श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।12.3।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.3।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।12.3 -- 12.4।।निर्गुणब्रह्मविदपेक्षया सगुणब्रह्मविदां कोऽतिशयो येन त एव युक्ततमास्तएवाभिमता इत्यपेक्षायां तमतिशयं वक्तुं तन्निरूपकान्निर्गुणब्रह्मविदः प्रस्तौति द्वाभ्यां -- येत्वित्यादिना। येऽक्षरं मामुपासते तेऽपि मामेव प्राप्नुवन्तीति द्वितीयगतेनान्वयः। पूर्वेभ्यो वैलक्षण्यद्योतनाय तुशब्दः। अक्षरं निर्विशेषं ब्रह्म वाचक्नवीब्राह्मणे प्रसिद्धं तस्य समर्पणाय सप्त विशेषणानि। अनिर्देश्यं शब्देन व्यपदेष्टुमशक्यं। यतोऽव्यक्तं शब्दप्रवृत्तिनिमित्तैर्जातिगुणक्रियासंबन्धै रहितं जातिं गुणं क्रियां संबन्धं वा द्वारीकृत्य शब्दप्रवृत्तेर्निर्विशेषे प्रवृत्त्ययोगात् कुतो जात्यादिराहित्यमत आह -- सर्वत्रगमिति। सर्वत्रगं सर्वव्यापि सर्वकारणं अतो जात्यादिशून्यं परिच्छिन्नस्य कार्यस्यैव जात्यादियोगदर्शनात्? आकाशादीनामपि कार्यात्वाभ्युपगमाच्च। अतएवाचिन्त्यं शब्दप्रवृत्तेरिव मनोवृत्तेरपि न विषयः। तस्या अपि परिच्छिन्नविषयत्वात्यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इति श्रुतेः। तर्हि कथंतं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि इति?दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या इति च श्रुतिःशास्त्रयोनित्वात् इति सूत्रं च। उच्यते। अविद्याकल्पितसंबन्धेन शब्दजन्यायां बुद्धिवृत्तौ चरमायां परमानन्दबोधरूपे शुद्धे वस्तुनि प्रतिबिम्बितेऽविद्यातत्कार्ययोः कल्पितयोर्निवृत्त्युपपत्तेरुपचारेण विषयत्वाभिधानात्। अतस्तत्र कल्पितमविद्यासंबन्धं प्रतिपादयितुमाह -- कूटस्थमिति। कूटस्थं यन्मिथ्याभूतं सत्यतया प्रतीयते तत्कूटमिति लोकैरुच्यते। यथा कूटकार्षापणः कूटसाक्षित्वमित्यादौ। अज्ञानमपि मायाख्यं सहकार्यप्रपञ्चेन मिथ्याभूतमपि लौकिकैः सत्यतया प्रतीयमानं कूटं तस्मिन्नाध्यासिकेन संबन्धेनाधिष्ठानतया तिष्ठतीति कूटस्थमज्ञानतत्कार्याधिष्ठानमित्यर्थः। एतेन सर्वानुपपत्तिपरिहारः कृतः। अतएव सर्वविकाराणामविद्याकल्पितत्वात्तदधिष्ठानं साक्षिचैतन्यं निर्विकारमित्याह -- अचलमिति। अचलं चलनं विकारः अचलत्वादेव ध्रुवं अपरिणामि नित्यं एतादृशं शुद्धं ब्रह्म मां पर्युपासते श्रवणेन प्रमाणगतामसंभावनामपोद्य मननेन च प्रमेयगतामनन्तरं विपरीतभावनानिवृत्तये ध्यायन्ति। विजातीयप्रत्ययतिरस्कारेण तैलधारावदविच्छिन्नसमानप्रत्ययप्रवाहेण निदिध्यासनसंज्ञकेन ध्यानेन विषयीकुर्वन्तीत्यर्थः। कथं पुनर्विषयेन्द्रियसंयोगे सति विजातीयप्रत्ययतिरस्कारोऽत आह -- संनियम्येति। संनियम्य स्वविषयेभ्य उपसंहृत्येन्द्रियग्रामं करणसमुदायम्। एतेन शमदमादिसंपत्तिरुक्ता। विषयभोगवासनायां सत्यां कुत इन्द्रियाणां,ततो निवृत्तिस्तत्राह -- सर्वत्रेति। सर्वत्र विषये समा तुल्या हर्षविषादाभ्यां रागद्वेषाभ्यां च रहिता मतिर्येषाम्। सम्यग्ज्ञानेन तत्कारणस्याज्ञानस्यापनीतत्वाद्विषयेषु दोषदर्शनाभ्यासेन स्पृहाया निरसनाच्च ते सर्वत्र समबुद्धयः। एतेन वशीकारसंज्ञावैराग्यमुक्तं। अतएव सर्वत्रात्मदृष्ट्या हिंसाकारणद्वेषरहितत्वात्सर्वभूतहिते रताःअभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहा इति मन्त्रेण दत्तसर्वभूताभयदक्षिणाः। कृतसंन्यासा इति यावत्।अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा संन्यासमाचरेत् इति स्मृते। एवंविधाः सर्वसाधनसंपन्नाः सन्तः स्वयं ब्रह्मभूता निर्विचिकित्सेन साक्षात्कारेण सर्वसाधनफलभूतेन मामक्षरं ब्रह्मैव ते प्राप्नुवन्ति। पूर्वमपि मद्रूपा एव सन्तोऽविद्यानिवृत्त्या मद्रूपा एव तिष्ठन्तीत्यर्थः।ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येतिब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादि श्रुतिभ्य इहापि चज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इत्युक्तम्।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।12.3 -- 12.4।।येत्विति। तुशब्दो भेदं द्योतयति। ये त्वक्षरमन्तर्यामिस्वरूपांशं पूर्वोक्तमनामरूपत्वादव्यक्तं गणितानन्दं बृहत्स्वरूपं पर्युपासते। स्वष्ट एव भेदः। अक्षरोऽव्यक्तः? अहं तु व्यक्तः। सोऽनिर्देश्यः? अहं तु स्वेच्छयाऽलौकिकनिर्देशार्हः। स सर्वत्रगः? अहं तु भक्तैकगम्यः। स चाचिन्त्यः अहं तु भक्तैश्चिन्त्यः। स तु कूटस्थः सर्वसाधारणः अहमसाधारणः। स त्वचलः स्थिरात्मा? अहं चलः तत्रतत्र विहरन् चलामि। स तु ध्रुवं पदरूपमैश्वर्यमध्यात्मं? अहं त्वीश्वरस्तन्निलयन इति। तदुपासका मां ब्रह्मानन्दात्मिकां श्रियमेव ध्रुवात्मानं वा मां प्राप्नुवन्ति।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।12.3।। व्याख्या--'तु'--यहाँ 'तु' पद साकार-उपासकोंसे निराकार-उपासकोंकी भिन्नता दिखानेके लिये आया है। 'संनियम्येन्द्रियग्रामम्'--'सम्' और 'नि'-- दो उपसर्गोंसे युक्त 'संनियम्य' पद देकर भगवान्ने यह बताया है कि सभी इन्द्रियोंको सम्यक् प्रकारसे एवं पूर्णतः वशमें करे, जिससे वे किसी अन्य विषयमें न जायँ। इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुण-तत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है। सगुण-उपासनामें तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान्के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण-उपासनामें इन्द्रिय-संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है। निर्गुण-उपासनामें चिन्तनका कोई आधार न रहनेसे इन्द्रियोंका सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहनेपर) विषयोंमें मन जा सकता है और विषयोंका चिन्तन होनेसे पतन होनेकी अधिक सम्भावना रहती है (गीता 2। 62 -- 63)। अतः निर्गुणोपासकके लिये सभी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाते हुए सम्यक् प्रकारसे पूर्णतः वशमें करना आवश्यक है। इन्द्रियोंको केवल बाहरसे ही वशमें नहीं करना है? प्रत्युत विषयोंके प्रति साधकके अन्तःकरणमें भी राग नहीं रहना चाहिये; क्योंकि जबतक विषयोंमें राग है, तबतक ब्रह्मकी प्राप्ति कठिन है (गीता 15। 11)।

   गीतामें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे जितनी निर्गुणोपासना तथा कर्मयोगमें आयी है? उतनी सगुणोपासनामें नहीं।

  'अचिन्त्यम्' -- मन-बुद्धिका विषय न होनेके कारण 'अचिन्त्यम्' पद निर्गुण-निराकार ब्रह्मका वाचक है; क्योंकि मन-बुद्धि प्रकृतिका कार्य होनेसे सम्पूर्ण प्रकृतिको भी अपना विषय नहीं बना सकते, फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मा इनका विषय बन ही कैसे सकता है ! 

प्राकृतिक पदार्थमात्र चिन्त्य है और परमात्मा प्रकृतिसे अतीत, होनेके कारण सम्पूर्ण पदार्थोंसे भी अतीत, विलक्षण हैं। प्रकृतिकी सहायताके बिना उनका चिन्तन, वर्णन नहीं किया जा सकता। अतः परमात्माको स्वयं-(करण-निरपेक्ष-ज्ञान) से ही जाना जा सकता है; प्रकृतिके कार्य मन-बुद्धि आदि (करण-सापेक्ष-ज्ञान) से नहीं।

  'सर्वत्रगम्' -- सब देश, काल, वस्तु और व्यक्तियोंमें परिपूर्ण होनेसे ब्रह्म 'सर्वत्रगम्' है। सर्वव्यापी होनेके कारण वह सीमित मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे ग्रहण नहीं किया जा सकता।

  'अनिर्देश्यम्' -- जिसे इदंतासे नहीं बताया जा सकता अर्थात् जो भाषा, वाणी आदिका विषय नहीं है, वह,'अनिर्देश्यम्' है। निर्देश (संकेत) उसीका किया जा सकता है, जो जाति, गुण, क्रिया एवं सम्बन्धसे युक्त हो और देश, काल, वस्तु एवं व्यक्तिसे परिच्छिन्न हो परन्तु जो चिन्मय तत्त्व सर्वत्र परिपूर्ण हो, उसका संकेत जड भाषा, वाणीसे कैसे किया जा सकता है

  'कूटस्थम्'-- यह पद निर्विकार, सदा एकरस रहनेवाले सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका वाचक है। सभी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें रहते हुए भी वह तत्त्व सदा निर्विकार और निर्लिप्त रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता। इसलिये वह 'कूटस्थ' है। कूट-(अहरन-) में तरह-तरहके गहने, अस्त्र, औजार आदि पदार्थ गढ़े जाते हैं, पर वह ज्यों-का-त्यों रहता है। इसी प्रकार संसारके भिन्न-भिन्न प्राणी-पदार्थोंकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाश होनेपर भी परमात्मा सदा ज्यों-के-त्यों रहते हैं।

  'अचलम्' -- यह पद आनेजानेकी क्रियासे सर्वथा रहित ब्रह्मका वाचक है। प्रकृति चल है और ब्रह्म अचल है।

   'ध्रुवम्' -- जिसकी सत्ता निश्चित (सत्य) और नित्य है? उसको ध्रुव कहते हैं। सच्चिदानन्दघन ब्रह्म सत्तारूपसे सर्वत्र विद्यमान रहनेसे 'ध्रुवम्' है।

निर्गुण ब्रह्मके आठों विशेषणोंमें सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषण 'ध्रुवम्' है। ब्रह्मके लिये अनिर्देश्य? अचिन्त्य आदि निषेधात्मक विशेषण देनेसे कोई ऐसा न समझ ले कि वह है ही नहीं, इसलिये यहाँ 'ध्रुवम्' विशेषण देकर उस तत्त्वकी निश्चित सत्ता बतायी गयी है। उस तत्त्वका कभी कहीं किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं होता। उसकी सत्तासे ही असत्(संसार) को सत्ता मिल रही है -- जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया।। (मानस 1। 117। 4)।

  'अक्षरम्' -- जिसका कभी क्षरण अर्थात् विनाश नहीं होता तथा जिसमें कभी कोई कमी नहीं आती, वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म 'अक्षरम्' है।

  'अव्यक्तम्' -- जो व्यक्त न हो अर्थात् मन-बुद्धिइन्द्रियोंका विषय न हो और जिसका कोई रूप या आकार न हो, उसको 'अव्यक्तम्' कहा गया है।

     'पर्युपासते' -- यह पद यहाँ निर्गुण-उपासकोंकी सम्यक् उपासनाका बोधक है। शरीर-सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंमें वासना तथा अहंभावका अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्दघन परमात्मामें अभिन्नभावसे नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है।

  इन श्लोकोंमें आठ विशेषणोंसे जिस विशेष वस्तुतत्त्वका लक्ष्य कराया गया है और उससे जो विशेष वस्तु समझमें आती है, वह बुद्धिविशिष्ट ब्रह्मका ही स्वरूप है, जो कि पूर्ण नहीं है; क्योंकि (लक्षण और विशेषणोंसे रहित) निर्गुण-निर्विशेष ब्रह्मका स्वरूप (जो बुद्धिसे अतीत है) किसी भी प्रकारसे पूर्णतया बुद्धि आदिका विषय नहीं हो सकता। हाँ, इन विशेषणोंका लक्ष्य रखकर जो उपासना की जाती है, वह निर्गुण ब्रह्मकी ही उपासना है और इसके परिणाममें प्राप्ति भी निर्गुण ब्रह्मकी ही होती है।

विशेष बात

परमात्माको तत्त्वसे समझानेके लिये दो प्रकारके विशेषण दिये जाते हैं -- निषेधात्मक और विध्यात्मक। परमात्माके अक्षर, अनिर्देश्य, अव्यक्त, अचिन्त्य, अचल, अव्यय, असीम, अपार, अविनाशी आदि विशेषण,निषेधात्मक हैं और सर्वव्यापी, कूटस्थ, ध्रुव, सत्, चित्त, आनन्द आदि विशेषण विध्यात्मक हैं। परमात्माके निषेधात्मक विशेषणोंका तात्पर्य प्रकृतिसे परमात्माकी असङ्गता बताना है और विध्यात्मक विशेषणोंका तात्पर्य परमात्माकी स्वतन्त्र 'सत्ता' बताना है।

    परमात्मतत्त्व सांसारिक प्रवृत्ति और निवृत्ति-- दोनोंसे परे (सहज निवृत्त) और दोनोंको समानरूपसे प्रकाशित करनेवाला है। ऐसे निरपेक्ष परमात्मतत्त्वका लक्ष्य करानेके लिये और बुद्धिको परमात्माके नजदीक पहुँचानेके लिये ही भिन्न-भिन्न विशेषणोंसे परमात्माका वर्णन (लक्ष्य) किया जाता है।

   गीतामें परमात्मा और जीवात्माके स्वरूपका वर्णन प्रायः समान ही मिलता है। परमात्माके लिये यहाँ जो विशेषण दिये गये हैं, वही विशेषण गीतामें जीवात्माके लिये भी दिये गये हैं; जैसे -- दूसरे अध्यायके चौबीसवेंपचीसवें श्लोकोंमें 'सर्वगतः, अचलः, अव्यक्तः, अचिन्त्यः' आदि और पन्द्रहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें 'कूटस्थः' एवं 'अक्षरः' विशेषण जीवात्माके लिये आये हैं। इसी प्रकार सातवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें 'अव्ययम्' विशेषण परमात्माके लिये और चौदहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'अव्ययम्' विशेषण जीवात्माके लिये आया है।

    संसारमें व्यापक-रूपसे भी परमात्मा और जीवात्माको समान बताया गया है; जैसे -- आठवें अध्यायके बाईसवें तथा अठारहवें अध्यायके छियालीसवें श्लोकमें येन सर्वमिदं ततम् पदोंसे और नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें 'मया ततमिदं सर्वम्' पदोंसे परमात्माको सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त बताया गया है। इसी प्रकार दूसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें 'येन सर्वमिदं ततम्' पदोंसे जीवात्माको भी सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त बताया गया है।

  जैसे नेत्रोंकी दृष्टि आपसमें नही टकराती अथवा व्यापक होनेपर भी शब्द परस्पर नहीं टकराते। ऐसे ही (द्वैतमतके अनुसार) सम्पूर्ण जगत्में समानरूपसे व्याप्त होनेपर भी निरवयव होनेसे परमात्मा और जीवात्माकी,सर्वव्यापकता आपसमें नहीं टकराती।

 'सर्वभूतहिते रताः' -- कर्मयोगके साधनमें आसक्ति, ममता, कामना और स्वार्थके त्यागकी मुख्यता है। मनुष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थोंको 'अपना' और 'अपने लिये' न मानकर उनको दूसरोंकी सेवामें लगाता है; तब उसकी आसक्ति, ममता, कामना और स्वार्थभावका त्याग स्वतः हो जाता है। जिसका उद्देश्य प्राणिमात्रकी सेवा करना ही है, वह अपने शरीर और पदार्थोंको (दीनदुःखी, अभावग्रस्त) प्राणियोंकी सेवामें लगायेगा ही। शरीरको दूसरोंकी सेवामें लगानेसे 'अहंता' और पदार्थोंको दूसरोंकी सेवामें लगानेसे, 'ममता' नष्ट होती है। साधकका पहलेसे ही यह लक्ष्य होता है कि जो पदार्थ सेवामें लग रहे हैं, वे सेव्यके ही हैं। अतः कर्मयोगके साधनमें सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत रहना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये 'सर्वभूतहिते रताः' पदका प्रयोग कर्मयोगका आचरण करनेवालेके सम्बन्धमें करना ही अधिक युक्तिसङ्गत है। परन्तु भगवान्ने इस पदका प्रयोग यहाँ तथा पाँचवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें -- दोनों ही स्थानोंपर ज्ञानयोगियोंके सम्बन्धमें किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये कर्मयोगकी प्रणालीको अपनानेकी आवश्यकता ज्ञानयोगमें भी है।

  एक बात खास ध्यान देनेकी है। शरीर, पदार्थ और क्रियासे जो सेवा की जाती है, वह सीमित ही होती है; क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ मिलकर भी सीमित ही हैं। परन्तु सेवामें प्राणिमात्रके हितका भाव असीम होनेसे सेवा भी असीम हो जाती है। अतः पदार्थोंके अपने पास रहते हुए भी (उनमें आसक्ति, ममता आदि न करके) उनको सम्पूर्ण प्राणियोंका मानकर उन्हींकी सेवामें लगाना है; क्योंकि वे पदार्थ समष्टिके ही हैं। ऐसा असीम भाव होनेपर जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेके कारण साधकको असीम तत्त्व-(परमात्मा-) की प्राप्ति हो जाती है। कारण कि पदार्थोंको व्यक्तिगत (अपना) माननेसे ही मनुष्यमें परिच्छिन्नता (एकदेशीयता) तथा विषमता रहती है और पदार्थोंको व्यक्तिगत न मानकर सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव रखनेसे परिच्छिन्नता तथा विषमता मिट जाती है। इसके विपरीत साधारण मनुष्यका ममतावाले प्राणियोंकी सेवा करनेका सीमित भाव रहनेसे वह चाहे अपना सर्वस्व उनकी सेवामें क्यों न लगा दे, तो भी पदार्थोंमें तथा जिनकी सेवा करे, उनमें आसक्ति, ममता आदि रहनेसे (सीमित भावके कारण) उसे असीम परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती। अतः असीम परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये प्राणिमात्रके हितमें रति अर्थात् प्रीतिरूप असीम भावका होना आवश्यक है। 'सर्वभूतहिते रताः' पद उसी भावको व्यक्त करते हैं।ज्ञानयोगका साधक जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहता तो है परन्तु जबतक उसके हृदयमें नाशवान् पदार्थोंका आदर है, तबतक पदार्थोंको मायामय अथवा स्वप्नवत् समझकर उनका ऐसे ही त्याग कर देना उसके लिये कठिन है। परन्तु कर्मयोगका साधक पदार्थोंको दूसरोंकी सेवामें लगाकर उनका त्याग ज्ञानयोगीकी अपेक्षा सुगमतापूर्वक कर सकता है। ज्ञानयोगीमें तीव्र वैराग्य होनेसे ही पदार्थोंका त्याग हो सकता है परन्तु कर्मयोगी थोड़े वैराग्यमें ही पदार्थोंका त्याग (परहित-में) कर सकता है। प्राणियोंके हितमें पदार्थोंका सदुपयोग करनेसे जडतासे सुगमतापूर्वक सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। भगवान्ने यहाँ 'सर्वभूतहिते रताः' पद देकर यही बताया है कि प्राणिमात्रके हितमें रत रहनेसे पदार्थोंके प्रति आदरबुद्धि रहते हुए भी जडतासे सम्बन्धविच्छेद सुगमतापूर्वक हो जायगा। प्राणिमात्रका हित करनेके लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है।

निर्गुण-उपासकोंकी साधनाके अन्तर्गत अनेक अवान्तर भेद होते हुए भी मुख्य भेद दो हैं -- (1) जडचेतन और चरअचरके रूपमें जो कुछ प्रतीत होता है, वह सब आत्मा या ब्रह्म है और (2) जो कुछ दृश्यवर्ग प्रतीत होता है, वह अनित्य, क्षणभङ्गुर और असत् है -- इस प्रकार संसारका बाध करनेपर जो तत्त्व शेष रह जाता है, वह आत्मा या ब्रह्म है।पहली साधनामें सब कुछ ब्रह्म है इतना सीख लेनेमात्रसे ज्ञाननिष्ठा सिद्ध नहीं होती। जबतक,अन्तःकरणमें राग अर्थात् काम-क्रोधादि विकार हैं, तबतक ज्ञाननिष्ठाका सिद्ध होना बहुत कठिन है। जैसे राग मिटानेके लिये कर्मयोगीके लिये सभी प्राणियोंके हितमें रति होना आवश्यक है, ऐसे ही निर्गुणउपासना करनेवाले साधकोंके लिये भी प्राणिमात्रके हितमें रति होना आवश्यक है -- तभी राग मिटकर ज्ञाननिष्ठा सिद्ध हो सकती है। इसी बातका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ 'सर्वभूतहिते रताः' पद आये हैं।

दूसरी साधनामें, जो साधक संसारसे उदासीन रहकर एकान्तमें ही तत्त्वका चिन्तन करते रहते हैं, उनके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग सहायक तो होता है परन्तु केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेमात्रसे ही सिद्धि प्राप्त नहीं होती (गीता 3। 4), प्रत्युत सिद्धि प्राप्त करनेके लिये भोगोंसे वैराग्य और शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धिमें अपनेपनके त्यागकी अत्यन्त आवश्यकता है। इसलिये वैराग्य और निर्ममताके लिये 'सर्वभूतहिते रताः' होना आवश्यक है।ज्ञानयोगका साधक प्रायः समाजसे दूर, असङ्ग रहता है। अतः उसमें व्यक्तित्व रह जाता है, जिसे दूर करनेके लिये संसारमात्रके हितका भाव रहना अत्यन्त आवश्यक है।वास्तवमें असङ्गता शरीरसे ही होनी चाहिये। समाजसे असङ्गता होनेपर अहंभाव दृढ़ होता है, अर्थात् मिटता नहीं। जबतक साधक अपनेको शरीरसे स्पष्टतः अलग अनुभव नहीं कर लेता, तबतक संसारसे अलग रहनेमात्रसे उसका लक्ष्य सिद्ध नहीं होता क्योंकि शरीर भी संसारका ही अङ्ग है और शरीरमें तादात्म्य और ममताका न रहना ही उससे वस्तुतः अलग होना है। तादात्म्य और ममता मिटानेके लिये साधकको प्राणिमात्रके हितमें लगना आवश्यक है।दूसरी बात यह है कि साधक सर्वदा एकान्तमें ही रहे, यह सम्भव भी नहीं है क्योंकि शरीरनिर्वाहके लिये उसे व्यवहारक्षेत्रमें आना ही पड़ता है और वैराग्यमें कमी होनेपर उसके व्यवहारमें अभिमानके कारण कठोरता आनेकी सम्भावना रहती है तथा कठोरता आनेसे उसके व्यक्तित्व-(अहंभाव-) का नाश नहीं होता। अतः उसे तत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनता होती है। व्यवहारमें कहीं कठोरता न आ जाय, इसके लिये भी यह जरूरी है कि साधक सभी प्राणियोंके हितमें रत रहे। ऐसे ज्ञानयोगके साधकद्वारा सेवाकार्यका विस्तार चाहे न हो परन्तु भगवान् कहते हैं कि वह भी (सभी प्राणियोंके हितमें रति होनेके कारण) मेरेको प्राप्त कर लेगा।सगुणोपासक और निर्गुणोपासक -- दोनों ही प्रकारके साधकोंके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव रखना जरूरी है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितसे अलग अपना हित माननेसे अहम् अर्थात् व्यक्तित्व बना रहता है, जो साधकके लिये आगे चलकर बाधक होता है। वास्तवमें कल्याण अहम् के मिटनेपर ही होता है। अपने लिये किये जानेवाले साधनसे अहम् बना रहता है, इसलिये अहम्को पूर्णतया मिटानेके लिये साधकको प्रत्येक क्रिया (खाना, पीना, सोना आदि एवं जप, ध्यान, पाठ, स्वाध्याय आदि भी) संसारमात्रके हितके लिये ही करनी चाहिये। संसारके हितमें ही अपना हित निहित है। भगवान्की मात्र शक्ति परहितमें लग रही है। अतः जो सबके हितमें लगेगा, भगवान्की शक्ति उसके साथ हो जायगी।केवल दूसरेके लिये वस्तुओंको देना और शरीरसे सेवा कर देना ही सेवा नहीं है, प्रत्युत अपने लिये कुछ भी न चाहकर दूसरेका हित कैसे हो, उसको सुख कैसे मिले -- इस भावसे कर्म करना ही सेवा है। अपनेको सेवक कहलानेका भाव भी मनमें नहीं रहना चाहिये। सेवा तभी हो सकती है, जब सेवक जिसकी सेवा करता है, उसे अपनेसे अभिन्न (अपने शरीरकी तरह) मानता है और बदलेमें उससे कुछ भी लेना नहीं चाहता।

जैसे मनुष्य बिना किसीके उपदेश दिये अपने शरीरकी सेवा स्वतः ही बड़ी सावधानीसे करता है और सेवा करनेका अभिमान भी नहीं करता, ऐसे ही सर्वत्र आत्मबुद्धि होनेसे सिद्ध महापुरुषोंकी स्वतः सबके हितमें रति रहती है (गीता 6। 32)। उनके द्वारा प्राणिमात्रका कल्याण होता है परन्तु उनके मनमें लेशमात्र भी ऐसा,भाव नहीं होता कि हम किसीका कल्याण कर रहे हैं। उनमें अहंताका सर्वथा अभाव हो जाता है, अतः ऐसे जीवन्मुक्त महापुरुषोंको आदर्श मानकर साधको चाहिये कि सर्वत्र आत्मबुद्धि करके संसारके किसी भी प्राणीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न पहुँचाकर उनके हितमें सदा तत्परतासे स्वाभाविक ही रत रहे।

'सर्वत्र समबुद्धयः'-- इस पदका भाव यह है कि निर्गुण-निराकार ब्रह्मके उपासकोंकी दृष्टि सम्पूर्ण प्राणीपदार्थोंमें परिपूर्ण परमात्मापर ही रहनेके कारण विषम नहीं होती क्योंकि परमात्मा सम है (गीता 5। 19)।यहाँ भगवान् ज्ञाननिष्ठावाले उपासकोंके लिये इस पदका प्रयोग करके एक विशेष भाव प्रकट करते हैं कि ज्ञान-मार्गियोंके लिये एकान्तमें रहकर तत्त्वका चिन्तन करना ही एकमात्र साधन नहीं है क्योंकि 'समबुद्धयः' पदकी सार्थकता विशेषरूपसे व्यवहारकालमें ही होती है। दूसरी बात, संसारसे हटकर शरीरको निर्जन स्थानमें ले जाना ही सर्वथा एकान्तसेवन नहीं है क्योंकि शरीर भी तो संसारका ही एक अङ्ग है। शऱीर और संसारको अलग-अलग देखना विषमबुद्धि है। अतः शरीर और संसारको एक देखनेपर ही समबुद्धि हो सकती है। वास्तविक एकान्तकी सिद्धि तो परमात्मतत्त्वके अतिरिक्त अन्य सभी पदार्थों अर्थात् शरीर और संसारकी सत्ताका अभाव होनेसे ही होती है। साधन करनेके लिये एकान्त भी उपयोगी है परन्तु सर्वथा एकान्तसेवी साधकके द्वारा व्यवहारकालमें भूल होना सम्भव है। शरीरमें अपनापन न होना ही वास्तविक एकान्त है। अतः साधकको चाहिये कि वास्तविक एकान्तको लक्ष्यमें रखकर अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिसे अपनी अहंता-ममता हटाकर सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्ममें अभिन्न भावसे स्थित रहे। ऐसे साधक ही वास्तवमें समबुद्धि हैं।गीतामें समबुद्धिका तात्पर्य समदर्शन है, न कि समवर्तन। पाँचवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें भगवान्ने विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण तथा गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल -- इन पाँच प्राणियोंके नाम गिनाये हैं, जिनके साथ व्यवहारमें किसी भी प्रकारसे समता होनी सम्भव नहीं। वहाँ भी 'समदर्शिनः' पद प्रयुक्त हुआ है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि सबके प्रति व्यवहार कभी समान नहीं हो सकता। व्यवहार एक समान कोई कर सकता भी नहीं और होना चाहिये भी नहीं। व्यवहारमें भिन्नता होनी आवश्यक है। व्यवहारमें साधककी विभिन्न प्राणीपदार्थोंकी आकृति और उपयोगितापर दृष्टि रहते हुए भी वास्तवमें उसकी दृष्टि उन प्राणीपदार्थोंमें परिपूर्ण परमात्मापर ही रहती है। जैसे विभिन्न प्रकारके गहनोंसे तत्त्व-(सोने-) में कोई अन्तर नहीं आता, ऐसे ही विभिन्न-प्रकारके व्यवहारसे साधककी तत्त्वदृष्टिमें कोई अन्तर नहीं आता। सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति साधकमें आन्तरिक समता रहती है। यहाँ 'समबुद्धयः' पदसे उस आन्तरिक समताकी ओर ही लक्ष्य कराया गया है।सिद्ध महापुरुषोंकी दृष्टिमें एक परमात्माके सिवाय दूसरी सत्ता न रहनेके कारण वे सदा और सर्वत्र समबुद्धि ही हैं। सिद्ध महापुरुषोंकी स्वतःसिद्ध स्थिति ही साधकोंके लिये आदर्श होती है और उसीको लक्ष्य करके वे चलते हैं। साधकोंकी दृष्टिमें परमात्माके सिवाय अन्य पदार्थोंकी जितने अंशमें सत्ता रहती है, उतने ही अंशमें उनकी बुद्धिमें समता नहीं रहती। अतः साधककी बुद्धिमें अन्य पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ता जैसेजैसे कम होती जायगी, वैसेवैसे ही उसकी बुद्धि सम होती जायगी।साधक अपनी बुद्धिसे सर्वत्र परमात्माको देखनेकी चेष्टा करता है, जबकि सिद्ध महापुरुषोंकी बुद्धिमें परमात्मा स्वाभाविकरूपसे इतनी घनतासे परिपूर्ण हैं कि उनके लिये परमात्माके सिवाय और कुछ है ही नहीं। इसलिये उनकी बुद्धिका विषय परमात्मा नहीं है, प्रत्युत उनकी बुद्धि ही परमात्मासे परिपूर्ण है। अतः वे 'सर्वत्र समबुद्धयः' हैं।'ते प्राप्नुवन्ति मामेव' -- निर्गुणके उपासक कहीं यह समझ लें कि निर्गुण तत्त्व कोई दूसरा है और सगुण कोई दूसरा है, इसलिये भगवान् यह स्पष्ट करते हैं कि निर्गुण ब्रह्म मुझसे भिन्न नहीं है (गीता 9। 4 14। 27)। सगुण और निर्गुण दोनों मेरे ही स्वरूप हैं।

इन दोनों श्लोकोंमें भगवान्ने निर्गुणउपासकोंके लिये चार बातें बतायी हैं (1) निर्गुणतत्त्वका स्वरूप क्या है, (2) साधककी स्थिति क्या है, (3) उपासनाका स्वरूप क्या है और (4) साधक क्या प्राप्त करता है।

(1) अर्जुनने इसी अध्यायके पहले श्लोकके उत्तरार्धमें जिस निर्गुणतत्त्वके लिये 'अक्षरम्' और 'अव्यक्तम्' दो विशेषण प्रयुक्त करके प्रश्न किया था, उसी तत्त्वका विस्तारसे वर्णन करनेके लिये भगवान्ने छः और विशेषण अर्थात् कुल आठ विशेषण दिये, जिनमें पाँच निषेधात्मक (अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, अचिन्त्यम् और अचलम्) तथा तीन विध्यात्मक '(सर्वत्रगम्, कूटस्थम्' और 'ध्रुवम्)' विशेषण हैं।

(2) सब देश, काल, वस्तु और व्यक्तियोंमें परिपूर्ण तत्त्वपर दृष्टि रहनेसे निर्गुणउपासकोंकी सर्वत्र समबुद्धि होती है। देहाभिमान और भोगोंकी पृथक् सत्ता माननेके कारण ही भोग भोगनेकी इच्छा होती है और भोग भोगे जाते हैं। परन्तु इन निर्गुण-उपासकोंकी दृष्टिमें एक परमात्माके अतिरिक्त अन्य किसी वस्तुकी पृथक् (स्वतन्त्र) सत्ता न होनेके कारण उनकी बुद्धिमें भोगोंका महत्त्व नहीं रहता। अतः वे सुगमतापूर्वक इन्द्रियोंका संयम कर लेते हैं। सर्वत्र समबुद्धिवाले होनेके कारण उनकी सब प्राणियोंके हितमें रति रहती है। इसलिये वे 'सर्वभूतहिते रताः' हैं।

(3) साधकका सब समय उस निर्गुणतत्त्वकी ओर दृष्टि रखना (तत्त्वके सम्मुख रहना) ही उपासना है।

(4) भगवान् कहते हैं कि ऐसे साधकोंको जो निर्गुणब्रह्म प्राप्त होता है, वह मैं ही हूँ। तात्पर्य यह है कि सगुण और निर्गुण एक ही तत्त्व है।

 सम्बन्ध--अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने दूसरे श्लोकमें सगुण-उपासकोंको सर्वश्रेष्ठ बताया और तीसरेचौथे श्लोकोंमें निर्गुण-उपासकोंको अपनी प्राप्तिकी बात कही। अब दोनों प्रकारकी उपासनाओंके अवान्तर भेद तथा कठिनाई एवं सुगमताका वर्णन आगेके तीन श्लोकोंमें करते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।12.3।।निर्गुणोपासनस्य साक्षान्मोक्षहेतुत्वेनातिश्रैष्ठ्यं बोधयन् सुशकत्वेन सगुणोपासनस्य श्रेष्ठतां बोधयति -- येत्विति। तुशब्दो निर्विशेषोपासनस्य सविशेषोपासनफलत्वात्पूर्वेभ्यः श्रैष्ठ्यद्योतनार्थः। ये तु अक्षरं न क्षरत्यश्रुते वेत्यक्षरंएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्नस्वमदीर्घमपूर्वमनपरम इत्यादिश्रुत्या सर्वधर्मशून्येत्वेन बोधितं ब्रह्मणो निर्विशेषं स्वरुपं लक्षयति। निर्देष्टुं न शक्यते। शब्दाप्रतिपाद्यमित्यर्थः। यतोऽव्यक्तं प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्न व्यज्यत इत्यवक्तं रुपादिभिः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तैः संज्ञाजातिगुणक्रियासंबन्धैश्च रहितत्वादित्यर्थः। यतोऽनिर्देश्यमतोऽव्यक्तं रुपादिहीनमिति वा। अस्मिन्पक्षे हेतुहेतुमद्भावासामञ्जस्यमभिप्रेत्यायं पक्ष आचार्यैरुपेक्षिः। अव्यक्तत्वं कुत इत्य आह। सर्वत्रगं सर्वाधिष्ठानत्वात्सर्वस्मिन्नाकाशवद्य्वापकमतः केनापि प्रमाणेन परिच्छेत्तुमशक्यमव्यक्तमित्यर्थः। यद्वा ननु एं तर्हि शून्यत्वमेव ब्रह्मण आगतमिति तत्राह। सर्वत्रगं सर्वेषु व्यभिचरत्सु घटपटादिष्वव्यभिचरितसद्रूपेण व्यापकं सर्वस्य सत्तास्फूर्तिप्रदातुः शून्यत्वासंभवादिति भावः। अव्यक्तत्वादचिन्त्यं करणागोचरस्य मनसा चिन्तयितुमशक्यत्वात्। तथाच श्रुतिःयतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा मह इति। एतेन सर्वत्रगं चेत्यसर्वैः कुतो नावगम्यत इति शङ्का निरस्ता। सर्वप्रमाणापरिच्छेद्यस्यातिकुशलेनापि चिन्तयुतुमप्यशक्यस्य सर्वावगतिविषयताया दुरनिरस्तत्वात्। नन्वेवं चेत्तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि?दृश्यते त्वग्र्यया बुद्य्धा सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः?मनसैवानुद्रष्टव्यं?आत्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यःअनन्याश्चिन्तयन्तो मां?शास्त्रयोनित्वात् इत्यादिश्रुतिस्मृतिसूत्राणां का गतिरितिचेत्तत्राह। कूटस्थं दृश्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्योःअनन्याश्चिन्तयन्तो मां?शास्त्रयोनित्वात् इत्यादिश्रुतिस्मृतिसूत्राणां का गतिरितिचेत्तत्राह। कूटस्थं दृश्यमानगुणकमन्तर्दोषं वस्तु कूटशब्दप्रतिपाद्यम्। कूटरुपकं कोटसाक्ष्यं कूटकार्षापण इत्यादौ तथाभूते कूटशब्दस्य प्रयोगदर्शनात्।तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्?मायाचावित्या च स्वयमेव भवति?मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरं?तैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया इत्यादौ मायादिशब्दिततया प्रसिद्धमविद्यादि तदिहानेकसंसारबीजमन्तर्दोषं कूटशब्देन ग्राह्यम्। तस्मिन्कूटेऽध्यक्षतयाधिष्ठानतया तिष्ठतीति कूटस्थम्। भाष्येऽविद्यादीति आदिपदात् अहंकारदिकं ग्राह्यम्। तथाच ब्रह्मण्यारोपितस्याविद्यादेर्निवृत्तये उपचारेण निर्विशेषस्य शास्त्रविषयत्वमिति भावः। यद्वा अतएव राशिरिव स्थितं कुटस्थं निर्विकारण्। एतएवाचलं अध्यस्तस्याविद्यादेर्गुणदोषाभ्यां गुणदोषवत्त्वेन स्वस्वरुपान्न चलतीत्यचलमित्यर्थः। अतएव ध्रुवं नित्यम्। सदैकरसमिति यावत्। एतादृशं अक्षरं ये पर्युपासते परि समन्तादुपासते श्रवणमननाभ्यां उपास्यस्यार्थस्य विषयीकरणेन सामीप्यमुपगम्यानवच्छिन्नतैलधारावत्समानप्रत्ययप्रवाहेण दीर्घकालमासनं निदिध्यासनं कुर्वन्तीत्यर्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।12.3।।एवमुपासकांस्तुत्वा अव्यक्तविदां ज्ञानिनां दौर्लभ्यं श्लोकत्रयेणाह -- येत्विति। तुशब्दः सगुणाद्वैलक्षण्यार्थः। अक्षरंएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इत्यादिश्रुत्या सर्वधर्मशून्यं निरूपितम्। अतएवानिर्देश्यं निर्देष्टुमशक्यं वाचा। अव्यक्तं च वाचामगोचरत्वाद्बुद्धेरप्यविषय इत्यर्थः। तथा च श्रुतिःयतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इति। ब्रह्मणो वाङ्मनसातीतत्वं दर्शयति। पर्युपासते सर्वप्रकारेणोपासते। उपासनमिहानात्मनामदर्शनमेव। यथोक्तंअनात्मादर्शनेनैव परात्मानमुपास्महे इति। ननु तर्ह्येवंविधस्य शून्यकल्पस्य सत्त्वे किं मानमत आह -- सर्वत्रगमिति। सत्तारूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वत्र गतम्। यत्सत्तया सर्वं सत्तावद्भवति कथं तस्यासत्त्वं वाच्यमिति भावः। नन्वेवं तार्किकाभिमतं सत्तासामान्यमुक्तं स्यात्। तद्धि घटः सन्पटः सन्निति सर्वत्रानुगतं दृश्यत इत्याशङ्क्याह -- अचिन्त्यमिति। सत्तासामान्यं हि प्रत्यक्षं तदपि ब्रह्मसत्तानुवेधेनैवात्मानं लभते न स्वतःसिद्धं सामान्यं सत् जातिः सती घटत्वं सदिति प्रत्ययात् सामान्यस्य। सदिति प्रत्ययागोचरत्वे तु तस्यासत्त्वापत्त्या पदार्थत्वमेव न स्यात्। तस्मात्सर्वाधिष्ठानभूतं ब्रह्मरूपादिहीनत्वाच्चिन्तयितुमशक्यं? दूरे तस्य सर्वगतत्वेन प्रत्यक्षगोचरत्वमित्यर्थः। ननु सत्सदिति प्रत्ययस्यान्यथाप्युपपत्तौ सत्तासामान्यवादिनं प्रति तेनाधिष्ठानभूतं ब्रह्म न साधयितुं शक्यमत आह -- कूटस्थमिति। वस्तुतोऽसदपि सदिवावभासमानं कूटम्। यथा कूटकार्षापणं कूटतुलेति तद्वत्कूटः अहंकारः प्रतीच्यभेदेन भासमानत्वे सति कादाचित्कत्वाद्यो यदभेदेन कदाचिद्भाति स तत्र मिथ्याकल्पितो यथा रज्जूरगस्तथा चायमहंकारो मिथ्यात्वात् कूटसंज्ञस्तत्र तिष्ठति तद्भासकत्वेनेति कूटस्थं चैतन्यम्। अहमनुभवे हि अहंकारो दृश्यतया भाति तद्भासकं च चैतन्यं ततोऽन्यत्। यथा घटभासकोऽर्को घटादन्यस्तद्वत्। एतेन नित्यापरोक्षत्वं ब्रह्मणः साधितम्। नन्वहमनुभव एवात्मविषयोऽतोऽहमर्थ एवात्मा न ततोऽन्य आत्मास्तीत्याशङ्क्याह -- अचलमिति। अहमर्थो हि सुखी दुःखी परिणाम्याविर्भावतिरोभावशीलश्चातश्चञ्चलः। आत्मा तु न तथा। तस्य तथात्वेऽनिर्मोक्षापत्तेः वह्न्यौष्ण्यवद्दुःखादिधर्मिण आत्यन्तिकदुःखनाशस्य मोक्षस्य धर्मिनाशमन्तरेणासंभवात्। घटे यावद्रूपनाशादर्शनात्। आत्मनस्तिरोभावे च जगदान्ध्यं प्रसज्येत। सुषुप्तावपि तत्रत्यसुखाज्ञानसाक्षित्वेनाविर्भूतस्वरूप एवात्मास्ति। अन्यथा सुप्तोत्थितस्य सुखमहमस्वाप्समिति परामर्शायोगात्। ननु सुषुप्तौ सन्नप्यात्मा न प्रकाशते तत्प्रकाशकस्य मनःसंयोगस्याभावात्। कर्त्रा व्याप्रियमाणं हि करणं क्रियां साधयति। न च सुषुप्तौ करणव्यापारोऽस्ति। तस्मान्न्यस्तवास्यस्तक्षेवात्मा सुषुप्तौ ज्ञानादिगुणहीनोऽप्रकाशमानोऽस्त्येवेत्याशङ्क्याह -- ध्रुवमिति। ननु आत्मा किं सत्तामात्रेणायस्कान्तवत्करणानि प्रवर्तयति उत व्यापाराविष्टः सन्। नाद्यः। इष्टापत्तेः। त्वन्मते च आत्मनः कर्तृत्वासिद्धेः। नान्त्यः। अनित्यत्वापत्तेः। व्यापारो हि स्पन्दः। स च परिच्छिन्नस्यैव युज्यते न विभोः। विभुत्वहाने चाणुत्वानभ्युपगमात्। मध्यमपरिमाणत्वे घटादिवदनित्यतापत्तिः। तस्माद्ध्रुवमप्रच्युतस्वभावमक्षरमित्यर्थः।