श्री भगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।13.2।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।13.2।।समस्त कार्य? करण और विषयोंके आकारमें परिणत हुई त्रिगुणात्मिका प्रकृति पुरुषके लिये भोग और अपवर्गका सम्पादन करनेके निमित्त देहइन्द्रियादिके आकारसे संहत ( मूर्तिमान् ) होती है? वह संघात ही यह शरीर है? उसका वर्णन करनेके लिये श्रीभगवान् बोले --, इदम् इस सर्वनामसे कही हुई वस्तुको शरीरम् इस विशेषणसे स्पष्ट करते हैं। हे कुन्तीपुत्र शरीरको चोट आदिसे बचाया जाता है इसलिये? या यह शनैःशनैः क्षीण -- नष्ट होता रहता है इसलिये? अथवा क्षेत्रके समान इसमें कर्मफल प्राप्त होते हैं इसलिये? यह शरीर क्षेत्र है इस प्रकार कहा जाता है। यहाँ इति शब्द एवम् शब्दके अर्थमें है। इस शरीररूप क्षेत्रको जो जानता है -- चरणोंसे लेकर मस्तकपर्यन्त ( इस शरीरको ) जो ज्ञानसे प्रत्यक्ष करता है अर्थात् स्वाभाविक या उपदेशद्वारा प्राप्त अनुभवसे विभागपूर्वक स्पष्ट जानता है उस जाननेवालेको क्षेत्रज्ञ कहते हैं। यहाँ भी इति शब्द पहलेकी भाँति एवम् शब्दके अर्थमें ही है? अतः क्षेत्रज्ञ ऐसा कहते हैं। कौन कहते हैं उनको जाननेवाले अर्थात् उन क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनोंको जो जानते हैं वे ज्ञानी पुरुष ( कहते हैं )।
।।13.2।। --,इदम् इति सर्वनाम्ना उक्तं विशिनष्टि शरीरम् इति। हे कौन्तेय? क्षतत्राणात्? क्षयात्? क्षरणात्? क्षेत्रवद्वा अस्मिन् कर्मफलनिष्पत्तेः क्षेत्रम् इति -- इतिशब्दः एवंशब्दपदार्थकः -- क्षेत्रम् इत्येवम् अभिधीयते कथ्यते। एतत् शरीरं क्षेत्रं यः वेत्ति विजानाति? आपादतलमस्तकं ज्ञानेन विषयीकरोति? स्वाभाविकेन औपदेशिकेन वा वेदनेन विषयीकरोति विभागशः? तं वेदितारं प्राहुः कथयन्ति क्षेत्रज्ञः इति -- इतिशब्दः एवंशब्दपदार्थकः एव पूर्ववत् -- क्षेत्रज्ञः इत्येवम् आहुः। के तद्विदः तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ ये विदन्ति ते तद्विदः।।एवं क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ उक्तौ। किम् एतावन्मात्रेण ज्ञानेन ज्ञातव्यौ इति न इति उच्यते --,
।।13.2।।श्रीभगवान् बोले -- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! 'यह' -- रूपसे कहे जानेवाले शरीरको 'क्षेत्र' कहते हैं और इस क्षेत्रको जो जानता है, उसको ज्ञानीलोग 'क्षेत्रज्ञ' नामसे कहते हैं।
।।13.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे कौन्तेय ! यह शरीर क्षेत्र कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसे तत्त्वज्ञ जन, क्षेत्रज्ञ कहते हैं।।