यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।4.22।। जो (कर्मयोगी) फल की इच्छा के बिना, अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईर्ष्यासे रहित, द्वन्द्वोंसे अतीत तथा सिद्धि और असिद्धिमें सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।
।।4.22।। यदृच्छया (अपने आप) जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही सन्तुष्ट रहने वाला, द्वन्द्वों से अतीत तथा मत्सर से रहित, सिद्धि व असिद्धि में समभाव वाला पुरुष कर्म करके भी नहीं बन्धता है।।
।।4.22।।त्यक्तसर्वपरिग्रहस्य यतेः शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं कर्माभ्यनुज्ञातं तत्रान्नाच्छादनादिव्यतिरेकेणशरीरस्थितेरसंभवाद्याञ्चादिनापि स्वप्रयत्नेनान्नादिकं संपाद्यमिति प्राप्ते नियमायाह शास्त्राननुमतप्रयत्नव्यतिरेको यदृच्छा तयैव यो लाभोऽन्नाच्छादनादेः शास्त्रानुमतस्य स यदृच्छालाभस्तेन संतुष्टस्तदधिकतृष्णारहितः। तथाच शास्त्रंभैक्षं चरेत् इति प्रकृत्यअयाचितसंक्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया इति याञ्चासंकल्पादिप्रयत्नं वारयति। मनुरपिनचोत्पातनिमित्ताभ्यां न नक्षत्राङ्गविद्यया। नानुशासनवादाभ्यां भिक्षां लिप्सेत कर्हिचित्।। इति। यतयो भिक्षार्थं ग्रामं विशन्तीत्यादिशास्त्रानुमतस्तु प्रयत्नः कर्तव्य एव। एवं लब्धव्यमपि शास्त्रनियतमेवकौपीनयुगलं वासः कन्थां शीतनिवारिणीम्। पादुके चापि गृह्णीयात्कुर्यान्नान्यस्य संग्रहम्।। इत्यादि। एवमन्यदपि विधिनिषेधरूपं शास्त्रमूह्यम्। ननु स्वप्रयत्नमन्तरेणालाभे शीतोष्णादिपीडितः कथं जीवेदतआह द्वन्द्वातीतः द्वन्द्वानि क्षुत्पिपासाशीतोष्णवर्षादीनि अतीतोऽतिक्रान्तः समाधिदशायां तेषामस्फुरणात्। व्युत्थानदशायां स्फुरणेऽपि परमानन्दाद्वितीयाकर्त्रभोक्त्रात्मप्रत्ययेन बाधात् तैऽर्द्वन्द्वैरुपहन्यमानोऽप्यक्षुभितचित्तः। अतएव परस्य लाभे स्वस्यालाभे च विमत्सरः। परोत्कर्षासहनपूर्विका स्वोत्कर्षवाञ्छा मत्सरस्तद्रहितोऽद्वितीयात्मदर्शनेन निर्वैरबुद्धिः। अतएव समस्तुल्यो यदृच्छालाभस्य सिद्धावसिद्धौ च सिद्धौ न हृष्टः नाप्यसिद्धौ विषण्णः स स्वानुभवेनाकर्तैव परैरारोपितकर्तृत्वः शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं भिक्षाटनादिरूपं कर्म कृत्वापि न निबध्यते बन्धहेतोः सहेतुकस्य कर्मणो ज्ञानाग्निना दग्धत्वादिति पूर्वोक्तानुवादः।
।।4.22)यदृच्छालाभसंतुष्टः अप्रार्थितोपनतो लाभो यदृच्छालाभः तेन संतुष्टः संजातालंप्रत्ययः। द्वन्द्वातीतः द्वन्द्वैः शीतोष्णादिभिः हन्यमानोऽपि अविषण्णचित्तः द्वन्द्वातीतः उच्यते। विमत्सरः विगतमत्सरः निर्वैरबुद्धिः समः तुल्यः यदृच्छालाभस्य सिद्धौ असिद्धौ च। यः एवंभूतो यतिः अन्नादेः शरीरस्थितिहेतोः लाभालाभयोः समः हर्षविषादवर्जितः कर्मादौ अकर्मादिदर्शी यथाभूतात्मदर्शननिष्ठः सन् शरीरस्थितिमात्रप्रयोजने भिक्षाटनादिकर्मणि शरीरादिनिर्वर्त्ये नैव किञ्चित् करोम्यहम् गुणा गुणेषु वर्तन्ते (गीता 3.28) इत्येवं सदा संपरिचक्षाणः आत्मनः कर्तृत्वाभावं पश्यन्नैव किञ्चित् भिक्षाटनादिकं कर्म करोति लोकव्यवहारसामान्यदर्शनेन तु लौकिकैः आरोपितकर्तृत्वे भिक्षाटनादौ कर्मणि कर्ता भवति। स्वानुभवेन तु शास्त्रप्रमाणादिजनितेन अकर्तैव। स एवं पराध्यारोपितकर्तृत्वः शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं भिक्षाटनादिकं कर्म कृत्वापि न निबध्यते बन्धहेतोः कर्मणः सहेतुकस्य ज्ञानाग्निना दग्धत्वात् इति उक्तानुवाद एव एषः।।
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम् (गीता 4.20) इत्यनेन श्लोकेन यः प्रारब्धकर्मा सन् यदा निष्क्रियब्रह्मात्मदर्शनसंपन्नः स्यात् तदा तस्य आत्मनः कर्तृकर्मप्रयोजनाभावदर्शिनः कर्मपरित्यागे प्राप्ते कुतश्चिन्निमित्तात् तदसंभवे सति पूर्ववत् तस्मिन् कर्मणि अभिप्रवृत्तस्य अपि नैव किञ्चित् करोति सः इति कर्माभावः प्रदर्शितः। यस्य एवं कर्माभावो दर्शितः तस्यैव
।।4.22।। अहंकार से परे आत्मस्वरूप में स्थित पुरुष इच्छा तथा फलासक्ति से प्रेरित होकर कर्म नहीं करता। कर्मों को करने से प्राप्त फल से ही वह सन्तुष्ट रहता है। अहंकाररहित अवस्था का अर्थ है अन्तकरण पर पूर्ण संयम। स्वभाविक ही शीतउष्ण सिद्धिअसिद्धि सुखदुख इत्यादि द्वन्द्वात्मक अनुभव उसे व्यथित नहीं कर सकते क्योंकि वे सब मन की बाह्यजगत् के साथ होने वाली प्रतिक्रियायें मात्र हैं।मन के प्रभावहीन होने पर बुद्धि अपने पूर्वाग्रह ईर्ष्या और मत्सर आदि से ज्ञानी पुरुष को प्रभावित नहीं कर सकती। सामान्यत सिद्धि में हमें हर्षातिरेक और असिद्धि में अत्यन्त विषाद होता है। परन्तु जब अविद्याजनित अहंकार पूर्णरूप से दैवी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है तब वह पुरुष सफलता और असफलता में समान भाव से स्थित रहता है। ऐसा ज्ञानी पुरुष कर्म करके भी कर्मफलों से नहीं बंधता।जब आत्मज्ञानी पुरुष हमारे मध्य रहता हुआ कर्म करता है तब उसका व्यवहार सामान्य जनों के समान ही प्रतीत होता है तथापि उसके कर्मों में एक विशेष शक्ति और प्रभाव दिखाई पड़ता है जो उसे कर्मक्षेत्र में सामान्य से कहीं अधिक सफलता प्रदान करता है। श्रीकृष्ण के कथनानुसार ऐसे पुरुष को कर्मों का बंधन नहीं होता। सामान्य जनों को ज्ञानी पुरुष की इस उपलब्धि को समझने में कठिनाई होती है।जिस दैवी प्रेरणा एवं भावना से ज्ञानी पुरुष जगत् में कर्म करता है उसका वर्णन भगवान् अगले श्लोकों में करते हैं
।।4.22।।जिसने समस्त संग्रहका त्याग कर दिया है ऐसे संन्यासीके पास शरीरनिर्वाहके कारणरूप अन्नादिका संग्रह नहीं होता इसलिये उसको याचनादिद्वारा शरीरनिर्वाह करनेकी योग्यता प्राप्त हुई। इसपर बिना याचना किये बिना संकल्पके अथवा बिना इच्छा किये प्राप्त हुए इत्यादि वचनोंसे जो शास्त्रमें संन्यासीके शरीरनिर्वाहके लिये अन्नादिकी प्राप्तिके द्वार बतलाये गये हैं उनको प्रकट करते हुए कहते हैं जो बिना माँगे अपनेआप मिले हुए पदार्थसे संतुष्ट है अर्थात् उसीमें जिसके मनका यह भाव हो जाता है कियही पर्याप्त है जो द्वन्द्वोंसे अतीत है अर्थात् शीतउष्ण आदि द्वन्द्वोंसे सताये जानेपर भी जिसके चित्तमें विषाद नहीं होता जो ईर्ष्यासे रहित अर्थात् निर्वैरबुद्धिवाला है और जो अपनेआप प्राप्त हुए लाभकी सिद्धिअसिद्धिमें भी सम रहता है जो ऐसा शरीरस्थितिके हेतुरूप अन्नादिके प्राप्त होने या न होनेमें भी हर्षशोकसे रहित समदर्शी है और कर्मादिमें अकर्मादि देखनेवाला यथार्थ आत्मदर्शननिष्ठ एवं शरीरस्थितिमात्रके लिये किये जानेवाले और शरीरादिद्वारा होनेवाले भिक्षाटनादि कर्मोंमें भी मैं कुछ नहीं करता गुण ही गुणोंमें बर्त रहे हैं इस प्रकार सदा देखनेवाला है वह यति अपनेमें कर्तापनका अभाव देखनेसे अर्थात् आत्माको अकर्ता समझ लेनेसे वास्तवमें भिक्षाटनादि कुछ भी कर्म नहीं करता है। ऐसा पुरुष लोकव्यवहारकी साधारण दृष्टिसे तो सांसारिक पुरुषोंद्वारा आरोपित किये हुए कर्तापनके कारण भिक्षाटनादि कर्मोंका कर्ता होता है। परंतु शास्त्रप्रमाण आदिसे उत्पन्न अपने अनुभवसे ( वस्तुतः ) वह अकर्ता ही रहता है। इस प्रकार दूसरोंद्वारा जिसपर कर्तापनका अध्यारोप किया गया है ऐसा वह पुरुष शरीरनिर्वाहमात्रके लिये किये जानेवाले भिक्षाटनादि कर्मोंको करता हुआ भी नहीं बँधता क्योंकि ज्ञानरूप अग्निद्वारा उसके ( समस्त ) बन्धनकारक कर्म हेतुसहित भस्म हो चुके हैं। यह पहले कहे हुएका ही अनुवादमात्र है।
।।4.22।।यतचित्तात्मनो लक्षणमाह यदृच्छालाभेति। कथं द्वन्द्वातीतत्वं इति आह समः सिद्धाविति।
।।4.22।।यदृच्छोपनतशरीरधारणहेतुवस्तुसन्तुष्टः द्वन्द्वातीतः यावत्साधनसमाप्त्यवर्जनीयशीतोष्णादिसहः विमत्सरः अनिष्टोपनिपातहेतुभूतस्वकर्मनिरूपेण परेषु विगतमत्सरः समः सिद्धौ असिद्धौ च युद्वादिकर्मसु जयादिसिद्ध्यसिद्ध्योः समचित्तः कर्म एव कृत्वा अपि ज्ञाननिष्ठां विना अपि न निबध्यते न संसारं प्रतिपद्यते।