विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।10.18।। हे जनार्दन ! आप अपने योग (सामर्थ्य) को और विभूतियोंको विस्तारसे फिर कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।
।।10.18।।अतः आत्मनस्तव योगं सर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वादिलक्षणमैश्वर्यातिशयं विभूतिं च ध्यानालम्बनं विस्तरेण,संक्षेपेण सप्तमे नवमे चोक्तमपि भूयः पुनः कथय। सर्वैर्जनैरभ्युदयनिःश्रेयसप्रयोजनं याच्यस इति हे जनार्दन? अतो ममापि याञ्चा त्वय्युचितैव। उक्तस्य पुनः कथनं कुतो याचसे तत्राह -- तृप्तिरलंप्रत्ययेनेच्छाविच्छित्तिर्नास्ति। हि यस्माच्छृण्वतः श्रवणेन पिबतस्त्वद्वाक्यामृतममृतवत्पदे पदे स्वादु स्वादु। अत्र त्वद्वाक्यमित्यनुक्तेरपह्नुत्यतिशयोक्तिरूपकसंकरोऽयं माधुर्यातिशयानुभवेनोत्कण्ठातिशयं व्यनक्ति।
।।10.17 -- 10.18।।किमर्थं तत्प्रकाशनं इत्यपेक्षायामाह -- कथं विद्यामिति। अहं त्वया योगी विधीये तस्य च चिन्तनं युक्तमेवेति। केषुकेषूभयविधेषु भावेषु मया चिन्त्योऽसि।योगिन् इति पाठे तद्वत्त्वात्तव योगमपि कथमहं विद्यामिति प्रश्न उपलभ्यते। ततो विस्तरेणेति समस्तप्रश्नस्फोरणं विभूतिं योगं चेति। यद्यपि पूर्वं त्वयोक्ता विभूतिस्तथ पि सङ्क्षेपेणेत्यधुना विस्तरेण वदेति पृच्छति।
।।10.18।। व्याख्या--'विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन'--भगवान्ने सातवें और नवें अध्यायमें ज्ञानविज्ञानका विषय खूब कह दिया। इतना कहनेपर भी उनकी तृप्ति नहीं हुई, इसलिये दसवाँ अध्याय अपनी ओरसे ही कहना शुरू कर दिया। भगवान्ने दसवाँ अध्याय आरम्भ करते हुए कहा कि 'तू फिर मेरे परम वचनको सुन।'
ऐसा सुनकर भगवान्की कृपा और महत्त्वकी तरफ अर्जुनकी दृष्टि विशेषतासे जाती है और वे भगवान्से फिर सुनानेके लिये प्रार्थना करते हैं। अर्जुन कहते हैं कि 'आप अपने योग और विभूतियोंको विस्तारपूर्वक फिरसे कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते हुए तृप्ति नहीं हो रही है। मन करता है कि सुनता ही चला जाऊँ'। भगवान्की विभूतियोंको सुननेसे भगवान्में प्रत्यक्ष आकर्षण बढ़ता देखकर अर्जुनको लगा कि इन विभूतियोंका ज्ञान होनेसे भगवान्के प्रति मेरा विशेष आकर्षण हो जायगा और भगवान्में सहज ही मेरी दृढ़ भक्ति हो जायगी। इसलिये अर्जुन विस्तारपूर्वक फिरसे कहनेके लिये प्रार्थना करते हैं।
'भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्' -- अर्जुन श्रेयका साधन चाहते हैं (गीता 2। 7; 3। 2; 5। 1), और भगवान्ने विभूति एवं योगको तत्त्वसे जाननेका फल अपनेमें दृढ़ भक्ति होना बताया (गीता 10। 7)। इसलिये अर्जुनको विभूतियोंको जाननेवाली बात बहुत सरल लगी कि मेरेको कोई नया काम नहीं करना है, नया चिन्तन नहीं करना है, प्रत्युत जहाँ-कहीं विशेषता आदिको लेकर मनका स्वाभाविक खिंचाव होता है, वहीँ उस विशेषताको भगवान्की मानना है। इससे मनकी वृत्तियोंका प्रवाह संसारमें न होकर भगवान्में हो जायगा, जिससे मेरी भगवान्में दृढ़ भक्ति हो जायगी और मेरा सुगमतासे कल्याण हो जायगा। कितनी सीधी, सरल और सुगम बात है! इसलिये अर्जुन विभूतियोंको फिर कहनेके लिये प्रार्थना करते हैं।जैसे, कोई भोजन करने बैठे और भोजनमें कोई वस्तु प्रिय (बढ़िया) मालूम दे, तो उसमें उसकी रुचि बढ़ती है और वह बार-बार उस प्रिय वस्तुको माँगता है। पर उस रुचिमें दो बाधाएँ लगती हैं -- एक तो वह वस्तु अगर कम मात्रामें होती है तो पूरी तृप्तिपूर्वक नहीं मिलती; और दूसरी, वह वस्तु अधिक मात्रामें होनेपर भी पेट भर जानेसे अधिक नहीं खायी जा सकती ! परन्तु भगवान्की विभूतियोंका और अर्जुनकी विभूतियाँ सुननेकी रुचिका अन्त ही नहीं आता। कानोंके द्वारा अमृतमय वचनोंको सुनते हुए न तो उन वचनोंका अन्त आता है, और न उनको सुनते हुए तृप्ति ही होती है। अतः अर्जुन भगवान्से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि आप ऐसे अमृतमय वचन सुनाते ही जाइये।
सम्बन्ध--अर्जुनकी प्रार्थना स्वीकार करके भगवान् अब आगेके श्लोकसे अपनी विभूतियों और योगको कहना आरम्भ करते हैं।
।।10.18।।ननु सप्तमे नवमे च विभूतिरैश्यवर्य च दर्शितं तत्किमिति पुनः पृच्छसि तत्राह -- विस्तरेणेति। स्वस्य योगैश्वर्यशक्तिविशेषं विभूतिं च पूर्वोक्तमपि योगादि भूयो विस्तरेण कथय। हे जनार्दन देवशत्रुजनानां असुराणां प्राणवियोगनरकादिगमयितृत्वातं। तथा चास्मच्छत्रुजनानां रोगद्वेषादीनां नाशनाय ध्येयोगविभूति कथनं तव नामानुरुपत्वाद्योग्यमित्याशयः। यद्वाभ्युदयनिःश्रेयसपुरुषार्थप्रयोजनं सर्वैजनैर्याच्यते इति तथा संबोधयन् ममापि याञ्चा त्वयि युक्तेवेति सूचयति। हि यस्मात्तव वाक्याभृतं श्रृण्वतो मम तृप्तिर्नास्ति। नीरसत्वप्रयुक्ततृप्तिव्यावृत्तयेऽमृतमित्युक्तम्। रसाज्ञानप्रयुक्ततृप्तिव्यावर्तनाय मे लसज्ञस्येत्युक्तम्। उदरे पूर्णेऽभृतेऽप्यलंबुद्धिर्भवतीति तद्य्ववच्छेदाय श्रृण्वत इत्युक्तम्। आकाशात्मकस्य श्रोत्रस्य शब्देन गुणे पूर्णताया असंभवात्तृप्तिर्नास्तीति।
।।10.18।।योगं वैश्वरूप्यम्। विभूतिं ध्यानालम्बनम्। अमृतं अमृतस्य मोक्षस्य साधनम्।