श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।4.23।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।4.23।। जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूपके ज्ञानमें स्थित है, ऐसे केवल यज्ञके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।4.23।। जो आसक्तिरहित और मुक्त है,  जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है,  यज्ञ के लिये आचरण करने वाले ऐसे पुरुष के समस्त कर्म लीन हो जाते हैं।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।4.23।।त्यक्तसर्वपरिग्रहस्य यदृच्छालाभसंतुष्टस्य यतेर्यच्छरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं भिक्षाटनादिरूपं कर्म तत्कृत्वा न निबध्यत इत्युक्तेर्गृहस्थस्य ब्रह्मविदो जनकादेर्यंज्ञादिरूपं यत्कर्म तद् बन्धहेतुः स्यादिति भवेत्कस्यचिदाशङ्का तामपनेतुं त्यक्त्वा कर्मफलासङमित्यादिनोक्तं विवृणोति गतसङ्गस्य फलासङ्गशून्यस्य मुक्तस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यध्यासशून्यस्य ज्ञानावस्थितचेतसः निर्विकल्पब्रह्मात्मैक्यबोध एव स्थितं चित्तं यस्य तस्य स्थितप्रज्ञस्येत्यर्थः। उत्तरोत्तरविशेषणस्य पूर्वपूर्वहेतुत्वेनान्वयो द्रष्टव्यः। गतसङगत्वं कुतः। यतोऽध्यासहीनत्वम् तत्कुतः। यतः स्थितप्रज्ञत्वमिति ईदृशस्यापि प्रारब्धकर्मवशात् यज्ञाय यज्ञसंरक्षणार्थं ज्योतिष्टोमादियज्ञे श्रेष्ठाचारत्वेन लोकप्रवृत्त्यर्थं यज्ञाय विष्णवे तत्प्रीत्यर्थमिति वा। आचरतः कर्म यज्ञदानादिकं समग्रं सहाग्रेण फलेन विद्यत इति समग्रं प्रविलीयते प्रकर्षेण कारणोच्छेदेन तत्त्वदर्शनाद्विलीयते। विनश्यतीत्यर्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।4.23।। गतसङ्गस्य सर्वतोनिवृत्तासक्तेः मुक्तस्य निवृत्तधर्माधर्मादिबन्धनस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ज्ञाने एव अवस्थितं चेतः यस्य सोऽयं ज्ञानावस्थितचेताः तस्य यज्ञाय यज्ञनिर्वृत्त्यर्थम् आचरतः निर्वर्तयतः कर्म समग्रं सह अग्रेण फलेन वर्तते इति समग्रं कर्म तत् समग्रं प्रविलीयते विनश्यति इत्यर्थः।।कस्मात् पुनः कारणात् क्रियमाणं कर्म स्वकार्यारम्भम् अकुर्वत् समग्रं प्रविलीयते इत्युच्यते यतः

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।4.23।। इस श्लोक में ज्ञानी पुरुष के लक्षणों का वर्णन करके जिस क्रम में उसके गुणों को बताया गया है वह स्वयं साधना मार्ग की ओर संकेत करता है। उपदेश को सूत्ररूप में वर्णन करने की सभी शास्त्रीय ग्रन्थों की एक विशेष शैली होती है। उसमें भी प्रतीक शब्दों के चयन के प्रति शास्त्रज्ञ अधिक सजग रहते हैं और उन शब्दों को एक विशेष क्रम देने में भी उन्हें आनन्द का अनुभव होता है। विचाराधीन श्लोक इसका एक उदाहरण है।गतसंगस्य जिस दैवी स्वरूप को ऋषियों ने प्राप्त किया वह कोई अज्ञात स्थल से प्राप्त की हुई नवीन उपलब्धि नहीं थी। यह पूर्णत्व तो सबका स्वयं सिद्ध स्वरूप ही है जिसे उन्होंने केवल पहचाना। बाह्य विषयों के साथ आसक्ति के कारण हमने अपने आपको स्वस्वरूप के राज्य के बाहर निष्कासित कर लिया है। ज्ञानी पुरुष वह है जो परिच्छिन्न जगत् की आसक्ति से पूर्णतया मुक्त है।मुक्तस्य अधिकांश साधकों को मुक्ति के संबंध में स्पष्ट ज्ञान नहीं होता। हम अपने आप ही अपने लिये बंधन उत्पन्न कर लेते हैं। अनेक प्रकार के बन्धनों का कारण है विषयों के साथ हमारी आसक्ति। विषयोपभोग में ही यह जीव सुखसन्तोष का अनुभव करता है। यही कारण है कि वह उसमें आसक्त हो जाता है। इस प्रकार शरीर मन और बुद्धि की दृष्टि से वह क्रमश बाह्य विषयों भावनाओं एवं विचारों के साथ बंध जाता है। ज्ञानी पुरुष इन सबसे मुक्त होता है।ज्ञानावस्थितचेतस नित्यानित्यवस्तु के विवेक के द्वारा नित्य स्वरूप को पहचान कर उसमें प्राप्त की हुई स्थिति के द्वारा ही विषयासक्ति के बंधन से मुक्ति हो सकती है।विवेकजनित विज्ञान के प्रकाश में अविद्या से उत्पन्न आसक्ति के नष्ट होने पर वह पूर्णत्व प्राप्त पुरुष वैषयिक प्रवृत्ति और अनैतिकता की शृंखलाओं से मुक्त हो जाता है। ऐसा पुरुष यज्ञ की अर्थात् निस्वार्थ सेवा और अर्पण की भावना से जीवन पर्यन्त कर्म करता रहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के सब कर्म लीन हो जाते हैं। अर्थात् वे नई वासनाएँ नहीं उत्पन्न करते।वेदों में प्रयुक्त यज्ञ शब्द को लेकर भगवान् श्रीकृष्ण ने यहाँ उसके अर्थ को और अधिक व्यापक रूप दिया है जिससे सम्पूर्ण विश्व में उसकी उपादेयता सिद्ध हो सके। केवल यज्ञयागादि ही नहीं बल्कि वे सब कर्म जो अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित न होकर सेवाभाव पूर्वक किये गये हों यज्ञ कर्म में ही समाविष्ट हैं।आगे के 6 श्लोकों में लगभग 12 प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया गया है जिसका आचरण प्रत्येक व्यक्ति सर्वत्र सभी परिस्थितियों में और अपने कार्यक्षेत्र में कर सकता है।क्या कारण है कि ज्ञानी पुरुष के कर्म प्रतिक्रया उत्पन्न किये बिना लीन हो जाते हैं इसका कारण बताते हुए कहते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।4.23।।जो कर्म करना प्रारम्भ कर चुका है ऐसा पुरुष जब कर्म करतेकरते इस ज्ञानसे सम्पन्न हो जाता है कि निष्क्रिय ब्रह्म ही आत्मा है तब अपने कर्ता कर्म और प्रयोजनादिका अभाव देखनेवाले उस पुरुषके लिये कर्मोंका त्याग कर देना ही उचित होता है। किंतु किसी कारणवश कर्मोंका त्याग करना असम्भव होनेपर यदि वह पहलेकी तरह उन कर्मोंमें लगा रहे तो भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता। इस प्रकार त्यक्त्वा कर्मंफलासङ्गम् इस श्लोकसे ( ज्ञानीके ) कर्मोंका अभाव ( अकर्मत्व ) दिखलाया जा चुका है। जिस पुरुषके कर्मोंका इस प्रकार अभाव दिखाया गया है उसीके ( विषयमें अगला श्लोक कहते हैं ) जिस पुरुषकी सब ओरसे आसक्ति निवृत्त हो चुकी है जिसके पुण्यपापरूप बन्धन छूट गये हैं जिसका चित्त निरन्तर ज्ञानमें ही स्थित है ऐसे केवल यज्ञसम्पादनके लिये ही कर्मोंका आचरण करनेवाले उस सङ्गहीन मुक्त और ज्ञानावस्थितचित्त पुरुषके समग्र कर्म विलीन हो जाते हैं। अग्र शब्द फलका वाचक है। उसके सहित कर्मोंको समग्र कर्म कहते हैं अतः यह अभिप्राय हुआ कि उसके फलसहित समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।4.23।।उपसंहरति गतसङ्गस्येति। गतसङ्गस्य फलस्नेहरहितस्य मुक्तस्य शरीराद्यनभिमानिनः। ज्ञानावस्थितचेतसः परमेश्वरज्ञानिनः।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।4.23।।आत्मविषयज्ञानावस्थितमनस्त्वेन विगततदितरसङ्गस्य तत एव निखिलपरिग्रहविनिर्मुक्तस्य उक्तलक्षणयज्ञादिकर्मनिर्वृत्तये वर्तमानस्य पुरुषस्य बन्धहेतुभूतं प्राचीनं कर्म समग्रं प्रविलीयते निःशेषं क्षीयते।प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपानुसन्धानयुक्ततया कर्मणो ज्ञानाकारत्वम् उक्तम्। इदानीं सर्वस्य सपरिकरस्य कर्मणः परब्रह्मभूतपरमपुरुषात्मकत्वानुसन्धानयुक्ततया ज्ञानाकारत्वम् आह

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

4.23 Gatasangasya etc. For sacrifice (yajnaya) : The singular number is to be construed with the class [yajnatva]. [Hence the meaning is] : 'The sacrifice' that are being defined in the seel. It has been said 'for the sake of sacrifice etc.' Now their general nature, [the Lord] describes :

English Translation by Shri Purohit Swami

4.23 He who is without attachment, free, his mind centered in wisdom, his actions, being done as a sacrifice, leave no trace behind.

English Translation By Swami Sivananda

4.23 To one who is devoid of attchment, who is liberated, whose mind is established in knowledge, who works for the sake of sacrifice (for the sake of God), the whole action is dissolved.