मं च। धर्मोऽपि मुमुक्षोः किल्बिषमेव बन्धापादकत्वात्। तस्मात् ताभ्यां मुक्तः भवति संसारात् मुक्तो भवति इत्यर्थः।।शारीरं केवलं कर्म इत्यत्र किं शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं कर्म अभिप्रेतम् आहोस्वित् शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं शारीरं कर्म इति किं च अतः यदि शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं कर्म यदि वा शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं शारीरम् इति उच्यते यदा शरीरनिर्वर्त्यं कर्म शारीरम् अभिप्रेतं स्यात् तदा दृष्टादृष्टप्रयोजनं कर्म प्रतिषिद्धमपि शरीरेण कुर्वन् नाप्नोति किल्बिषम् इत्यपि ब्रुवतो विरुद्धाभिधानं प्रसज्येत। शास्त्रीयं च कर्म दृष्टादृष्टप्रयोजनं शरीरेण कुर्वन् नाप्नोति किल्बिषम् इत्यपि ब्रुवतः अप्राप्तप्रतिषेधप्रसङ्गः। शारीरं कर्म कुर्वन् इति विशेषणात् केवलशब्दप्रयोगाच्च वाङ्मनसनिर्वर्त्यं कर्म विधिप्रतिषेधविषयं धर्माधर्मशब्दवाच्यं कुर्वन् प्राप्नोति किल्बिषम् इत्युक्तं स्यात्। तत्रापि वाङ्मनसाभ्यां विहितानुष्ठानपक्षे किल्बिषप्राप्तिवचनं विरुद्धम् आपद्येत। प्रतिषिद्धसेवापक्षेऽपि भूतार्थानुवादमात्रम् अनर्थकं स्यात्। यदा तु शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं शारीरं कर्म अभिप्रेतं भवेत् तदा दृष्टादृष्टप्रयोजनं कर्म विधिप्रतिषेधगम्यं शरीरवाङ्मनसनिर्वर्त्यम् अन्यत् अकुर्वन् तैरेव शरीरादिभिः शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं केवलशब्दप्रयोगात् अहं करोमि इत्यभिमानवर्जितः शरीरादिचेष्टामात्रं लोकदृष्ट्या कुर्वन् नाप्नोति किल्बिषम्। एवंभूतस्य पापशब्दवाच्यकिल्बिषप्राप्त्यसंभवात् किल्बिषं संसारं न आप्नोति ज्ञानाग्निदग्धसर्वकर्मत्वात् अप्रतिबन्धेन मुच्यत एव इति पूर्वोक्तसम्यग्दर्शनफलानुवाद एव एषः। एवम् शारीरं केवलं कर्म इत्यस्य अर्थस्य परिग्रहेनिरवद्यं भवति।।त्यक्तसर्वपरिग्रहस्य यतेः अन्नादेः शरीरस्थितिहेतोः परिग्रहस्य अभावात् याचनादिना शरीरस्थितौ कर्तव्यतायां प्राप्तायाम् अयाचितमसंक्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया (बोधा0 स्मृ0 21.8.12) इत्यादिना वचनेन अनुज्ञातं यतेः शरीरस्थितिहेतोः अन्नादेः प्राप्तिद्वारम् आविष्कुर्वन् आह
।।4.21।। केवल शरीर द्वारा कर्म किए जाने से वासना के रूप में प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं हो सकती। वासनायें अन्तकरण में उत्पन्न होती हैं और उनकी उत्पत्ति का कारण कर्तृत्वाभिमान के साथ किए कर्म हैं। स्वार्थ के प्रबल होने पर ही ये वासनाएँ बन्धनकारक बनती हैं।आत्मा के साथ शरीर मन और बुद्धि इन अविद्याजनित उपाधियों के मिथ्या तादात्म्य से अहंकार उत्पन्न होता है। इस अहंकार की प्रतिष्ठा भविष्य की आशाओं तथा वर्तमान में प्राप्त विषयोपभोगजनित सन्तोष में है।इसलिए इस श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति (क) आशारहित है (ख) जिसने शरीर और मन को संयमित किया है (ग) जो सब परिग्रहों से मुक्त है उस व्यक्ति में इस मिथ्या अहंकार का कोई अस्तित्व शेष नहीं रह सकता। अहंकार के नष्ट होने पर केवल शरीर द्वारा किये गये कर्मों में यह सार्मथ्य नहीं होती कि वे अंतकरण में नये संस्कारों को उत्पन्न कर सकें।निद्रावस्था में किसी व्यक्ति के विवस्त्र हो जाने पर किसी प्रकार के अशोभनीय व्यवहार का आरोप नहीं किया जा सकता। निद्रा में यदि किसी व्यक्ति का पदाघात उसके अपने पुत्र को लगता है तो उस पर क्रूरता का आरोप भी नहीं हो सकता। क्योंकि उस समय शरीर में मैं नहीं था। इसका कारण है कि दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति में कर्तृत्त्व का अभिमान नहीं था। अत स्पष्ट है कि सभी प्रकार के दुख कष्ट बन्धन आदि केवल कर्तृत्वाभिमानी जीव को ही होते हैं और उसके अभाव में शारीरिक कर्मों में मनुष्य को बांधने की क्षमता नहीं होती है।आत्मानुभवी सन्त पुरुष के कर्म उसे स्पर्श तक नहीं कर सकते क्योंकि वह उनका कर्ता ही नहीं है कर्म केवल उसके द्वारा व्यक्त होते हैं। ऐसा महान् पुरुष कर्मों का कर्त्ता नहीं वरन् ईश्वर की इच्छा को व्यक्त करने का सर्वोत्तम करण अथवा माध्यम है।यदि वीणा से मधुर संगीत व्यक्त नहीं हो रहा हो तो श्रोतागण उस वाद्य पर आक्रमण नहीं करते यद्यपि वीणा वादक भी सुरक्षित नहीं रह सकता है वीणा अपने आप मधुर ध्वनि को उत्पन्न नहीं करती परन्तु वादक की उंगलियों के स्पर्शमात्र से अपने में से संगीत को व्यक्त होने देती है। वादक की इच्छा और स्पर्श के अनुसार झुक जाने भर से उसका कर्त्तव्य समाप्त हो जाता है। अहंकार से रहित आत्मज्ञानी पुरुष भी वह श्रेष्ठतम माध्यम है जिसके द्वारा ईश्वर की इच्छा पूर्णरूप से प्रगट होती है। ऐसे पुरुष के कर्म उसके लिए पाप और पुण्य रूप बन्धन नहीं उत्पन्न कर सकते वह तो केवल माध्यम है।ज्ञानयोग में स्थित शरीर धारण के लिये आवश्यक कर्म करता हुआ पुरुष नित्य मुक्त ही है। भगवान् कहते हैं
।।4.21।।वह केवल शरीरयात्राके लिये चेष्टा करनेवाला ज्ञाननिष्ठ यति इस लोक और परलोकके समस्त इच्छित भोगोंको आशासे रहित होनेके कारण इस लोक और परलोकके भोगरूप फल देनेवाले कर्मोंमें अपना कोई भी प्रयोजन न देखकर कर्मोंको और कर्मोंके साधनोंको त्यागकर मुक्त हो जाता है। इसी भावको दिखलानेके लिये ( अगला श्लोक ) कहते हैं जिसकी सम्पूर्ण आशाएँ दूर हो गयी हैं वह निराशीः है जिसने चित्त यानी अन्तःकरणको और आत्मा यानी बाह्य कार्यकरणके संघातरूप शरीरको इन दोनोंको भलीप्रकार अपने वशमें कर लिया है वह यतचित्तात्मा कहलाता है जिसने समस्त परिग्रहका अर्थात् भोगोंकी सामग्रीका सर्वथा त्याग कर दिया है वह त्यक्तसर्वपरिग्रह है। ऐसा पुरुष केवल शरीरस्थितिमात्रके लिये किये जानेवाले और अभिमानरहित कर्मोंको करता हुआ पापकोअर्थात् अनिष्टरूप पुण्य पाप दोनोंको नहीं प्राप्त होता। बन्धनकारक होनेसे धर्म भी मुमुक्षुके लिये तो पाप ही है। यहाँ शारीरं केवलं कर्म इस पदमें शरीरद्वारा होनेवाले कर्म शारीरिक कर्म माने गये हैं या शरीरनिर्वाहमात्रके लिये जानेवाले कर्म शारीरिक कर्म माने गये हैं चाहे शरीरद्वारा होनेवाले कर्म शारीरिक कर्म माने जायँ या शरीरनिर्वाहमात्रके लिये किये जानेवाले कर्म शारीरिक कर्म माने जायँ इस विवेचनसे क्या प्रयोजन है इसपर कहते हैं जो शरीरद्वारा होनेवाले कर्मोंका नाम शारीरिक कर्म मान लिया जाय तो इस लोकमें या परलोकमें फल देनेवाले निषिद्ध कर्मोंको भी शरीरद्वारा करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता ऐसा कहनेसे भगवान्के कथनमें विरुद्ध विधानका दोष आता है। और इस लोक या परलोकमें फल देनेवाले शास्त्रविहित कर्मोंको शरीरद्वारा करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता ऐसा कहनेसे भी बिना प्राप्त हुए दोषके प्रतिषेध करनेका प्रसङ्ग आ जाता है। तथा शारीरिक कर्म करता हुआ इस विशेषणसे और केवल शब्दके प्रयोगसे ( उपर्युक्त मान्यताके अनुसार ) भगवान्का यह कहना हो जाता है कि ( शरीरके सिवा ) मनवाणीद्वारा किये जानेवाले विहित और प्रतिषिद्ध कर्मोंको जो कि धर्म और अधर्म नामसे कहे जाते हैं करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त होता है। उसमें भी मनवाणीद्वारा विहित कर्मोंको करता हुआ पापको प्राप्त होता है यह कहना तो विरुद्ध विधान होगा और निषिद्ध कर्मोंको करता हुआ पापको प्राप्त होता है यह कहना अनुवादमात्र होनेसे व्यर्थ होगा। परंतु जब शरीरनिर्वाहमात्रके लिये किये जानेवाले कर्म शारीरिक कर्म मान लिये जायँगे तब इसका यह अर्थ हो जायगा कि इस लोक या परलोकके भोग ही जिनका प्रयोजन है जो विधिनिषेधात्मक शास्त्रोंद्वारा जाने जाते हैं जो शरीर मन या वाणीद्वारा किये जाते हैं ऐसे अन्य कर्मोंको न करता हुआ उन शरीर मन या वाणीसे केवल शरीरनिर्वाहके लिये आवश्यक कर्म लोकदृष्टिसे करता हुआ पुरुष किल्बिषको प्राप्त नहीं होता। यहाँ केवल शब्दके प्रयोगसे यह अभिप्राय है कि वह मैं करता हूँ इस अभिमानसे रहित होकर केवल लोकदृष्टिसे ही शरीर वाणी आदिकी चेष्टामात्र करता है। ऐसे पुरुषको पापरूप किल्बिष प्राप्त होना तो असम्भव है इसलिये यहाँ यह समझना चाहिये कि वह किल्बिषको यानी संसारको प्राप्त नहीं होता। ज्ञानरूप अग्निद्वारा उसके समस्त कर्मोंका नाश हो जानेके कारण वह बिना किसी प्रतिबन्धके मुक्त ही हो जाता है। यह पहले कहे हुए यथार्थ आत्मज्ञानके फलका अनुवादमात्र है। शारीरं केवलं कर्म इस वाक्यका इस प्रकार अर्थ मान लेनेसे वह अर्थ निर्दोष सिद्ध होता है।
।।4.21।।कामादित्यागोपायमाह निराशीरिति। यतचित्तात्मा भूत्वा निराशीरित्यर्थः। आत्मा मनः। परिग्रहत्यागोऽनभिमानम्।नैव किञ्चित्करोति 4।20 इत्यस्याभिप्रायमाह नाप्नोति किल्बिषमिति।
।।4.21।।निराशीः निर्गतफलाभिसन्धिः यतचित्तात्मा यतचित्तमनाः त्यक्तसर्वपरिग्रहः आत्मैकप्रयोजनतया प्रकृतिप्राकृतवस्तुनि ममतारहितो यावज्जीवं केवलं शारीरम् एव कर्म कुर्वन् किल्बिषं संसारं न आप्नोति। ज्ञाननिष्ठाव्यवधानरहितकेवलकर्मयोगेन एवं रूपेण आत्मानं पश्यति इत्यर्थः।