श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5.3।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।5.3।। हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकाङ्क्षा करता है; वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।5.3।। जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा,  वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है;  क्योंकि,  हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।5.3।।तमेव कर्मयोगं स्तौति त्रिभिः स कर्मणि प्रवृत्तोऽपि नित्यं संन्यासीति ज्ञेयः। कोऽसौ। यो न द्वेष्टि भगवदर्पणबुद्ध्या क्रियमाणं कर्म निष्फलत्वशङ्क्या न काङ्क्षति स्वर्गादिकम्। निर्द्वन्द्वो रागद्वेषरहितः हि यस्मात्सुखमनायासेन हे महाबाहो बन्धादन्तःकरणाशुद्धिरूपाज्ज्ञानप्रतिबन्धात्प्रमुच्यते नित्यानित्यवस्तुविवेकादिप्रकर्षेण मुक्तोभवति।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।5.3।। ज्ञेयः ज्ञातव्यः स कर्मयोगी नित्यसंन्यासी इति यो न द्वेष्टि किञ्चित् न काङ्क्षति दुःखसुखे तत्साधने च। एवंविधो यः कर्मणि वर्तमानोऽपि स नित्यसंन्यासी इति ज्ञातव्यः इत्यर्थः। निर्द्वन्द्वः द्वन्द्ववर्जितः हि यस्मात् महाबाहो सुखं बन्धात् अनायासेन प्रमुच्यते।।संन्यासकर्मयोगयोः भिन्नपुरुषानुष्ठेययोः विरुद्धयोः फलेऽपि विरोधो युक्तः न तु उभयोः निःश्रेयसकरत्वमेव इति प्राप्ते इदम् उच्यते

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।5.3।। इस श्लोक में स्वयं भगवान् ही कर्मयोग के श्रेष्ठत्व का कारण बताते हैं। भगवान् द्वारा यहां दी हुई संन्यास की परिभाषा उसके विषय में प्रचलित निरर्थक धारणाओं को दूर कर देती है। वेषभूषा के बाह्य आडंबर की अपेक्षा आन्तरिक गुणों का अधिक महत्व है। श्रीकृष्ण के विचारानुसार राग और द्वेष से रहित पुरुष ही संन्यासी कहलाने योग्य है।रागद्वेष जयपराजय सुखदुख आदि इसी प्रकार के द्वन्द्वात्मक चक्र हैं जिन पर आरू ढ़ मन जीवन में अनेक प्रकार के अनुभव प्राप्त करता हुआ आगे बढ़ता है। हम तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा ही जीवन में आनेवाली परिस्थितियों को समझ पाते हैं। अन्धकार के सन्दर्भ में ही प्रकाश का ज्ञान होता है। किसी वस्तु के विपरीत धर्मवाली वस्तु के न होने पर हम उस वस्तु को यथार्थ रूप मे नहीं समझ पाते।यदि वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए बुद्धि के पास तुलनात्मक अध्ययन प्रणाली ही उपलब्ध हो तब उसका त्याग करने का अर्थ होगा विचार के साधन अन्तकरण का ही त्याग करना। एक वाहन द्वारा सड़क पर यात्रा करना संभव है परन्तु समुद्र यात्रा नहीं। उसके लिए उस वाहन का त्याग करके जलपोत की आवश्यकता होती है। असंख्य नामरूपों की सृष्टि में तो बुद्धि का उपयोग किया जा सकता है। यहाँ कहा गया है कि समस्त प्रकार के भेद दर्शनों से मुक्त हुआ अर्थात् मन और बुद्धि के अतीत हुआ पुरुष ही सच्चा संन्यासी है।यह कोई सहज कार्य नहीं है। द्वन्द्वों से रहित होने का अर्थ है र्मत्य जीव का सभी बन्धनों से मुक्त हो जाना। संन्यासी की इस परिभाषा से यह नहीं समझें कि साधकों के लिए दुखपूर्ण निराशा के जीवन को चित्रित करने का भगवान् का प्रयत्न है। अर्जुन के मन में दीर्घकाल से अर्जित वासनाओं का संचय था। अत उसके आत्मविकास को ध्यान मे रखकर भगवान् उसे संन्यास जीवन को स्वीकार करने की शीघ्रता से परावृत करना चाहते हैं।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।5.3।।( कर्मयोग श्रेष्ठ ) कैसे है इसपर कहते हैं उस कर्मयोगीको सदा संन्यासी ही समझना चाहिये कि जो न तो द्वेष करता है और न किसी वस्तुकी आकाङ्क्षा ही करता है। अर्थात् जो सुख दुःख और उनके साधनोंमें उक्त प्रकारसे रागद्वेषरहित हो गया है वह कर्ममें बर्तता हुआ भी सदा संन्यासी ही है ऐसे समझना चाहिये। क्योंकि हे महाबाहो रागद्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक अनायास ही बन्धनसे मुक्त हो जाता है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।5.3।।सन्न्यासशब्दार्थमाह ज्ञेय इति। सन्न्यासस्य निश्श्रेयसकरत्वं ज्ञापयितुं तच्छब्दार्थ स्मारयति ज्ञेय इति।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।5.3।।यः कर्मयोगी तदन्तर्गतात्मानुभवतृप्तः तद्व्यतिरिक्तं किमपि न काङ्क्षति तत एव किमपि न द्वेष्टि तत एव द्वन्द्वसहः च स नित्यसंन्यासी नित्यज्ञाननिष्ठ इति ज्ञेयः। स हि सुकरकर्मयोगनिष्ठतया सुखं बन्धात् प्रमुच्यते।ज्ञानयोगकर्मयोगयोः आत्मप्राप्तिसाधनभावे अन्योन्यनैरपेक्ष्यम् आह

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

5.3 Jneyah etc. Therefore he alone is all the time man-of-renunciation, by whom both desire and hatred have been renounced from his mind. Because his intellect has come out of the pairs of anger, delusion and others, he is released just easily.

English Translation by Shri Purohit Swami

5.3 He is a true ascetic who never desires or dislikes, who is uninfluenced by the opposites and is easily freed from bondage.

English Translation By Swami Sivananda

5.3 He should be known as a perpertual Sannyasi who neither hates nor desires; for, free from the pairs of opposites, O mighty-armed Arjuna, he is easily set free from bondage.