यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.15।। हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुख और सुख में समान भाव से रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये व्यथित नहीं कर सकते हैं वह अमृतत्व (मोक्ष) का अधिकारी होता है।।
।।2.15।।शीतउष्णादि सहन करनेवालेको क्या ( लाभ ) होता है सो सुन
सुखदुःखको समान समझनेवाले अर्थात् जिसकी दृष्टिमें सुखदुःख समान हैं सुखदुःखकी प्राप्तिमें जो हर्षविषादसे रहित रहता है ऐसे जिस धीर बुद्धिमान् पुरुषको ये उपर्युक्त शीतोष्णादि व्यथा नहीं पहँचा सकते अर्थात् नित्य आत्मदर्शनसे विचलित नहीं कर सकते।
वह नित्य आत्मदर्शननिष्ठ और शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको सहन करनेवाला पुरुष मृत्युसे अतीत हो जानेके लिये यानी मोक्षके लिये समर्थ होता है।
।।2.15।।
यं हि पुरुषं समे दुःखसुखे यस्य तं समदुःखसुखं सुखदुःखप्राप्तौ हर्षविषादरहितं धीरं धीमन्तं न व्यथयन्ति न चालयन्ति नित्यात्मदर्शनाद् एते यथोक्ताः शीतोष्णादयः स नित्यात्मस्वरूपदर्शननिष्ठो द्वन्द्वसहिष्णुः अमृतत्वाय अमृतभावाय मोक्षायेत्यर्थः कल्पते समर्थो भवति।।
इतश्च शोकमोहौ अकृत्वा शीतोष्णादिसहनं युक्तं यस्मात्