श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।4.26।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।4.26।। अन्य योगीलोग श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियोंका संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं।
।।4.26।। अन्य (योगीजन) श्रोत्रादिक सब इन्द्रियों को संयमरूप अग्नि में हवन करते हैं, और अन्य (लोग) शब्दादिक विषयों को इन्द्रियरूप अग्नि में हवन करते हैं।।
।।4.26।।तदनेन मुख्यगौणौ द्वौ यज्ञौ दर्शितौ यावद्धि किंचिद्वैदिकं श्रेयःसाधनं तत्सर्वं यज्ञत्वेन संपाद्यते तत्र श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि तानि शब्दादिविषयेभ्यः प्रत्याहृत्यान्ये प्रत्याहारपराः संयमाग्निषु धारणा ध्यानं समाधिरिति त्रयमेकविषयं संयमशब्देनोच्यते। तथाचाह भगवान्तपतञ्जलिःत्रयमेकत्र संयमः इति। तत्र हृत्पुण्डरीकादौ मनसश्चिरकालस्थापनं धारणा। एवमेकत्र धृतस्य चित्तस्य भगवदाकारवृत्तिप्रवाहोऽन्तराऽन्याकारप्रत्ययव्यवहितो ध्यानम्। सर्वथा विजातीयप्रत्ययानन्तरितः सजातीयप्रत्ययप्रवाहः समाधिः। सतु चित्तभूमिभेदेन द्विविधः संप्रज्ञातोऽसंप्रज्ञातश्च। चित्तस्य हि पञ्च भूमयो भवन्ति क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति। तत्र रागद्वेषादिवशाद्विषयेष्वभिनिविष्टं क्षिप्तं तन्द्रादिग्रस्तं मूढं सर्वदा विषयासक्तमपि कदाचिद्ध्याननिष्ठं क्षिप्ताद्विशिष्टतया विक्षिप्तं तत्र क्षिप्तमूढयोः समाधिशङ्कैव नास्ति। विक्षिप्ते तु चेतसि कादाचित्कः समाधिर्विक्षेपप्राधान्याद्योगपक्षे न वर्तते किंतु तीव्रपवनविक्षिप्तप्रदीपवत्स्यमेव नश्यति। एकाग्रं तु एकविषयकधारावाहिकवृत्तिसमर्थं सत्त्वोद्रेकेण तमोगुणकृततन्द्रादिरूपलयाभावादात्माकारवृत्तिः। साच रजोगुणकृतचाञ्चल्यरूपविक्षेपाभावादेकविषयैवेति शुद्धे सत्त्वे भवति चित्तमेकाग्रम् अस्यां भूमौ संप्रज्ञातः समाधिः। तत्र ध्येयाकारा वृत्तिरपि भासते। तस्या अपि निरोधे निरुद्धं चित्तमसंप्रज्ञातसमाधिभूमिः। तदुक्तंतस्या अपि निरोधे सर्ववृत्तिनिरोधान्निर्बीजः समाधिः इति। अयमेव सर्वतो विरक्तस्य समाधिफलमपि सुखमनपेक्षमाणस्य योगिनो दृढभूमिः सन् धर्ममेघ इत्युच्यते। तदुक्तंप्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः इति। अनेन रूपेण संयमानां भेदादग्निष्विति बहुवचनम्। तेषु इन्द्रियाणि जुह्वति धारणाध्यानसमाधिसिद्ध्यर्थं सर्वाणीन्द्रियाणि स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्याहरन्तीतत्यर्थः। तदुक्तं स्वस्वविषयासंप्रयोगे चित्तरूपानुकार एवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः इति। विषयेभ्यो निगृहीतानीन्द्रियाणि चित्तरूपाण्येव भवन्ति। ततश्च विक्षेपाभावाच्चित्तं धारणादिकं निर्वहतीत्यर्थः। तदनेन प्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिरूपं योगाङ्गचतुष्टमुक्तम्। तदेवं समाध्यवस्थायां सर्वेन्द्रियवृत्तिनिरोधो यज्ञत्वेनोक्तः। इदानीं व्युत्थानावस्थायां रागद्वेषराहित्येन विषयभोगो यः सोऽप्यपरो यज्ञ इत्याह शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति। अन्ये व्युत्थितावस्थाः श्रोत्रादिभिरविरुद्धविषयग्रहणं स्पृहाशून्यत्वेनान्यसाधारणं कुर्वन्ति स एव तेषां होमः।
।।4.26।। श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि अन्ये योगिनः संयमाग्निषु। प्रतीन्द्रियं संयमो भिद्यते इति बहुवचनम्। संयमा एव अग्नयः तेषु जुह्वति इन्द्रियसंयममेव कुर्वन्ति इत्यर्थः। शब्दादीन् विषयान् अन्ये इन्द्रियाग्निषु इन्द्रियाण्येव अगन्यः तेषु इन्द्रियाग्निषु जुह्वति श्रोत्रादिभिरविरुद्धविषयग्रहणं होमं मन्यन्ते।।किञ्च
।।4.26।। सुपरिचित वैदिक यज्ञ के रूपक के द्वारा यहां सब यज्ञों अर्थात् साधनाओं का निरूपण अर्जुन के लिये किया गया है। यज्ञ विधि में देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करने के लिये अग्नि में आहुतियाँ दी जाती थीं। इस रूपक के द्वारा यह दर्शाया गया है कि इस विधि में न केवल आहुति भस्म हो जाती है बल्कि उसके साथ ही देवता का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। आत्मज्ञानी पुरुष अथवा साधकगण श्रोत्रादि इन्द्रियों की आहुति संयमाग्नि में देते हैं अर्थात् वे आत्मसंयम का जीवन जीते हैं। इस प्रकार इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति भस्म हो जाती है और साधक को आन्तरिक स्वातन्त्र्य का आनन्द भी प्राप्त होता है। यह एक सुविदित तथ्य है कि इन्द्रियों को जितना अधिक सन्तुष्ट रखने का प्रयत्न हम करते हैं वे उतनी ही अधिक प्रमथनशील होकर हमारी शान्ति को लूट ले जाती हैं। आत्मसंयम की साधना के अभ्यास के द्वारा ही साधक को ध्यान की योग्यता प्राप्त होती हैं।इस श्लोक की प्रथम पंक्ति में इन्द्रिय संयम का उपदेश है तो दूसरी पंक्ति में मनसंयम का। इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों की संवेदनाएं प्राप्त करके ही मन का अस्तित्व बना रहता है। जहां शब्दस्पर्शादि पाँच विषयों का ग्रहण नहीं होता वहां मन कार्य कर ही नहीं सकता। इसलिये विषयों से मन को अप्रभावित रखने की साधना यहां बतायी गयी है जिसके अभ्यास से ध्यानाभ्यास के लिये आवश्यक मन की स्थिरता प्राप्त की जा सकती है। जिस पुरुष ने मन को पूर्ण रूप से संयमित कर लिया है उसके विषय में भगवान् कहते हैं अन्य (साधक) शब्दादिक विषयों को इन्द्रियाग्नि में आहुति देते हैं।प्रथम विधि में विषयों की संवेदनाओं को इन्द्रियों के प्रवेश द्वार पर ही संयमित किया जाता है जबकि दूसरी विधि में (अभ्यांतर में ) मन के सूक्ष्मतर स्तर पर उन्हें नियन्त्रित करने की साधना है।और भी दूसरे प्रकार के यज्ञ बताते हुए भगवान् कहते हैं
।।4.26।।अन्य योगीजन संयमरूप अग्नियोंमें श्रोत्रादि इन्द्रियोंका हवन करते हैं। संयम ही अग्नियाँ हैं उन्हींमें हवन करते हैं अर्थात् इन्द्रियोंका संयम करते हैं। प्रत्येक इन्द्रियका संयम भिन्नभिन्न है इसलिये यहाँ बहुवचनका प्रयोग किया गया है। अन्य ( साधकलोग ) इन्द्रियरूप अग्नियोंमें शब्दादि विषयोंका हवन करते हैं। इन्द्रियाँ ही अग्नियाँ हैं उन इन्द्रियाग्नियोंमें हवन करते हैं अर्थात् उन श्रोत्रादि इन्द्रियोंद्वारा शास्त्रसम्मत विषयोंके ग्रहण करनेको ही होम मानते हैं।
।।4.26।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
।।4.26।।अन्ये श्रोत्रादीनाम् इन्द्रियाणां संयमने प्रयतन्ते। शब्दादीन् विषयान् अन्ये योगिनः इन्द्रियाणां शब्दादिविषयप्रवणतानिवारणे प्रयतन्ते।