श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।10.17।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।10.17।। हे योगिन् ! हरदम साङ्गोपाङ्ग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ ? और हे भगवन् ! किन-किन भावोंमें आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किन-किन भावोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ ?

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।10.17।।किं प्रयोजनं तत्कथनस्य तदाह द्वाभ्याम् -- योगो निरतिशयैश्वर्यादिशक्तिः सोऽस्यास्तीति हे योगिन्निरतिशयैश्वर्यादिशक्तिशालिन्? अहमतिस्थूलमतिस्त्वां देवादिभिरपि ज्ञातुमशक्यं कथं विद्यां जानीयाम्। सदा परिचिन्तयन्सर्वदा ध्यायन्। ननु मद्विभूतिषु मां ध्यायन्? ज्ञास्यसि तत्राह -- केषु केषु च भावेषु चेतनाचेतनात्मकेषु वस्तुषु त्वद्विभूतिभूतेषु मया चिन्त्योऽसि हे भगवन्।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।10.17 -- 10.18।।किमर्थं तत्प्रकाशनं इत्यपेक्षायामाह -- कथं विद्यामिति। अहं त्वया योगी विधीये तस्य च चिन्तनं युक्तमेवेति। केषुकेषूभयविधेषु भावेषु मया चिन्त्योऽसि।योगिन् इति पाठे तद्वत्त्वात्तव योगमपि कथमहं विद्यामिति प्रश्न उपलभ्यते। ततो विस्तरेणेति समस्तप्रश्नस्फोरणं विभूतिं योगं चेति। यद्यपि पूर्वं त्वयोक्ता विभूतिस्तथ पि सङ्क्षेपेणेत्यधुना विस्तरेण वदेति पृच्छति।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।10.17।। व्याख्या--'कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्'--सातवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि जो मेरी विभूति और योगको तत्त्वसे जानता है, वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है। इसलिये अर्जुन भगवान्से पूछते हैं कि हरदम चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ? 

     'केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया'--आठवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि जो अनन्यचित्त होकर नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करता है, उस योगीको मैं सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ। फिर नवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें कहा कि जो अनन्य भक्त निरन्तर मेरा चिन्तन करते रहते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। इस प्रकार चिन्तनकी महिमा सुनकर अर्जुन कहते हैं कि जिस चिन्तनसे मैं आपको तत्त्वसे जान जाऊँ, वह चिन्तन मैं कहाँ-कहाँ करूँ किस वस्तु, व्यक्ति, देश, काल, घटना, परिस्थिति आदिमें मैं आपका चिन्तन करूँ? [यहाँ चिन्तन करना साधन है और भगवान्को तत्त्वसे जानना साध्य है।]यहाँ अर्जुनने तो पूछा है कि मैं कहाँ-कहाँ, किसकिस वस्तु, व्यक्ति, स्थान आदिमें आपका चिन्तन करूँ, पर,भगवान्ने आगे उत्तर यह दिया है कि जहाँजहाँ भी तू चिन्तन करता है, वहाँ-वहाँ ही तू मेरेको समझ। तात्पर्य यह है कि मैं तो सब वस्तु, देश, काल आदिमें परिपूर्ण हूँ। इसलिये किसी विशेषता, महत्ता, सुन्दरता आदिको लेकर जहाँ-जहाँ तेरा मन जाता है, वहाँ-वहाँ मेरा ही चिन्तन कर अर्थात् वहाँ उस विशेषता आदिको मेरी ही समझ। कारण कि संसारकी विशेषताको माननेसे संसारका चिन्तन होगा, पर मेरी विशेषताको माननेसे मेरा ही चिन्तन होगा। इस प्रकार संसारका चिन्तन मेरे चिन्तनमें परिणत होना चाहिये।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।10.17।।हे योगन्? अहं स्थूलबुद्धिस्त्वां केन प्रकारेण परि समन्ताच्चिन्तयन् सूक्ष्मबुद्धिर्भूत्वा जानीयाम्। अघटितघटनं योगस्तद्वान् त्वम्। मामपि त्वां ज्ञातुमयोग्यं योग्यं कर्तुमर्हसीति संबोधनाशयः। केषुकेषु च भावेषु पदार्थेषु मया ध्येयोऽसि तत्तत्पदार्थेषु स्वैश्वर्यादिमत्पदार्थ वदेति द्योतयन्नाह -- हे भगवन्निति।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।10.17।।योग ऐश्वर्यं तद्वन् हे योगिन्? त्वां कथं चर्मचक्षुषा विद्यां न कथमपीति विश्वरूपदर्शनस्य दौर्लभ्यं मन्वानः कतिपयेष्वेव स्थानेषु भगवन्तं चिन्तयिष्यामि विश्वरूपदर्शनेऽधिकारसिद्ध्यर्थमित्याशयेनाह -- केष्विति।