श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।

ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।4.25।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।4.25।। अन्य योगीलोग भगवदर्पणरूप यज्ञका ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगीलोग ब्रह्मरूप अग्निमें विचाररूप यज्ञके द्वारा ही जीवात्मारूप यज्ञका हवन करते हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।4.25।। कोई योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही करते हैं ; और दूसरे (ज्ञानीजन) ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करते हैं।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।4.25।।अधुना सम्यग्दर्शनस्य यज्ञरूपत्वेन स्तावकतया ब्रह्मार्पणमन्त्रे स्थिते पुनरपि तस्य स्तुत्यर्थमितरान्यज्ञानुपन्यस्यति देवा इन्द्राग्नायादय इज्यन्ते येन स दैवस्तमेव यज्ञं दर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादिरूपमपरे योगिनः कर्मिणः पर्युपासते सर्वदा कुर्वन्ति न ज्ञानयज्ञम्। एवं कर्मयज्ञमुक्त्वाऽन्तःकरणशुद्धिद्वारेण तत्फलभूतं ज्ञानयज्ञमाह ब्रह्माग्नौ सत्यज्ञानानन्तानन्दरूपं निरस्तसमस्तविशेषं ब्रह्म तत्पदार्थस्तस्मिन्नग्नौ यज्ञं प्रत्यगात्मानं त्वंपदार्थं यज्ञेनैव। यज्ञशब्द आत्मनामसु यास्केन पठितः। इत्थंभूतलक्षणे तृतीया। एवकारो भेदाभेदव्यावृत्त्यर्थः। त्वंपदार्थाभेदेनैवोपजुह्वति तत्स्वरूपतया पश्यन्तीत्यर्थः। अपरे पूर्वविलक्षणास्तत्त्वदर्शननिष्ठाः संन्यासिन इत्यर्थः। जीवब्रह्माभेददर्शनं यज्ञत्वेन संपाद्य तत्साधनयज्ञमध्ये पठ्यतेश्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ इत्यादिना स्तोतुम्।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।4.25)दैवमेव देवा इज्यन्ते येन यज्ञेन असौ दैवो यज्ञः तमेव अपरे यज्ञं योगिनः कर्मिणः पर्युपासते कुर्वन्तीत्यर्थः। ब्रह्माग्नौ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तैत्ति0 उ0 2.1) विज्ञानमानन्दं ब्रह्म (बृह0 उ0 3.9.22) यत् साक्षादपरोक्षात् ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः (बृह0 उ0 3.4.1) इत्यादिवचनोक्तम् अशनायादिसर्वसंसारधर्मवर्जितम् नेति नेति इति निरस्ताशेषविशेषं ब्रह्मशब्देन उच्यते। ब्रह्म च तत् अग्निश्च सः होमाधिकरणत्वविवक्षया ब्रह्माग्निः। तस्मिन् ब्रह्माग्नौ अपरे अन्ये ब्रह्मविदः यज्ञम् यज्ञशब्दवाच्य आत्मा आत्मनामसु यज्ञशब्दस्य पाठात् तम् आत्मानं यज्ञं परमार्थतः परमेव ब्रह्म सन्तं बुद्ध्याद्युपाधिसंयुक्तम् अध्यस्तसर्वोपाधिधर्मकम् आहुतिरूपं यज्ञेनैव आत्मनैव उक्तलक्षणेन उपजुह्वति प्रक्षिपन्ति सोपाधिकस्य आत्मनः निरुपाधिकेन परब्रह्मस्वरूपेणैव यद्दर्शनं स तस्मिन् होमः तं कुर्वन्ति ब्रह्मात्मैकत्वदर्शननिष्ठाः संन्यासिनः इत्यर्थः।।

सोऽयं सम्यग्दर्शनलक्षणः यज्ञः दैवयज्ञादिषु यज्ञेषु उपक्षिप्यते ब्रह्मार्पणम् इत्यादिश्लोकैः प्रस्तुतः श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परंतप (गीता 4.33) इत्यादिना स्तुत्यर्थम्

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।4.25।। जगत् में कार्य करते हुए ज्ञानी पुरुष के हृदय के भाव को ही कुछ श्लोकों में बताया गया है। साधक के मन में एक शंका सदैव उठती है कि ध्यानावस्था में बुद्धि से भी परे अर्थात् उसकी द्रष्टा आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है परन्तु कुछ काल के लिये ही। गौतम बुद्ध जैसे कुछ महापुरुषों को हम कार्य में अत्याधिक व्यस्त देखते हैं जबकि कोई महात्मा एक स्थान पर ही रहकर अपने सीमित क्षेत्र में कार्य करते देखे जाते हैं जैसे भगवान् रमण महर्षि। कुछ अन्य सन्त सामान्य जीवन ही व्यतीत करते हैं। साधक को यह जानने की उत्सुकता रहती है कि जगत् में अनेक वस्तुओं के सम्पर्क में आने पर ज्ञानी पुरुष के मन की क्या भावना होती है।जो पुरुष सभी उपलब्ध साधनों के उपयोग से अपने आपको शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक अपूर्णताओं दुर्बलताओं से ऊँचा उठाने का सतत् प्रयत्न करता है वह योगी कहलाता है। इस दृष्टि से इस श्लोक के केवल सामान्य अर्थ को ही ग्रहण करना उचित नहीं होगा।जो प्रकाशरूप है उसे कहते हैं देव। अध्यात्म की दृष्टि से ये देव पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन इन्द्रियों के द्वारा शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध ये पाँच विषय प्रकाशित किये जाते हैं। साधक तथा सिद्ध पुरुष भी इन्द्रियों के माध्यम से ही विषय ग्रहण करते हैं परन्तु उनकी दृष्टि में यह भी एक यज्ञ है जिसमें विषयों की आहुतियाँ इन्द्रियरूप देवों को दी जारही हैं। अज्ञानी के लिये जो विषयग्रहण की क्रिया मात्र है वही ज्ञानियों की दृष्टि से विषयों की इन्द्रियों के प्रति भक्ति की साधना है।यज्ञ की भावना बनाये रखने से साधक को धीरेधीरे उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट सभी प्रकार के इन्द्रियोपभोगों से वैराग्य हो जाता है जो आन्तरिक समता बनाये रखने में सहायक होता है।देवयज्ञ के वर्णन के बाद श्रीकृष्ण कहते हैं अन्य लोग ब्रह्मयज्ञ करते हैं जिसमें ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ (आत्मा) के द्वारा यज्ञ का (आत्मा का) हवन करते हैं। अध्यात्म की दृष्टि से विचार करने पर इस कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जब तक हम शरीर धारण किये हुए इस जगत् में रहते हैं तब तक विषयों के साथ हमारा सम्पर्क अवश्य रहता है। परन्तु हमें जो सुखदुख का अनुभव होता है वह बाह्य जगत् के कारण नहीं वरन् हमारे विषयों के प्रति रागद्वेष के कारण होता है। विषयों में स्वयं सुख या दुख देने की क्षमता नहीं है।ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि इन्द्रियाँ विषय ग्रहण की साधन मात्र हैं और वे केवल चैतन्य आत्मा के सानिध्य से ही कार्य कर सकती हैं। इस ज्ञान के कारण वे इन्द्रियों की ब्रह्मज्ञान की अग्नि में स्वयं ही आहुति देते हैं। यहाँ साधकों को उपदेश हैं कि वे अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का उपयोग स्वार्थ के लिये न करके जगत् की सेवार्थ करें इससे वे जगत् में रहकर कार्य करते हुए भी विषयासक्ति के बन्धन में नहीं पड़ सकते।अगले श्लोक में भगवान् दो प्रकार के यज्ञ बताते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।4.25।।उपर्युक्त श्लोकमें यथार्थ ज्ञानको यज्ञरूपसे सम्पादन करके अब उसकी स्तुति करनेके लिये दैवम् एव इत्यादि श्लोकोंसे दूसरेदूसरे यज्ञोंका भी उल्लेख किया जाता है जिस यज्ञके द्वारा देवोंका पूजन किया जाता है वह देवसम्बन्धी यज्ञ है अन्य ( कितने ही ) योगी अर्थात् कर्म करनेवाले लोग उस दैवयज्ञका ही अनुष्ठान किया करते हैं। अन्य ( ब्रह्मवेत्ता पुरुष ) ब्रह्माग्निमें ( हवन करते हैं ) अर्थात् ब्रह्म सत्यज्ञानअनन्तस्वरूप है विज्ञान और आनन्द ही ब्रह्म है जो साक्षात् अपरोक्ष ( प्रत्यक्ष ) है वह ब्रह्म है जो सर्वान्तर आत्मा है वह ब्रह्म है इत्यादि वचनोंसे जिसका वर्णन किया गया है जो भूखप्यास आदि समस्त सांसारिक धर्मोंसे रहित है जो ऐसा नहीं ऐसा नहीं इस प्रकार वेदवाक्योंद्वारा सब विशेषणोंसे परे बतलाया गया है वह ब्रह्म शब्दसे कहा जाता है। हवनका अधिकरण बतलानेके लिये उस ब्रह्मको ही यहाँ अग्नि कह दिया है। उस ब्रह्मरूप अग्निमें कितने ही ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी यज्ञद्वारा यज्ञको हवन करते हैं। आत्माके नामोंमें यज्ञ शब्दका पाठ होनेसे आत्माका नाम यज्ञ है जो कि वास्तवमें परब्रह्म ही है परंतु बुद्धि आदि उपाधियोंसे युक्त हुआ उपाधियोंके धर्मोंको अपनेमें मान रहा है। उस आहुतिरूप आत्माको उपर्युक्त आत्माद्वारा ही हवन करते हैं। सारांश यह कि उपाधियुक्त आत्माको जो उपाधिरहित परब्रह्मरूपसे साक्षात् करना है वही उसका उसमें हवन करना है ब्रह्म और आत्माके एकत्वज्ञानमें स्थित हुए वे संन्यासी लोग ऐसा हवन किया करते हैं। श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप इत्यादि श्लोकोंसे स्तुति करनेके लिये यह सम्यग्दर्शनरूप यज्ञ ब्रह्मार्पणम् इत्यादि श्लोकोंद्वारा दैवयज्ञ आदि यज्ञोंमें सम्मिलित किया जाता है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।4.25।।यज्ञभेदानाह दैवमित्यादिना। दैवं भगवन्तम् स एव तेषां यज्ञः। भगवदुपासनं यज्ञमिति क्रियाविशेषण्। नान्यत्तेषामस्ति यतीनां केषाञ्चित्। यज्ञं भगवन्तम्। यज्ञेन यज्ञम् ऋक्सं.8।4।19।6 यजुस्सं.31।16 यज्ञो विष्णुर्देवता इत्यादिश्रुतिः। यज्ञेन प्रसिद्धेनैव यज्ञं प्रति जुह्वतीति सर्वत्र समम्। तं यज्ञं ऋक्सं.8।4।18।2 यजुस्सं.31।9 इत्यादौ। उक्तं चविष्णुं रुद्रेण पशुना ब्रह्मा ज्येष्ठेन सूनुना। अयजन्मानसे यज्ञे पितरं प्रपितामहः इति।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।4.25।।दैवं दैवार्चनरूपं यज्ञम् अपरे कर्मयोगिनः पर्युपासते सेवन्ते तत्र एव निष्ठां कुर्वन्ति इत्यर्थः। अपरे ब्रह्माग्नौ यज्ञं यज्ञेन एव उपजुह्वति। यज्ञं यज्ञरूपं ब्रह्मात्मकम् आज्यादिद्रव्यं यज्ञेन यज्ञसाधनभूतेन स्रुगादिना जुह्वति। अत्र यज्ञशब्दो हविःस्रुगादियज्ञसाधने वर्तते। ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः इति न्यायेन यागहोमयोर्निष्ठां कुर्वन्ति।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

4.25 Daivam etc. the Devas are the sense-organs that are playful. The yajna that stands based on them is nothing but the act of receiving objects of their own. Certain persons are thoroughly devoted only to that yajna, i.e., they gain the gain of their own Self by examining this (yajna) from its root . That is why they are men of Yoga; for, they are absorbed in the Yoga permanently at all stages. Indeed in Yogin the suffix ini, a synonym of matup, here signifies 'perpetual connection'. Further, they (Yogins) pour, as an offering, the self-same yajna, above defined, into the Brhaman-fire that is insatiable i.e. that cannot be satisfied. Thus [the verse] has been interpreted by some. However, the Sage (the author of the Gita) does not violate the context. Hence, that meaning which exists in his heart we shall show : Certain masters of Yoga perform godly sacrifice i.e., sacrifice, consisting of external objects, and intending only deities like Indra etc., of varied forms. Further, with a single conviction that 'It is a Yajna and a thing to be performed', i.e., with no craving for fruit, they offer the same sacrifice, that is being performed, into the Brahman - fire which is insatiable i.e., difficult to satisfy. Thus even those, who perform sacrificial rites with material objects, attain the Supreme Brahman. For, it is going to be declared in the seel : 'All these persons too have understood sacrifice' (IV, 30 below). The Vedic text also [says] : 'The gods offered sacrifice [just] as sacrifice'. (RV, I, 164, 50; TS, III, v, II, 5; etc.)

English Translation by Shri Purohit Swami

4.25 Some sages sacrifice to the Powers; others offer themselves on the alter of the Eternal.

English Translation By Swami Sivananda

4.25 Some Yogies perform sacrifice to the gods alone; while others (who have realised the Self) offer the self as sacrifice by the Self in the fire of Brahman alone.