श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।

न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।6.2।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।6.2।। हे अर्जुन ! लोग जिसको संन्यास कहते हैं, उसीको तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।6.2।। हे पाण्डव ! जिसको (शास्त्रवित्) संन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।6.2।।असंन्यासेऽपि संन्याशब्दप्रयोगे निमित्तभूतं गुणयोगं दर्शयितुमाह यं सर्वकर्मतत्फलपरित्यागं संन्यासमिति प्राहुः श्रुतयःसंन्यास एवात्यरेचयत् इतिब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ मिक्षाचर्यं चरन्ति इत्याद्याः। योगं फलतृष्णाकर्तृत्वाभिमानयोः परित्यागेन विहितकर्मानुष्ठानं तं संन्यासं विद्धि। हे पाण्डव अब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्तमित्याह तं वयं मन्यामहे ब्रह्मदत्तसदृशोऽयमिति न्यायात्परशब्दः परत्र प्रयुज्यमानः सादृश्यं बोधयति गौण्या वृत्त्या तद्भावारोपेण वा। प्रकृते तु किं सादृश्यमिति तदाह नहीति। हि यस्मादसंन्यस्तसंकल्पोऽत्यक्तफलसंकल्पः कश्चन कश्चिदपि योगी न भवति अपितु सर्वो योगी त्यक्तफलसंकल्प एव भवतीति फलत्यागसाम्यात्तृष्णारूपचित्तवृत्तिनिरोधसाम्याच्च गौण्या वृत्त्या कम्र्येव संन्यासी च योगी च भवतीत्यर्थः। तथाहियोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय इति वृत्तयः पञ्चविधाः। तत्र प्रत्यक्षानुमानशास्त्रोपमानार्थापत्त्यभावाख्यानि प्रमाणानि षडिति वैदिकाः। प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि त्रीणीत योगाः। अन्तर्भावबहिर्भावाभ्यां संकोचविकासौ द्रष्टव्यौ। अतएव तार्किकादीनां मदभेदाः। विपर्ययो मिथ्याज्ञानं तस्य पञ्च भेदा अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः। तएव च क्लेशाः। शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्योऽवभासो विकल्पः प्रमाभ्रमविलक्षणोऽसदर्थव्यवहारः शशविषाणमसत्पुरुषस्य चैतन्यमित्यादिः। अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा चतसृणां वृत्तीनामभावस्य प्रत्ययः कारणं तमोगुणस्तदालम्बना वृत्तिरेव निद्रा नतु ज्ञानाद्यभावमात्रमित्यर्थः। अनुभूतविषयासंप्रमोषः प्रत्ययः स्मृतिः पूर्वानुभवसंस्कारजं ज्ञानमित्यर्थः। सर्ववृत्तिजन्यत्वादन्ते कथनम्। लज्जादिवृत्तीनामपि पञ्चस्वेवान्तर्भावो द्रष्टव्यः। एतादृशां सर्वासां चित्तवृत्तीनां निरोधो योग इति च समाधिरिति च कथ्यते। फलसंकल्पस्तु रागाख्यस्तृतीयो विपर्ययभेदस्तन्निरोधमात्रमपि गौण्या वृत्त्या योग इति संन्यास इति चोच्यत इति न विरोधः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।6.2।। यं सर्वकर्मतत्फलपरित्यागलक्षणं परमार्थसंन्यासं संन्यासम् इति प्राहुः श्रुतिस्मृतिविदः योगं कर्मानुष्ठानलक्षणं तं परमार्थसंन्यासं विद्धि जानीहि हे पाण्डव। कर्मयोगस्य प्रवृत्तिलक्षणस्य तद्विपरीतेन निवृत्तिलक्षणेन परमार्थसंन्यासेन कीदृशं सामान्यमङ्गीकृत्य तद्भाव उच्यते इत्यपेक्षायाम् इदमुच्यते अस्ति हि परमार्थसंन्यासेन सादृश्यं कर्तृद्वारकं कर्मयोगस्य। यो हि परमार्थसंन्यासी स त्यक्तसर्वकर्मसाधनतया सर्वकर्मतत्फलविषयं संकल्पं प्रवृत्तिहेतुकामकारणं संन्यस्यति। अयमपि कर्मयोगी कर्म कुर्वाण एव फलविषयं संकल्पं संन्यस्यति इत्येतमर्थं दर्शयिष्यन् आह न हि यस्मात् असंन्यस्तसंकल्पः असंन्यस्तः अपरित्यक्तः फलविषयः संकल्पः अभिसंधिः येन सः असंन्यस्तसंकल्पः कश्चन कश्चिदपि कर्मी योगी समाधानवान् भवति न संभवतीत्यर्थः फलसंकल्पस्य चित्तवेक्षेपहेतुत्वात्। तस्मात् यः कश्चन कर्मी संन्यस्तफलसंकल्पोभवेत् स योगी समाधानवान् अविक्षिप्तचित्तो भवेत् चित्तविक्षेपहेतोः फलसंकल्पस्य संन्यस्तत्वादित्यभिप्रायः।।एवं परमार्थसंन्यासकर्मयोगयोः कर्तृद्वारकं संन्याससामान्यमपेक्ष्य यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव इति कर्मयोगस्य स्तुत्यर्थं संन्यासत्वम् उक्तम्। ध्यानयोगस्य फलनिरपेक्षः कर्मयोगो बहिरङ्गं साधनमिति तं संन्यासत्वेन स्तुत्वा अधुना कर्मयोगस्य ध्यानयोगसाधनत्वं दर्शयति

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।6.2।। भगवान् यहाँ पूर्वकथित विचार को ही दोहराते हैं क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन को इस तथ्य विस्मरण हो जाय कि संन्यास (कर्तृत्व का त्याग) और योग(फलासक्ति का त्याग) दोनों वास्तव में एक ही हैं। योग के द्वारा संन्यास की स्थिति तक पहुँचा जाता है और मन में संन्यास की भावना के बिना योग के अभ्यास का विचार तक नहीं किया जा सकता। वास्तव में देखा जाय तो यह दोनों आध्यात्मिक पूर्णत्व रूपी सिक्के के दो पहलू हैं।भगवान् के इस कथन पर स्वाभाविक है कि अर्जुन ने उनकी ओर प्रश्नार्थक मुद्रा में देखा होगा। संन्यास और योग को एक ही कहने का क्या कारण है भगवान् स्पष्ट करते हैं कि संकल्पों का संन्यास किये बिना योगाभ्यास में दृढ़ता नहीं आ सकती और उसके अभाव में आध्यात्मिक प्रगति भी नहीं हो सकती।साधारणत मनुष्य संकल्पविकल्प किये बिना नहीं रह सकता। वह भविष्य की सुन्दरसुन्दर कल्पनाएँ करता रहता है। हम स्वयं ही किसी एक परिच्छिन्न लक्ष्य को निर्धारित करके उसे पाने के लिए योजनाएं बनाते हैं और उस पर प्रयत्नशील हो जाते हैं। परन्तु अपनी योजनाओं को पूर्णतया कार्यान्वित करने के पूर्व ही मन की कभी न थकने वाली क्रियाशील कल्पना शक्ति हमें नये लक्ष्य का निर्देश करती है जो पूर्व निर्धारित लक्ष्य से सर्वथा भिन्न होता है।जैसे ही हम उस नये लक्ष्य को पाने के लिए तत्पर हो जाते हैं उसी समय फिर यह अनोखी कल्पना शक्ति अन्य विकल्प को उपस्थित कर देती है। इस प्रकार प्रत्येक समय हमारा लक्ष्य तब तक ही निश्चित रहता है जब तक उसे पाने के लिए हम प्रयत्न आरम्भ नहीं कर देते यात्रा प्रारम्भ हुई कि गन्तव्य लुप्त।संक्षेप में विडम्बना यह है कि जब हमारे समक्ष लक्ष्य होता है तब प्रयत्न का आरम्भ नहीं और जैसे ही हम प्रयत्नशील होते हैं तो सामने कोई लक्ष्य ही नहीं दिखाई देता हमारे अन्तकरण में जो सूक्ष्म शक्ति इस उन्मत्त स्वभाव को जन्म देती है वह है निरंकुश संकल्पशक्ति।यह तो स्वत स्पष्ट हो जाता है कि जब तक हम इस विनाशकारी संकल्प शक्ति को वश में करके विनष्ट नहीं कर देते तब तक हम भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसे समझने के लिए किसी व्याख्याकार की आवश्यकता नहीं हैं।यह कहकर कि कोई भी (कश्चन) पुरुष संकल्प के बिना योगी नहीं बन सकता भगवान् यह दर्शाते हैं कि बिना संकल्प शक्ति के विनष्ट किये इस विषय में किसी प्रकार का समझौता नहीं हो सकता।फलनिरपेक्ष कर्मयोग का अनुष्ठान ध्यानयोग का बहिरंग साधन है। अत उसकी प्रशंसा करने के पश्चात् अब भगवान् यह बताते हैं कि किस प्रकार कर्मयोग ध्यान का साधन है

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।6.2।।इससे मुख्य संन्यासित्व और योगित्व इष्ट नहीं है। इसी भावको दिखलानेके लिये कहते हैं श्रुतिस्मृतिके ज्ञाता पुरुष सर्वकर्म और उनके फलके त्यागरूप जिस भावको वास्तविक संन्यास कहते हैं हे पाण्डव कर्मानुष्ठानरूप योगको ( निष्काम कर्मयोगको ) भी तू वही वास्तविक संन्यास जान। प्रवृत्तिरूप कर्मयोगकी उससे विपरीत निवृत्तिरूप परमार्थसंन्यासके साथ कैसी समानता स्वीकार करके एकता कही जाती है ऐसा प्रश्न होनेपर यह कहा जाता है परमार्थसंन्यासके साथ कर्मयोगकी कर्तृविषयक समानता है क्योंकि जो परमार्थसंन्यासी है वह सब कर्मसाधनोंका त्याग कर चुकता है इसलिये सब कर्मोंका और उनके फलविषयक संकल्पोंका जो कि प्रवृत्तिहेतुक कामके कारण है त्याग करता है। और यह कर्मयोगी भी कर्म करता हुआ फलविषयक संकल्पोंका त्याग करता ही है ( इस प्रकार दोनोंकी समानता है ) इस अभिप्रायको दिखलाते हुए कहते हैं जिसने फलविषयक संकल्पोंका यानी इच्छाओंका त्याग न किया हो ऐसा कोई भी कर्मी योगी नहीं हो सकता। अर्थात् ऐसे पुरुषका चित्त समाधिस्थ होना सम्भव नहीं है क्योंकि फलका संकल्प ही चित्तके विक्षेपका कारण है। इसलिये जो कोई कर्मी फलविषयक संकल्पोंका त्याग कर देता है वही योगी होता है। अभिप्राय यह है कि चित्तविक्षेपका कारण जो फलविषयक संकल्प है उसके त्यागसे ही मनुष्य समाधानयुक्त यानी चित्तविक्षेपसे रहित योगी होता है। इस प्रकार परमार्थसंन्यासकी और कर्मयोगकी कर्त्ताके भावसे सम्बन्ध रखनेवाली जो त्यागविषयक समानता है उसकी अपेक्षासे ही कर्मयोगकी स्तुति करनेके लिये यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव इस श्लोकमें उसे संन्यास बतलाया है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।6.2।।सन्न्यासोऽपि योगान्तर्भूत इत्याह यं सन्न्यासमिति। कामसङ्कल्पाद्यपरित्यागे कथमुपायवान्स्यात् इत्याशयः।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।6.2।।ज्ञानयोग इति आत्मयाथात्म्यज्ञानम् इति प्राहुः तं कर्मयोगम् एव विद्धि। तद् उपपादयति न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन इति।

आत्मयाथात्म्यानुसन्धानेन अनात्मनि प्रकृतौ आत्मसंकल्पः संन्यस्तः परित्यक्तो येन स संन्यस्तसंकल्पः अनेवंभूतो यः स असंन्यस्तसंकल्पः। न हि उक्तेषु कर्मयोगेषु अनेवंभूतः कश्चन कर्मयोगी भवतियस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। (गीता 4।19) इति हि उक्तम्।कर्मयोग एव अप्रमादेन योगं साधयति इत्याह

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

6.1-2 The subject matter that has been thus established in the series of the preceding chapters is summarised by a couple of verses. Anasritah etc. Yam etc. Bounden : Ordained [in the law books] according to one's caste etc. [Thus] man-lf-renunciation and man-of-Yoga are synonyms. That is why [the Lord] says, 'what [the learned] call renunciation' etc. Therefore, without Yoga no renunciation is possible. Similarly Yoga is not possible without renouncing the intention [for fruit]. Conseently, the Yoga and renunciation are ever interlinked. The idea, suggested by 'not he who remains [simply] without his fires etc.' is this : He remains neither without fires, nor without actions and yet he is man of renunciation, Hence this is strange. Of course, following the principle [involved in the statement] 'Playing dice is the kingship, without throne', and following logic it has been asserted already that renunciation is not possible for a person who remains simply without actions. Yet-

English Translation by Shri Purohit Swami

6.2 O Arjuna! Renunciation is in fact what is called Right Action. No one can become spiritual who has not renounced all desire.

English Translation By Swami Sivananda

6.2 Do thou, O Arjuna, know Yoga to be that which they call renunciation; no one verily becomes a Yogi who has not renounced thoughts.