मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।2.14।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.14।। हे कुन्तीपुत्र ! शीत और उष्ण और सुख दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अन्त होता है; वे अनित्य हैं, इसलिए, हे भारत ! उनको तुम सहन करो।।
।।2.14।।यद्यपि आत्मा नित्य है ऐसे जाननेवाले ज्ञानीको आत्मविनाशनिमित्तक मोह होना तो सम्भव नहीं तथापि शीतउष्ण और सुखदुःखप्राप्तिजनित लौकिक मोह तथा सुखवियोगजनित और दुःखसंयोगजनित शोक भी होता हुआ देखा जाता है ऐसे अर्जुनके वचनोंकी आशंका करके भगवान् कहते हैं
मात्रा अर्थात् शब्दादि विषयोंको जिनसे जाना जाय ऐसी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषयोंके साथ उनके संयोग वे सब शीतउष्ण और सुखदुःख देने वाले हैं अर्थात् शीतउष्ण और सुखदुःख देते हैं।
अथवा जिनका स्पर्श किया जाता है वे स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषय ( इस व्युत्पत्तिके अनुसार यह अर्थ होगा कि ) मात्रा और स्पर्श यानी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और शब्दादि विषय ( ये सब ) शीतउष्ण और सुखदुःख देनेवाले हैं।
शीत कभी सुखरूप होता है कभी दुःखरूप इसी तरह उष्ण भी अनिश्चितरूप है परंतु सुख और दुःख निश्चितरूप हैं क्योंकि उनमें व्यभिचार ( फेरफार ) नहीं होता। इसलिये सुखदुःखसे अलग शीत और उष्णका ग्रहण किया गया है।
जिससे कि वे मात्रास्पर्शादि ( इन्द्रियाँ उनके विषय और उनके संयोग ) उत्पत्तिविनाशशील हैं इससे अनित्य हैं अतः उन शीतोष्णादिको तू सहन कर अर्थात् उनमें हर्ष और विषाद मत कर।
।।2.14।।
मात्रा आभिः मीयन्ते शब्दादय इति श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि। मात्राणां स्पर्शाः शब्दादिभिः संयोगाः। ते शीतोष्णसुखदुःखदाः शीतम् उष्णं सुखं दुःखं च प्रयच्छन्तीति। अथवा स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः विषयाः शब्दादयः। मात्राश्च स्पर्शाश्च शीतोष्णसुखदुःखदाः। शीतं कदाचित् सुखं कदाचित् दुःखम्। तथा उष्णमपि अनियतस्वरूपम्। सुखदुःखे पुनः नियतरूपे यतो न व्यभिचरतः। अतः ताभ्यां पृथक् शीतोष्णयोः ग्रहणम्। यस्मात् ते मात्रास्पर्शादयः आगमापायिनः आगमापायशीलाः तस्मात् अनित्याः । अतः तान् शीतोष्णादीन् तितिक्षस्व प्रसहस्व। तेषु हर्षं विषादं वा मा कार्षीः इत्यर्थः।।
शीतोष्णादीन् सहतः किं स्यादिति श्रृणु