श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।10.25।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।10.25।। महर्षियोंमें भृगु और वाणियों-(शब्दों-) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञोंमें जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय मैं हूँ।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।10.25।।महर्षीणां सप्त ब्रह्मणां मध्ये भृगुरतितेजस्वित्वादहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानां मध्ये एकमक्षरं पदमोंकारोऽहमस्मि। यज्ञानां मध्ये जपयज्ञो हिंसादिदोषशून्यत्वेनात्यन्तशोधकोऽहमस्मि। स्थावराणां स्थितिमतां मध्ये हिमालयोऽहम्। शिखरवतां मध्ये हि मेरुरहमित्युक्तमतः स्थावरत्वेन शिखरवत्त्वेन चार्थभेदाददोषः।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।10.25।।महर्षीणामिति। भृगुरहं ब्रह्मानन्दजनको भक्तिनिर्द्धारकश्चेत्यतो मद्विभूतिः। अक्षरमेकं सर्वबीजं प्रणवरूपोऽस्मि।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।10.25।। व्याख्या--'महर्षीणां भृगुरहम्'--भृगु, अत्रि, मरीचि आदि महर्षियोंमें भृगुजी बड़े भक्त, ज्ञानी और तेजस्वी हैं। इन्होंने ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश-- इन तीनोंकी परीक्षा करके भगवान् विष्णुको श्रेष्ठ सिद्ध किया था। भगवान् विष्णु भी अपने वक्षःस्थलपर इनके चरणचिह्नको 'भृगुलता' नामसे धारण किये रहते हैं। इसलिये भगवान्ने इनको अपनी विभूति बताया है।

'गिरामस्म्येकमक्षरम्'-- सबसे पहले तीन मात्रा-वाला प्रणव प्रकट हुआ। फिर प्रणवसे त्रिपदा गायत्री, त्रिपदा गायत्रीसे वेद और वेदोंसे शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्मय जगत् प्रकट हुआ। अतः इन सबका कारण होनेसे और इन सबमें श्रेष्ठ होनेसे भगवान्ने एक अक्षर-- प्रणवको अपनी विभूति बताया है। गीतामें और जगह भी इसका वर्णन आता है जैसे --'प्रणवः सर्ववेदेषु' (7। 8) --'सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव मैं हूँ;' 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।' (8। 13) 'जो मनुष्य -- इस एक अक्षर प्रणवका उच्चारण करके और भगवान्का स्मरण करके शरीर छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है;' 'तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्' (17। 24) वैदिक लोगोंकी शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ प्रणवका उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' -- मन्त्रोंसे जितने यज्ञ किये जाते हैं, उनमें अनेक वस्तु-पदार्थोंकी, विधियोंकी,आवश्यकता पड़ती है और उनको करनेमें कुछ-न-कुछ दोष आ ही जाता है। परन्तु जपयज्ञ अर्थात् भगवन्नामका जप करनेमें किसी पदार्थ या विधिकी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसको करनेमें दोष आना तो दूर रहा, प्रत्युत सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। इसको करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायोंमें भगवान्के नामोंमें अन्तर तो होता है, पर नामजपसे कल्याण होता है -- इसको हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, जैन आदि सभी मानते हैं। इसलिये भगवान्ने जपयज्ञको अपनी विभूति बताया है।

  'स्थावराणां हिमालयः'--स्थिर रहनेवाले जितने भी पर्वत हैं, उन सबमें हिमालय तपस्याका स्थल होनेसे महान् पवित्र है और सबका अधिपति है। गङ्गा, यमुना आदि जितनी तीर्थस्वरूप पवित्र नदियाँ हैं, वे सभी प्रायः हिमालयसे प्रकट होती हैं। भगवत्प्राप्तिमें हिमालयस्थल बहुत सहायक है। आज भी दीर्घ आयुवाले बड़े-बड़े योगी और सन्तजन हिमालयकी गुफाओंमें साधन-भजन करते हैं। नर-नारायण ऋषि भी हिमालयमें जगत्के कल्याणके लिये आज भी तपस्या कर रहे हैं। हिमालय भगवान् शंकरका ससुराल है और स्वयं शंकर भी इसीके एक शिखर-- कैलास पर्वतपर रहते हैं। इसीलिये भगवान्ने हिमालयको अपनी विभूति बताया है।संसारमें जो कुछ भी विशेषता दीखती है, उसको संसारकी माननेसे मनुष्य उसमें फँस जाता है, जिससे उसका पतन होता है। परन्तु भगवान् यहाँ बहुत ही सरल साधन बताते हैं कि तुम्हारा मन जहाँ-कहीं और जिसकिसी विशेषताको लेकर आकृष्ट होता है, वहाँ उस विशेषताको तुम मेरी समझो कि यह विशेषता भगवान्की है और भगवान्से ही आयी है, यह इस परिवर्तनशील नाशवान् संसारकी नहीं है। ऐसा समझोगे, मानोगे तो तुम्हारा वह आकर्षण मेरेमें ही होगा। तुम्हारे मनमें मेरी ही महत्ता हो जायगी। इससे संसारका चिन्तन छूटकर मेरा ही चिन्तन होगा, जिससे तुम्हारा मेरेमें प्रेम हो जायगा।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।10.25।।गिरां वाक्यपदलक्षणानां एकमक्षरर्मोकारोऽस्मि। स्थावराणां स्थितिमताम्।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।10.25 -- 10.26।।एकमक्षरमोंकाराख्यम्। जपयज्ञो हिंसाशून्यत्वात्। स्थावराणां स्थितिमताम्।