श्री भगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।6.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।6.1।। श्रीभगवान् बोले -- कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्यकर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।
।।6.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है।।
।।6.1।।योगसूत्रं त्रिभिः श्लोकैः पञ्चमान्ते यवदीरितम्। षष्ठस्त्वारभ्यतेऽध्यायस्तद्व्याख्यानाय विस्तरात्।।
तत्र सर्वकर्मत्यागेन योगं विधास्यंस्त्याज्यत्वेन हीनत्वमाशङ्क्य कर्मयोगं स्तौति द्वाभ्याम् श्रीभगवानुवाच कर्मणां फलमनाश्रितोऽनपेक्षमाणः फलाभिसंधिरहितः सन् कार्यं कर्तव्यतया शास्त्रेण विहितं नित्यमग्निहोत्रादि कर्म करोति यः स कर्म्यपि सन् संन्यासी योगी चेति स्तूयते। संन्यासो हि त्यागः। चित्तगतविक्षेपाभावश्च योगः। तौ चास्य विद्येते फलत्यागात् फलतृष्णारूपचित्तविक्षेपाभावाच्च। कर्मफलतृष्णात्याग एवात्र गौण्या वृत्त्या संन्यासयोगशब्दाभ्यामभिधीयते सकामानपेक्ष्य प्राशस्त्यकथनाय। अवश्यंभाविनौ हि निष्कामकर्मानुष्ठातुर्मुख्यौ संन्यासयोगौ। तस्मादयं यद्यपि न निरग्निरग्निसाध्यश्रौतकर्मत्यागी न भवति न चाक्रियोऽग्निनिरपेक्षस्मार्तक्रियात्यागी च न भवति तथापि संन्यासी योगी चेति मन्तव्यः। अथवा न निरग्निर्न चाक्रियः संन्यासी योगी चेति मन्तव्यः किंतु साग्निः सक्रियश्च निष्कामकर्मानुष्ठायी संन्यासी योगी चेति मन्तव्य इति स्तूयते।अपशवो वा अन्ये गोअश्वेभ्यः पशवो गोअश्चान् इत्यत्रेव प्रशंसालक्षणयानया नञन्वयोपपत्तिः। अत्र चाक्रियं इत्यनेनैव सर्वकर्मसंन्यासिने लब्धे निरग्निरिति व्यर्थं स्यादित्यग्निशब्देन सर्वाणि कर्माण्युपलक्ष्य निरग्निरिति संन्यासी क्रियाशब्देन चित्तवृत्तीरुपलक्ष्याक्रिय इति निरुद्धचित्तवृत्तिर्योगी च कथ्यते। तेन न निरग्निः संन्यासी मन्तव्यो न चाक्रियो योगी मन्तव्य इति यथासंख्यमुभयव्यतिरेको दर्शनीयः। एंव सति नञ्द्वयमप्युपपन्नमिति द्रष्टव्यम्।
।।6.1।। अनाश्रितः न आश्रितः अनाश्रितः। किम् कर्मफलं कर्मणां फलं कर्मफलं यत् तदनाश्रितः कर्मफलतृष्णारहित इत्यर्थः। यो हि कर्मफले तृष्णावान् सः कर्मफलमाश्रितो भवति अयं तु तद्विपरीतः अतः अनाश्रितः कर्मफलम्। एवंभूतः सन् कार्यं कर्तव्यंनित्यं काम्यविपरीतम् अग्निहोत्रादिकं कर्म करोति निर्वर्तयति यः कश्चित् ईदृशः कर्मी स कर्म्यन्तरेभ्यो विशिष्यते इत्येवमर्थमाह स संन्यासी च योगी च इति। संन्यासः परित्यागः स यस्यास्ति स संन्यासी च योगी च योगः चित्तसमाधानं स यस्यास्ति स योगी च इति एवंगुणसंपन्नः अयं मन्तव्यः न केवलं निरग्निः अक्रिय एव संन्यासी योगी च इति मन्तव्यः। निर्गताः अग्नयः कर्माङ्गभूताः यस्मात् स निरग्निः अक्रियश्च अनग्निसाधना अपि अविद्यमानाः क्रियाः तपोदानादिकाः यस्य असौ अक्रियः।।ननु च निरग्नेः अक्रियस्यैव श्रुतिस्मृतियोगशास्त्रेषु संन्यासित्वं योगित्वं च प्रसिद्धम्। कथम् इह साग्नेः सक्रियस्य च संन्यासित्वं योगित्वं च अप्रसिद्धमुच्यते इति। नैष दोषः कयाचित् गुणवृत्त्या उभयस्य संपिपादयिषितत्वात्। तत् कथम् कर्मफलसंकल्पसंन्यासात् संन्यासित्वम् योगाङ्गत्वेन च कर्मानुष्ठानात् कर्मफलसंकल्पस्य च चित्तविक्षेपहेतोः परित्यागात् योगित्वं च इति गौणमुभयम् न पुनः मुख्यं संन्यासित्वं योगित्वं च अभिप्रेतमित्येतमर्थँ दर्शयितुमाह
।।6.1।। प्रथम अध्याय में अर्जुन का विचार युद्धभूमि से पलायन करके संन्यास जीवन व्यतीत करने का था। उसे यह नहीं ज्ञात था कि निस्वार्थ भाव से कर्म करने वाला कर्मयोगी पुरुष ही सबसे बड़ा संन्यासी है। स्वार्थ का त्याग किये बिना कर्म का आचरण अथवा उससे पलायन करने का अर्थ है विश्व के सामंजस्य में अनर्थकारी हस्तक्षेप करना।मन की अपरिपक्व स्थिति में जीवन संघर्ष से पलायन करके गंगा के किनारे शान्त वातावरण में ध्यानाभ्यास के लिए जाने से सामान्य स्तर के अच्छे मनुष्य का भी गंगा में पड़े पाषाण के स्तर तक पतन होगा इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के इस त्रुटिपूर्ण विचार की मानो हंसी उड़ाते हैं। परन्तु भगवान् के व्यंग्य में किसी प्रकार की कटुता नहीं है। हम आगे देखेंगे कि अर्जुन को स्वयं भी अपनी गलत धारणा पर हंसी आती है।निदिध्यासन की सफलता के लिए आन्तरिक शक्तियों का विकास तथा उनका सही दिशा में उचित उपयोग करना भी अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् ने इस अध्याय में हमारे मन के उद्देश्यों तथा भावनाओं मंे परिवर्तन लाने के लिए विशेष बल दिया है। इसके द्वारा हम आध्यात्मिक मार्ग में प्रवेश कर सकते हैं।
।।6.1।।इसी भावसे वह संन्यासी और योगी है इस प्रकार उसकी स्तुति की जाती है भगवान् श्रीकृष्ण बोले जिसने आश्रय नहीं लिया हो वह अनाश्रित है किसका कर्मफलका अर्थात् जो कर्मोंके फलका आश्रय न लेनेवाला कर्मफलकी तृष्णासे रहित है। क्योंकि जो कर्मफलकी तृष्णावाला होता है वही कर्मफलका आश्रय लेता है यह उससे विपरीत है इसलिये कर्मफलका आश्रय न लेनेवाला है। ऐसा ( कर्मफलके आश्रयसे रहित ) होकर जो पुरुष कर्तव्यकर्मोंको अर्थात् काम्यकर्मोंसे विपरीत नित्य अग्निहोत्रादि कर्मोंको पूरा करता है ऐसा जो कोई कर्मी है वह दूसरे कर्मियोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है इसी अभिप्रायसे यह कहा है कि वह संन्यासी भी है और योगी भी है। संन्यास नाम त्यागका है वह जिसमें हो वही संन्यासी है और चित्तके समाधानका नाम योग है वह जिसमें हो वही योगी है अतः वह कर्मयोगी भी इन गुणोंसे सम्पन्न माना जाना चाहिये। केवल अग्निरहित और क्रियारहित पुरुष ही संन्यासी और योगी है ऐसा नहीं मानना चाहिये। कर्मोंके अङ्गभूत गार्हपत्यादि अग्नि जिससे छूट गये हैं वह निरग्नि है और बिना अग्निके होनेवाली तपदानादि क्रिया भी जो नहीं करता वह अक्रिय है। पू0 जब कि निरग्नि और अक्रिय पुरुषके लिये ही श्रुति स्मृति और योगशास्त्रोंमें संन्यासित्व और योगित्व प्रसिद्ध है तब यहाँ अग्नियुक्त और क्रियायुक्त पुरुषके लिये अप्रसिद्ध संन्यासित्व और योगित्वका प्रतिपादन कैसे किया जाता है उ0 यह दोष नहीं है क्योंकि किसी एक गुणवृत्तिसे ( किसी एक गुणविशेषको लेकर ) संन्यासित्व और योगित्व इन दोनों भावोंको उसमें ( गृहस्थमें ) सम्पादन करना भगवान्को इष्ट है। पू0 वह कैसे उ0 कर्मफलके संकल्पोंका त्याग होनेसे संन्यासित्व है और योगके अङ्गरूपसे कर्मोंका अनुष्ठान होनेसे या चित्तविक्षेपके कारणरूप कर्मफलके संकल्पोंका परित्याग होनेसे योगित्व है इस प्रकार दोनों भाव ही गौणरूपसे माने गये हैं।
।।6.1।।ँ़ ज्ञानान्तरङ्गं समाधियोगमाद्वानेनाध्यायेन। विवक्षितं सन्न्यासमाह योगेन सह अनाश्रित इति। चतुर्थाश्रमिणोऽप्यग्निः क्रिया चोक्तादैवमेव 4।25 इत्यादौ।अग्निर्ब्रह्म च तत्पूजा क्रिया न्यासाश्रमे स्मृता इति च। तस्मान्निरग्निरक्रियः सन्न्यासी योगी च न भवत्येव।
।।6.1।।श्रीभगवानुवाच कर्मफल स्वर्गादिकम् अनाश्रितः कार्यं कर्मानुष्ठानमेव कार्यं सर्वात्मनास्मत्सुहृद्भूतपरमपुरुषाराधनरूपतया कर्मैव मम प्रयोजनं न तत्साध्यं किञ्चिद् इति यः कर्म करोति स संन्यासी च ज्ञानयोगनिष्ठश्च योगी च कर्मयोगनिष्ठश्च। आत्मावलोकनरूपयोगसाधनभूतोभयनिष्ठ इत्यर्थः। न निरग्निचाक्रियः न चोदितयज्ञादिकर्मसु अप्रवृत्तः केवलज्ञाननिष्ठः तस्य हि ज्ञाननिष्ठा एव कर्मयोगनिष्ठस्य तु उभयम् अस्ति इति अभिप्रायः।उक्तलक्षणे कर्मयोगे ज्ञानम् अपि अस्ति इत्याह