श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।10.19।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।10.19।। श्रीभगवान् बोले -- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियोंको तेरे लिये प्रधानतासे (संक्षेपसे) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरी विभूतियोंके विस्तारका अन्त नहीं है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।10.19।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- हन्तेत्यनुमतौ। यत्त्वया प्रार्थितं तत्करिष्यामि मा व्याकुलोभूरित्यर्जुनं समाश्वास्य तदेव कर्तुमारभते। कथयिष्यामि प्राधान्यतस्ता विभूतीर्या दिव्या हि प्रसिद्धा आत्मनो ममासाधारणा विभूतयः हे कुरुश्रेष्ठ? विस्तरेण तु कथनमशक्यम्। यतो नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे विभूतीनां? अतः प्रधानभूताः,काश्चिदेव विभूतीर्वक्ष्यामीत्यर्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।10.19।।एवं प्रार्थितः श्रीभगवानुवाच -- हन्तेति। अनुकम्पा सम्बोधने। या दिव्या ममात्मविभूतयस्ता वक्ष्यामि। तत्रापि प्राधान्यतः? न तु सामस्त्येन अनन्तत्वात्तदाह -- नास्त्यन्त इति। विभूतिर्हि विविधतया स्वांशरूपेण प्रकृतौ भूतिराविर्भूतिः केनचिद्विशेषेण युक्ता सर्वत्र सत्ता वा स्वस्य विविधा सर्वेषां नियम्यत्त्वोक्त्या स्वांशत्वकथनमभिप्रेतम्। एवं च सर्वस्य विभूतिरूपत्वे प्राधान्यतो विभूतय इहोच्यन्ते।पुरोधसां च मुख्यं मां [10।24] इति रीत्या मुख्यभावो ज्ञेयः। एवमपि भगवानव्ययोऽचिन्त्यैश्वर्यादिधर्मकत्वादिति योगः स च तदन्ते वक्ष्यतेविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् [10।42] इति।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।10.19।। व्याख्या--'हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः'--योग और विभूति कहनेके लिये अर्जुनकी जो प्रार्थना है, उसको 'हन्त' अव्ययसे स्वीकार करते हुए भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी दिव्य, अलौकिक, विलक्षण विभूतियोंको तेरे लिये कहूँगा (योगकी बात भगवान्ने आगे इकतालीसवें श्लोकमें कही है)।'दिव्याः' कहनेका तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिमें जो कुछ भी विशेषता दीखती है, वह,वस्तुतः भगवान्की ही है। इसलिये उसको भगवान्की ही देखना दिव्यता है और वस्तु, व्यक्ति आदिकी देखना अदिव्यता अर्थात् लौकिकता है।

'प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे'-- जब अर्जुनने कहा कि भगवन्! आप अपनी विभूतियोंको विस्तारसे, पूरी-की-पूरी कह दें, तब भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियोंको संक्षेपसे कहूँगा; क्योंकी मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है। पर आगे ग्यारहवें अध्यायमें जब अर्जुन बड़े संकोचसे कहते हैं कि मैं आपका विश्वरूप देखना चाहता हूँ; अगर मेरे द्वारा वह रूप देखा जाना शक्य है तो दिखा दीजिये, तब भगवान् कहते हैं --'पश्य मे पार्थ रूपाणि' (11। 5) अर्थात् तू मेरे रूपोंको देख ले। रूपोंमें कितने रूप? क्या दो-चार? नहीं-नहीं, सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख! इस प्रकार यहाँ अर्जुनकी विस्तारसे विभूतियाँ कहनेकी प्रार्थना सुनकर भगवान् संक्षेपसे विभूतियाँ सुननेके लिये कहते हैं और वहाँ अर्जुनकी एक रूप दिखानेकी प्रार्थना सुनकर भगवान् सैकड़ों-हजारों रूप देखनेके लिये कहते हैं!

   यह एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि सुननेमें तो आदमी बहुत सुन सकता है, पर उतना नेत्रोंसे देख नहीं सकता; क्योंकि देखनेकी शक्ति कानोंकी अपेक्षा सीमित होती है (टिप्पणी प0 553)। फिर भी जब अर्जुनने सम्पूर्ण विभूतियोंको सुननेमें अपनी सामर्थ्य बतायी तो भगवान्ने संक्षेपसे सुननेके लिये कहा; और जब अर्जुनने एक रूपको देखनेमें नम्रतापूर्वक अपनी असमर्थता प्रकट की तो भगवान्ने अनेक रूप देखनेके लिये कहा! इसका कारण यह है कि गीतामें अर्जुनका भगवद्विषयक ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इस दसवें अध्यायमें जब भगवान्ने यह कहा कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है, तब अर्जुनकी दृष्टि भगवान्की अनन्तताकी तरफ चली गयी। उन्होंने समझा कि भगवान्के विषयमें तो मैं कुछ भी नहीं जानता; क्योंकि भगवान् अनन्त हैं, असीम हैं, अपार हैं। परन्तु अर्जुनने भूलसे कह दिया कि आप अपनी सब-की-सब विभूतियाँ कह दीजिये। इसलिये अर्जुन आगे चलकर सावधान हो जाते हैं और नम्रतापूर्वक एक रूपको दिखानेके लिये ही भगवान्से प्रार्थना करते हैं। नेत्रोंकी शक्ति सीमित होते हुए भी भगवान् दिव्य चक्षु प्रदान करके अर्थात् चर्मचक्षुओंमें विशेष शक्ति प्रदान करके अपने अनेक रूपोंको देखनेकी आज्ञा देते हैं।दूसरी बात, वक्ताकी व्यक्तिगत बात पूछी जाय और अपनी अज्ञता तथा अयोग्यतापूर्वक अपने जाननेके लिये प्रार्थना की जाय -- इन दोनोंमें फरक होता है। यहाँ अर्जुनने विस्तारपूर्वक विभूतियाँ कहनेके लिये कहकर भगवान्की थाह लेनी चाही, तो भगवान्ने कह दिया कि मैं तो संक्षेपसे कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियोंकी थाह नहीं है। ग्यारहवें अध्यायमें अर्जुनने अपनी अज्ञता और अयोग्यता प्रकट करते हुए भगवान्से अपना अव्यय रूप दिखानेकी प्रार्थना की, तो भगवान्ने अपने अनन्तरूप देखनेके लिये आज्ञा दी और उनको देखनेकी सामर्थ्य (दिव्य दृष्टि) भी दी! इसलिये साधकको किञ्चिन्मात्र भी अपना आग्रह, अहंकार न रखकर और अपनी सामर्थ्य, बुद्धि न लगाकर केवल भगवान्पर ही सर्वथा निर्भर हो जाना चाहिये; क्योंकि भगवान्की निर्भरतासे जो चीज मिलती है, वह अपार मिलती है।

 सम्बन्ध--विभूतियाँ और योग-- इन दोनोंमेंसे पहले भगवान् बीसवें श्लोकसे उनतालीसवें श्लोकतक अपनी बयासी विभूतियोंका वर्णन करते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।10.19।।एवं पृष्टो भगवानुवाच। हन्तेदानीं या आत्मनो विभूतयस्ताः कथियिष्यामि प्राधान्यतः। प्रधानां तां तां विभूतिमित्यर्थः। कुरुश्रेष्ठेति संबोधयन् स्वमधिकारीति सूचयति। विस्तरेण कथयेत्युक्तं तत्राह। मे विभूतीनां विस्तरस्यान्तो नास्ति।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।10.19।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- हन्तेति। हन्त इदानीम्। हन्तेत्यनुमतौ वा। दिव्याः पुराणान्तरेष्वपि श्रेष्ठत्वेन प्रसिद्धाः या आत्मविभूतयस्ताः कथयामीति योजना। प्राधान्यत इति। योगोपकारित्वेन विभूतय इह प्राधान्येन? योगस्तु संक्षेपेणैवोच्यते। तस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वादिति भावः। अन्यथा योगं विभूतिं च कथयेति पुष्टे विभूतिमात्रकथनेनानवहितचित्तत्वं भगवतः स्यात्। नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे विभूतिनामिति विपरिणामेनानुषञ्जनीयम्।