श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।13.3।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।13.3।।इस प्रकार कहे हुए क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या इतने ज्ञानसे ही जाने जा सकते हैं इसपर कहते हैं कि नहीं --, तू समस्त क्षेत्रोंमें उपर्युक्त लक्षणोंसे युक्त क्षेत्रज्ञ भी मुझ असंसारी परमेश्वरको ही जान। अर्थात् समस्त शरीरोंमें जो ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त अनेक शरीररूप उपाधियोंसे विभक्त हुआ क्षेत्रज्ञ है? उसको समस्त उपाधिभेदसे रहित एवं सत् और असत् आदि शब्दप्रतीतिसे जाननेमें न आनेवाला ही समझ। हे भारत जब कि क्षेत्र? क्षेत्रज्ञ और ईश्वरइनके यथार्थ स्वरूपसे अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञानका विषय शेष नहीं रहता? इसलिये ज्ञेयस्वरूप क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है -- जिस ज्ञानसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ प्रत्यक्ष किये,जाते हैं? वही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। मुझ ईश्वर -- विष्णुका यही मत -- अभिप्राय है। पू0 -- यदि समस्त शरीरोंमें एक ही ईश्वर है? उससे अतिरिक्त अन्य कोई भोक्ता नहीं है? ऐसा मानें? तो ईश्वरको संसारी मानना हुआ नहीं तो ईश्वरसे अतिरिक्त अन्य संसारीका अभाव होनेसे संसारके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है। यह दोनों ही अनिष्ट हैं क्योंकि ऐसा मान लेनेपर बन्ध? मोक्ष और उनके कारणका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं और प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे भी इस मान्यताका विरोध है। प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो सुखदुःख और उनका कारणरूप यह संसार दीख ही रहा है। इसके सिवा जगत्की विचित्रताको देखकर पुण्यपापहेतुक संसारका होना अनुमानसे भी सिद्ध होता है? परंतु आत्मा और ईश्वरकी एकता मान लेनेपर ये सबकेसब अयुक्त ठहरते हैं। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि ज्ञान और अज्ञानका भेद होनेसे यह सब सम्भव है। ( श्रुतिमें भी कहा है कि ) प्रसिद्ध जो अविद्या और विद्या हैं वे अत्यन्त विपरीत और भिन्न समझी गयी हैं तथा ( उसी जगह ) उन विद्या और अविद्याका फल भी श्रेय और प्रेय इस प्रकार परस्परविरुद्ध दिखलाया गया है? इनमें विद्याका फल श्रेय ( मोक्ष ) और अविद्याका प्रेय ( इष्ट भोगोंकी प्राप्ति ) है। वैसे ही श्रीव्यासजीने भी कहा है कि यह दोनों ही मार्ग है इत्यादि तथा यह दो ही मार्ग हैं इत्यादि और यहाँ गीताशास्त्रमें भी दो निष्ठाएँ बतलायी गयी हैं। इसके सिवा श्रुति? स्मृति और न्यायसे भी यही सिद्ध होता है कि विद्याके द्वारा कार्यसहित अविद्याका नाश करना चाहिये। इस विषयमें ये श्रुतियाँ यहाँ यदि जान लिया तो बहुत ठीक है और यदि यहाँ नहीं जाना तो बड़ी भारी हानि है उसको इस प्रकार जाननेवाला यहाँ अमृत हो जाता है परमपदकी प्राप्तिके लिये ( विद्याके सिवा ) अन्य मार्ग नहीं है विद्वान् किसीसे भी भयभीत नहीं होता। किन्तु अज्ञानीके विषयमें ( कहा है कि ) उसको भय होता है जो कि अविद्याके बीचमें ही प़ड़े हुए हैं जो ब्रह्मको जानता है वह ब्रह्म ही हो जाता है यह देव अन्य है और मैं अन्य हूँ इस प्रकार जो समझता है वह आत्मतत्त्वको नहीं जानता जैसे ( मनुष्योंका पशु होता है वैसे ही वह देवताओंका पशु है किन्तु जो आत्मज्ञानी है ( उसविषयमें ) वह यह सब कुछ हो जाता है यदि आकाशको चमक समान लपेटा जा सके इत्यादि सहस्रों श्रुतियाँ हैं। तथा ये स्मृतियाँ भी हैं -- ज्ञान अज्ञानसे ढका हुआ है? इसलिये जीव मोहित हो रहे हैं जिनका चित्त समतामें स्थित है उन्होंने यहीं संसारको जीत लिया है सर्वत्र समानभावसे देखता हुआ इत्यादि। युक्तिसे भी यह बात सिद्ध है। जैसे कहा है कि सर्प? कुशकंण्टक और तालाबको जान लेनेपर मनुष्य उनसे बच जाते हैं? किन्तु बिना जाने कई एक उनमें गिर जाते हैं? इस न्यायसे ज्ञानका जो विशेष फल है उसको समझ। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंसे यह ज्ञान होता है कि देहादिमें आत्मबुद्धि करनेवाला अज्ञानी रागद्वेषादि दोषोंसे प्रेरित होकर धर्मअधर्मरूप कर्मोंका अनुष्ठान करता हुआ जन्मता और मरता रहता है? किंतु देहादिसे अतिरिक्त आत्माका साक्षात् करनेवाले पुरुषोंके रागद्वेषादि दोष निवृत्त हो जाते हैं? इससे उनकी धर्माधर्मविषयक प्रवृत्ति शान्त हो जानेसे वे मुक्त हो जाते हैं। इस बातका कोई भी न्यायानुसार विरोध नहीं कर सकता।अतः यह सिद्ध हुआ कि जो वास्तवमें ईश्वर ही है उस क्षेत्रज्ञको अविद्याद्वारा आरोपित उपाधिके भेदसे संसारित्व प्राप्तसा हो जाता है? जैसे कि जीवको देहादिमें आत्मबुद्धि हो जाती है क्योंकि समस्त जीवोंका जो देहादि अनात्मपदार्थोंमें आत्मभाव प्रसिद्ध है? वह निःसंदेह अविद्याकृत ही है। जैसे स्तम्भमें मनुष्यबुद्धि हो जाती है? परंतु इतनेहीसे मनुष्यके धर्म स्तम्भमें और स्तम्भके धर्म मनुष्यमें नहीं आ जाते? वैसे ही चेतनके धर्म देहमें और देहके धर्म चेतनमें नहीं आ सकते। जरा और मृत्युके समान ही अविद्याके कार्य होनेसे सुखदुःख और अज्ञान आदि भी उन्हींकी भाँति आत्माके धर्म नहीं हो सकते। पू0 -- यदि ऐसा मानें कि विषम होनेके कारण यह दृष्टान्त ठीक नहीं है अर्थात् स्तम्भ और पुरुष दोनों ज्ञेय वस्तु हैं? उनमें अविद्यावश ज्ञाताद्वारा एकमें एकका अध्यास किया गया है परंतु देह और आत्मामें तो ज्ञेय और ज्ञाताका ही एक दूसरेमें अध्यास होता है? इसलिये यह दृष्टान्त सम नहीं है? अतः यह सिद्ध होता है कि देहका ज्ञेयरूप ( सुखदुःखादि ) धर्म भी ज्ञाता -- आत्मामें होता है। उ0 -- इसमें आत्माको जड़ मानने आदिका प्रसङ्ग आ जाता है? इसलिये ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि यदि ज्ञेयरूप शरीरादि -- क्षेत्रक सुख? दुःख? मोह और इच्छादि धर्म ज्ञाता ( आत्मा ) के भी होते हैं? तो यह बतलाना चाहिये कि ज्ञेयरूप क्षेत्रके अविद्याद्वारा आरोपित कुछ धर्म तो आत्मामें होते हैं और कुछ -- जरामरणादि नहीं होते? इस विशेषताका कारण क्या है बल्कि? ऐसा अनुमान तो किया जा सकता है कि जरा आदिके समान अविद्याद्वारा आरोपित और त्याज्य तथा ग्राह्य होनेके कारण ये सुखदुःखादि ( आत्माके धर्म ) नहीं हैं। ऐसा होनेसे यह सिद्ध हुआ कि कर्तृत्वभोक्तृत्वरूप यह संसार ज्ञेय वस्तुमें स्थित हुआ ही अविद्याद्वारा ज्ञातामें अध्यारोपित है? अतः उससे ज्ञाताका कुछ भी नहीं बिगड़ता? जैसे कि मूर्खोंद्वारा अध्यारोपित तलमलिनतादिसे आकाशका ( कुछ भी नहीं बिगड़ता )। अतः सब शरीरोंमें रहते हुए भी भगवान्क्षेत्रज्ञ ईश्वरमें संसारीपनके गन्धमात्रकी भी शङ्का नहीं करनी चाहिये क्योंकि संसारमें कहीं भी अविद्याद्वारा आरोपित धर्मसे किसीका भी उपकार या अपकार होता नहीं देखा जाता। तुमने जो यह कहा था कि ( स्तम्भमें मनुष्यके भ्रमका ) दृष्टान्त सम नहीं है सो ( यह कहना ) भूल है। पू0 -- कैसे उ0अविद्याजन्य अध्यासमात्रमें ही दृष्टान्त और दार्ष्टान्तकी समानता विवक्षित है। उसमें कोई दोष नहीं आता। परंतु तुम जो यह मानते हो कि ज्ञातामें दृष्टान्त और दार्ष्टान्तकी विषमताका दोष आता है? तो उसका भी अपवाद? जरामृत्यु आदिके दृष्टान्तसे दिखला दिया गया है। पू0 -- यदि ऐसा कहें कि अविद्यायुक्त होनेसे क्षेत्रज्ञको ही संसारित्व प्राप्त हुआ? तो उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि अविद्या? तामस प्रत्यय है। तामस प्रत्यय? चाहे विपरीत ग्रहण करनेवाला,( विपर्यय ) हो? चाहे संशय उत्पन्न करनेवाला ( संशय ) हो और चाहे कुछ भी ग्रहण न करनेवाला हो? आवरणरूप होनेके कारण वह अविद्या ही है? क्योंकि विवेकरूप प्रकाशके होनेपर वह दूर हो जाता है तथा आवरणरूप तमोमय तिमिरादि दोषोंके रहते हुए ही अग्रहण आदिरूप तीन प्रकारकी अविद्याका अस्तित्व उपलब्ध होता है। पू0 -- यदि यह बात है तब तो अविद्या ज्ञाताका धर्म हुआ उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि तिमिररोगादिजन्य दोष चक्षु आदि करणोंमें ही देखे जाते हैं ( ज्ञाता आत्मामें नहीं )। जो तुम ऐसा मानते हो कि अविद्या ज्ञाताका धर्म है और अविद्यारूप धर्मसे युक्त होना ही उसका संसारित्व है? इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि ईश्वर ही क्षेत्रज्ञ है और वह संसारी नहीं है सो तुम्हारा ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि नेत्ररूप करणमें विपरीत ग्राहकता आदि दोष देखे जाते हैं तो भी वे विपरीतादि ग्रहण या उनके कारणरूप तिमिरादि दोष ज्ञाताके नहीं हो जाते ( उसी प्रकार देहके धर्म भी आत्माके नहीं हो सकते )। तथा जैसे आँखका संस्कार करके तिमिरादि प्रतिबन्धको हटा देनेपर ग्रहीता पुरुषमें वे दोष नहीं देखे जाते? इसलिये वे ग्रहीता पुरुषके धर्म नहीं हैं? वैसे ही अग्रहण? विपरीतग्रहण और संशय आदि प्रत्यय तथा उनके कारणरूप तिमिरादि दोष भी सर्वत्र किसीनकिसी करणके ही हो सकते हैं -- ज्ञाता पुरुषके अर्थात् क्षेत्रज्ञके नहीं। इसके सिवा वे जाननेमें आनेवाले ( ज्ञानके विषय ) होनेसे भी दीपकके प्रकाशकी भाँति ज्ञाताके धर्म नहीं हो सकते क्योंकि वे ज्ञेय हैं? इसलिये अपनेसे अतिरिक्त किसी अन्यद्वारा जाननेमें आनेवाले हैं। सभी आत्मवादी समस्त करणोंसे आत्माका वियोग होनेके उपरान्त कैवल्य अवस्थामें आत्माको अविद्यादि दोषोंसे रहित मानते हैं? इससे भी ( उपर्युक्त सिद्धान्त ही सिद्ध होता है ) क्योंकि यदि अग्निकी उष्णताके समान ये ( सुखदुःखादि दोष ) क्षेत्रज्ञ आत्माके अपने धर्म हों तो उनसे उसका कभी वियोग नहीं हो सकेगा। इसके सिवा आकाशकी भाँति सर्वव्यापक? मूर्तिरहित? निर्विकार आत्माका किसीके साथ संयोगवियोग होना सम्भव नहीं है? इससे भी क्षेत्रज्ञकी नित्य ईश्वरता ही सिद्ध होती है। तथा अनादित्वान्िनर्गुणत्वात् इत्यादि भगवान्के वचनोंसे भी क्षेत्रज्ञका नित्य ईश्वरत्व हि सिद्ध होता है। पू0 -- ऐसा मान लेनेपर तो संसार और संसारित्वका अभाव हो जानेके कारण शास्त्रकी व्यर्थता आदि दोष उपस्थित होंगे उ0 -- नहीं क्योंकि यह दोष तो सभीने स्वीकार किया है। सभी आत्मवादियोंद्वारा स्वीकार किये हुए दोषका किसी एकके लिये ही परिहार करना आवश्यक नहीं है।

, पू0 -- इसे सबने कैसे स्वीकार किया है उ0 -- सभी आत्मवादियोंने मुक्त आत्मामें संसार और संसारीपनके व्यवहारका अभाव माना है? परंतु ( इससे ) उनके मतमें शास्त्रकी अनर्थकता आदि दोषोंकी प्राप्ति नहीं मानी गयी। जैसे समस्त द्वैतवादियोंके मतसे बन्धावस्थामें ही शास्त्र आदिकी सार्थकता है मुक्तअवस्थामें नहीं? वैसे ही हमारे मतमें भी जीवोंकी ईश्वरके साथ एकता हो जानेपर यदि शास्त्रकी व्यर्थता होती हो तो हो? अविद्यावस्थामें तो उसकी सार्थकता है ही। पू0 -- हम सब द्वैतवादियोंके सिद्धान्तसे तो आत्माकी बन्धावस्था और मुक्तावस्था वास्तवमें ही सच्ची है। अतः वे हेय? उपादेय हैं और उनके सब साधन भी सत्य हैं। इस कारण शास्त्रकी सार्थकता हो सकती है। परंतु अद्वैतवादियोंके सिद्धान्तसे तो द्वैतभाव अविद्याजन्य और मिथ्या है? अतः आत्मामें बन्धावस्था भी वास्तवमें नहीं है? इसलिये शास्त्रका कोई विषय न रहनेके कारण शास्त्र आदिकी व्यर्थताका दोष आता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्माके अवस्थाभेद सिद्ध नहीं हो सकते? यदि ( आत्मामें इनका होना ) मान भी लें तो आत्माकी ये बन्ध और मुक्त दोनों अवस्थाएँ एक साथ होनी चाहिये या क्रमसे स्थिति और गतिकी भाँति परस्परविरोध होनेके कारण दोनों अवस्थाएँ एक साथ तो एकमें हो नहीं सकतीं। यदि क्रमसे होना मानें तो बिना निमित्तके बन्धावस्थाका होना माननेसे तो उससे कभी छुटकारा न होनेका प्रसङ्ग आ जायगा और किसी निमित्तसे उसका होना मानें तो स्वतः न होनेके कारण वह मिथ्या ठहरती है। ऐसा होनेपर स्वीकार किया हुआ सिद्धान्त कट जाता है। इसके सिवा बन्धावस्था और मुक्तावस्थाका आगापीछा निरूपण किया जानेपर पहले बन्धावस्थाका होना माना जायगा तथा उसे आदिरहित और अन्तयुक्त मानना पड़ेगा सो यह प्रमाणविरुद्ध है? ऐसे ही मुक्तावस्थाको भी आदियुक्त और अन्तरहित प्रमाणविरुद्ध ही मानना पड़ेगा। तथा आत्माकी अवस्थावाला और एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें जानेवाला मानकर उसका नित्यत्व सिद्ध करना भी सम्भव नहीं है। जब कि आत्मामें अनित्यत्वके दोषका परिहार करनेके लिये बन्धावस्था और मुक्तावस्थाके भेदकी कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिये द्वैतवादियोंके मतसे भी शास्त्रकी व्यर्थता आदि दोष अबाध्य ही हैं। इस प्रकार दोनोंके लिये समान होनेके कारण इस दोषका परिहार केवल अद्वैतवादियोंद्वारा ही किया जाना आवश्यक नहीं है। ( हमारे मतानुसार तो वास्तवमें ) शास्त्रकी व्यर्थता है भी नहीं क्योंकि शास्त्र लोकप्रसिद्ध अज्ञानीका ही विषय है। अज्ञानियोंका ही फल और हेतुरूप अनात्मवस्तुओंमें आत्मभाव होता है? विद्वानोंका नहीं। क्योंकि विद्वान्की बुद्धिमें फल और हेतुसे आत्माका पृथक्त्व प्रत्यक्ष है? इसलिये उसका उन (अनात्मपदार्थों ) में यह मैं हूँ ऐसा आत्मभाव नहीं हो सकता। अत्यन्त मूढ़ और उन्मत्त आदि भी जल और अग्निकी? या छाया और प्रकाशकी एकता नहीं मानते? फिर विवेकीकी तो बात ही क्या है सुतरां फल और हेतुसे आत्माको भिन्न समझ लेनेवाले ज्ञानीके लिये विधिनिषेधविषयक शास्त्र नहीं है। जैसे हे देवदत्त तू अमुक कार्य कर इस प्रकार किसी कर्ममें ( देवदत्तके ) नियुक्त किये जानेपर वहीं खड़ा हुआ विष्णुमित्र उस नियुक्तिको सुनकर भी? यह नहीं समझता कि मैं नियुक्त किया गया हूँ। हाँ? नियुक्तिविषयक विवेकका स्पष्ट ग्रहण न होनेसे तो ऐसा समझना ठीक हो सकता है? इसी प्रकार फल और,हेतुमें भी ( अज्ञानियोंकी आत्मबुद्धि हो सकती है )। पू0 -- फल और हेतुसे आत्माके पृथक्त्वका ज्ञान हो जानेपर भी? स्वाभाविक सम्बन्धकी अपेक्षासे शास्त्रविषयक इतना बोध होना तो युक्तियुक्त ही है कि मैं शास्त्रद्वारा अनुकूल फल और उसके हेतुमें तो प्रवृत्त किया गया हूँ और प्रतिकूल फल और उसके हेतुसे निवृत्त किया गया हूँ? जैसे कि पितापुत्र आदिका आपसमें एक दूसरेको भिन्न समझते हुए भी एक दूसरेके लिये किये हुए नियोग और प्रतिषेधको अपने लिये समझना देखा जाता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्माके पृथक्त्वका ज्ञान होनेसे पहलेपहले ही फल और हेतुमें आत्माभिमान होना सिद्ध है। नियोग और प्रतिषेधके अभिप्रायको भली प्रकार जानकर ही मनुष्य फल और हेतुसे आत्माके पृथक्त्वको जान सकता है? उससे पहले नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि विधिनिषेधरूप शास्त्रकेवल अज्ञानीके लिये ही है। पू0 -- (इस सिद्धान्तके अनुसार ) स्वर्गकी कामनावाला यज्ञ करे मांस भक्षण न करे इत्यादि विधिनिषेधबोधक शास्त्रवचनोंमें आत्माका पृथक्तव जाननेवालोंकी और केवल देहात्मवादियोंकी भी प्रवृत्ति न होनेसे कर्ताका अभाव हो जानेके कारण शास्त्रके व्यर्थ होनेका प्रसङ्ग आ जायगा उ0 -- यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि प्रवृत्ति और निवृत्तिका होना लोकप्रसिद्धिसे ही प्रत्यक्ष है। ईश्वर और जीवात्माकी एकता देखनेवाला ब्रह्मवेत्ता कर्मोंमें प्रवृत्त नहीं होता तथा आत्मसत्ताको न माननेवाला देहात्मवादी भी परलोक नहीं है ऐसा समझकर शास्त्रानुसार नहीं बर्तता यह ठीक है परंतु लोकप्रसिद्धिसे यह तो हम सबको प्रत्यक्ष है ही कि विधिनिषेधबोधक शास्त्रश्रवणकी दूसरी तरह उपपत्ति न होनेके कारण जिसने आत्माके अस्तित्वका अनुमान कर लिया है? एवं जो आत्माके असली तत्त्वका ज्ञाता नहीं है जिसकी कर्मोंके फलमें तृष्णा है? ऐसा मनुष्य श्रद्धालुताके कारण ( शास्त्रानुसार कर्मोंमें ) प्रवृत्त होता है। अतः शास्त्रकी व्यर्थता नहीं है। पू0 -- विवेकशील पुरुषोंकी प्रवृत्ति न देखनेसे उनका अनुकरण करनेवालोंकी भी ( शास्त्रविहित कर्मोंमें ) प्रवृत्ति नहीं होगी? अतः शास्त्रव्यर्थ हो जायगा। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि किसी एकको ही विवेकज्ञान प्राप्त होता है। अर्थात् अनेक प्राणियोंमेंसे कोई एक ही विवेकी होता है जैसा कि आजकल ( देखा जाता है )। इसके सिवा मूढ़लोग विवेकियोंका अनुकरण भी नहीं करते क्योंकि प्रवृत्ति रागादि दोषोंके अधीन हुआ करती है। ( प्रतिहिंसाके उद्देश्यसे किये जानेवाले जारणमारण आदि ) अभिचारोंमें भी लोगोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है तथा प्रवृत्ति स्वाभाविक है। यह कहा भी है कि स्वभाव ही बर्तता है। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि संसार अविद्यामात्र ही है और वह अज्ञानियोंका ही विषय है। केवलशुद्ध क्षेत्रज्ञमें अविद्या और उसके कार्य दोनों ही नहीं हैं। तथा मिथ्याज्ञान परमार्थवस्तुको दूषित करनेमें समर्थ भी नहीं है। क्योंकि जैसे ऊसर भूमिको मृगतृष्णिकाका जल अपनी आर्द्रतासे कीचड़युक्त नहीं कर सकता? वैसे ही अविद्या भी क्षेत्रज्ञका कुछ भी ( उपकार या अपकार ) करनेमें समर्थ नहीं है? इसीलिये क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि और अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् यह कहा है। पू0 -- तो फिर यह क्या बात है कि संसारी पुरुषोंकी भाँति पण्डितोंको भी मैं ऐसा हूँ यह वस्तु मेरी ही है ऐसी प्रतीत होती है। उ0 -- सुनो? यह पाण्डित्य बस इतना ही है जो कि क्षेत्रमें ही आत्माको देखना है परंतु यदि मनुष्य क्षेत्रज्ञको निर्विकारी समझ ले तो फिर मुझे अमुक भोग मिले या मैं अमुक कर्म करूँ ऐसी आकाङ्क्षा नहीं कर सकता? क्योंकि भोग और कर्म दोनों विकार ही तो हैं। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि फलेच्छुक होनेके कारण अज्ञानी कर्मोंमें प्रवृत्त होता है परंतु विकाररहित आत्माका साक्षात् कर लेनेवाले ज्ञानीमें फलेच्छाका अभाव होनेके कारण? उसकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं? अतः कार्यकरणसंघातके व्यापारकी निवृत्ति होनेपर उस ( ज्ञानी ) में निवृत्तिका उपचार किया जाता है। किसीकिसीके मतमें यह एक प्रकारकी विद्वत्ता और भी हो सकती है कि? क्षेत्रज्ञ तो ईश्वर ही है और उस क्षेत्रज्ञके ज्ञानका विषय क्षेत्र उससे अलग है तथा मैं तो ( उन दोनोंसे भिन्न ) संसारी और सुखीदुःखी भी हूँ। मुझे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके ज्ञान और ध्यानद्वारा ईश्वररूप क्षेत्रज्ञका साक्षात् करके उसके स्वरूपमें स्थित होनारूप साधनसे संसारकी निवृत्ति करनी चाहिये। जो ऐसा समझता है या दूसरेको ऐसा समझाता है कि वह ( जीव ) क्षेत्रज्ञ ( ब्रह्म ) नहीं है तथा जो यह मानता है कि मैं ( इस प्रकारके सिद्धान्तसे ) संसार? मोक्ष और शास्त्रकी सार्थकता सिद्ध करूँगा? वह पण्डितोंमें अधम है। तथा वह आत्महत्यारा? शास्त्रके अर्थकी सम्प्रदायपरम्परासे रहित होनेके कारण? श्रुतिविहित अर्थका त्याग और वेदविरुद्ध अर्थकी कल्पना करके स्वयं मोहित हो रहा है और दूसरोंको भी मोहित करता है। सुतरां जो शास्त्रार्थकी परम्पराको जाननेवाला नहीं है? वह समस्त शास्त्रोंका ज्ञाता भी हो तो भी मूर्खोंके समान उपेक्षणीय ही है। और जो यह कहा था कि ईश्वरकी क्षेत्रज्ञके साथ एकता माननेसे तो ईश्वरमें संसारीपन आ जाता है और क्षेत्रज्ञोंकी ईश्वरके साथ एकता माननेसे कोई संसारी न रहनेके कारण संसारके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है? सो विद्या और अविद्याकी विलक्षणताके प्रतिपादनसे इन दोनों दोषोंका ही परिहार कर दिया गया। पू -- कैसे उ0 -- अविद्याद्वारा कल्पित किये हुए दोषसे तद्विषयक पारमार्थिक ( असली ) वस्तु दूषित नहीं होती? इस कथनसे पहली शङ्काका निराकरण किया गया और वैसे ही यह दृष्टान्त भी दिखलाया कि मृगतृष्णिकाके जलसे ऊसर भूमि पङ्कयुक्त नहीं की जा सकती। तथा संसारीका अभाव होनेसे संसारके अभावके प्रसङ्गका जो दोष बतलाया था? उसका भी संसार संसारित्वकी अविद्याकल्पित उपपत्तिको स्वीकार करके निराकरण कर दिया गया। पू0 -- क्षेत्रज्ञका अविद्यायुक्त होना ही तो संसारित्वरूप दोष है? क्योंकि उससे होनेवाले दुःखित्व आदि दोष प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं? क्योंकि जो कुछ ज्ञेय है -- जाननेमें आता है? वह सब क्षेत्रका ही धर्म है? इसलिये,उसके किये हुए दोष ज्ञाता क्षेत्रज्ञके नहीं हो सकते। तू क्षेत्रज्ञपर वास्तवमें बिना हुए ही जो कुछ भी दोष लाद रहा है? वे सब ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्रके ही धर्म हैं? क्षेत्रज्ञके नहीं। उनसे क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) दूषित नहीं हो सकता? क्योंकि ज्ञेयके साथ ज्ञाताका संसर्ग नहीं हो सकता। यदि उनका संसर्ग मान लिया जाय तो (ज्ञेयका) ज्ञेयत्व ही सिद्ध नहीं हो सकता। अभिप्राय यह है कि यदि अविद्यायुक्त होना और दुखी होना आदि आत्माके धर्म हैं तो वे प्रत्यक्ष कैसे दीखते हैं और वे क्षेत्रज्ञके धर्म हो भी कैसे सकते हैं क्योंकि जो कुछ भी ज्ञेय वस्तु है वह सब क्षेत्र है और क्षेत्रज्ञ ज्ञाता है? ऐसा सिद्धान्त स्थापित किये जानेपर फिर अविद्यायुक्त होना और दुखी होना आदि दोषोंको क्षेत्रज्ञके धर्म बतलाना और उनकी प्रत्यक्ष उपलब्धि भी मानना? यह सब अज्ञानमात्रके आश्रयसे केवल विरुद्ध प्रलाप करना है। पू0 -- वह अविद्या किसमें है उ0 -- जिसमें दीखती है उसीमें। पू0 -- किसमें दीखती है उ0 -- अविद्या किसमें दीखती है -- यह प्रश्न ही निरर्थक है। पू0 -- किस प्रकार उ0 -- यदि अविद्या दीखती है तो उससे जो युक्त है उसको भी तू अवश्य देखता ही होगा फिर अविद्यावान्की उपलब्धि हो जानेपर वह अविद्या किसमें है? यह पूछना ठीक नहीं है। क्योंकि गौवालेको देख लेनेपर यह गौ किसकी है यह पूछना सार्थक नहीं हो सकता। पू0 -- तुम्हारा यह दृष्टान्त विषय है। गौ और उसका स्वामी तो प्रत्यक्ष होनेके कारण उनका सम्बन्ध भी प्रत्यक्ष है इसलिये ( उनके सम्बन्धके विषयमें ) प्रश्न निरर्थक है? परंतु उनकी भाँति अविद्यावान् और अविद्या तो प्रत्यक्ष नहीं हैं? जिससे कि यह प्रश्न निरर्थक माना जाय उ0 -- अप्रत्यक्ष अविद्यावान्के साथ अविद्याका सम्बन्ध जान लेनेसे तुम्हें क्या मिलेगा पू0 -- अविद्या अनर्थकी हेतु है? इसलिये उसका त्याग किया जा सकेगा। उ0 -- जिसमें अविद्या है? वह उसका स्वयं त्याग कर देगा। पू0 -- मुझमें ही तो अविद्या है। उ0 -- तब तो तू अविद्या और उससे युक्त अपने आपको जानता है। पू0 -- जानता तो हूँ परंतु प्रत्यक्षरूपसे नहीं। उ0 -- यदि अनुमानसे जानता है तो ( तुझ ज्ञाता और अविद्याके ) सम्बन्धका ग्रहण कैसे हुआ क्योंकि उस,समय ( अविद्याको अनुमानसे जाननेके कालमें ) तुझ ज्ञाताका ज्ञेयरूप अविद्याके साथ सम्बन्ध ग्रहण नहीं किया जा सकता? कारण यह है कि ज्ञाताका विषय मानकर ही अविद्याका उपयोग किया गया है। तथा ज्ञाता और अविद्याके सम्बन्धको जो ग्रहण करनेवाला है वह तथा उस ( अविद्या और ज्ञाताके सम्बन्ध ) को विषय करनेवाला कोई दूसरा ज्ञान ये दोनों ही सम्भव नहीं हैं। क्योंकि ऐसा होनेसे अनवस्थादोष प्राप्त होता है अर्थात् यदि ज्ञाता और ज्ञेयज्ञाताका सम्बन्ध ये भी ( किसीके द्वारा ) जाने जाते हैं? ऐसा माना जाय तो उसका ज्ञाता किसी औरको मानना होगा। फिर उसका भी दूसरा और उसका भी दूसरा ज्ञाता मानना होगा? इस प्रकार यह अनवस्था अनिवार्य हो जायगी। पंरतु ज्ञेय चाहे अविद्या हो अथवा और कुछ हो? ज्ञेय ज्ञेय ही रहेगा ( ज्ञाता नहीं हो सकता ) वैसे ही ज्ञाता भी ज्ञाता ही रहेगा? ज्ञेय नहीं हो सकता? जब कि ऐसा है तो अविद्या या दुःखित्व आदि दोषोंसे ज्ञाता -- क्षेत्रज्ञका कुछ भी दूषित नहीं हो सकता। पू0 -- यही उसका दोष है जो कि वह दोषयुक्त क्षेत्रका ज्ञाता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा विज्ञानस्वरूप और अविक्रिय है? उसमें ( इस ) ज्ञातापनका उपचारमात्र किया जाता है? जैसे कि उष्णतामात्र स्वभाव होनेसे अग्निमें तपानेकी क्रियाका उपचार किया जाता है। जैसे भगवान्ने यहाँ ( इस प्रकरणमें ) यह दिखाया है कि आत्मामें स्वभावसे ही क्रिया? कारक और फलात्मत्वका अभाव है? केवल अविद्याद्वारा अध्यारोपित होनेके कारण क्रिया? कारक आदि आत्मामें उपचरित होते हैं? वैसे ही? जो इसे मारनेवाला जानता है प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब कर्म किये जाते हैं ( वह विभु ) किसीके पापपुण्यको ग्रहण नहीं करता इत्यादि प्रकरणोंमें जगहजगह दिखाया गया है और इसी प्रकार हमने व्याख्या भी की है? तथा आगेके प्रकरणोंमें भी हम दिखलायेंगे। पू0 -- तब तो आत्मामें स्वभावसे क्रिया? कारक और फलात्मत्वका अभाव सिद्ध होनेसे तथा ये सब अविद्याद्वारा अध्यारोपित सिद्ध होनेसे यही निश्चय हुआ कि कर्म अविद्वान्को ही कर्तव्य है? विद्वान्को नहीं। उ0 -- ठीक यही सिद्ध हुआ। इसी बातको हम न हि देहभृता शक्यम् इस प्रकरणमें और सारे गीताशास्त्रके उपसंहारप्रकरणमें दिखलायेंगे। तथा सामसेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा इस श्लोकके अर्थमें विशेषरूपसे दिखायेंगे। बस? यहाँ अब और अधिक विस्तारकी आवश्यकता नहीं है? इसलिये उपसंहार किया जाता है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।13.3।। --,क्षेत्रज्ञं यथोक्तलक्षणं चापि मां परमेश्वरम् असंसारिणं विद्धि जानीहि। सर्वक्षेत्रेषु यः क्षेत्रज्ञः ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानेकक्षेत्रोपाधिप्रविभक्तः? तं निरस्तसर्वोपाधिभेदं सदसदादिशब्दप्रत्ययागोचरं विद्धि इति अभिप्रायः। हे भारत? यस्मात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञेश्वरयाथात्म्यव्यतिरेकेण न ज्ञानगोचरम् अन्यत् अवशिष्टम् अस्ति? तस्मात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः ज्ञेयभूतयोः यत् ज्ञानं क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ येन ज्ञानेन विषयीक्रियेते? तत् ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् इति मतम् अभिप्रायः मम ईश्वरस्य विष्णोः।।ननु सर्वक्षेत्रेषु एक एव ईश्वरः? न अन्यः तद्व्यतिरिक्तः भोक्ता विद्यते चेत्? ततः ईश्वरस्य संसारित्वं प्राप्तम् ईश्वरव्यतिरेकेण वा संसारिणः अन्यस्य अभावात् संसाराभावप्रसङ्गः। तच्च उभयमनिष्टम्? बन्धमोक्षतद्धेतुशास्त्रानर्थक्यप्रसङ्गात्? प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधाच्च। प्रत्यक्षेण तावत् सुखदुःखतद्धेतुलक्षणः संसारः उपलभ्यते जगद्वैचित्र्योपलब्धेश्च धर्माधर्मनिमित्तः संसारः अनुमीयते। सर्वमेतत् अनुपपन्नमात्मेश्वरैकत्वे।।न ज्ञानाज्ञानयोः अन्यत्वेनोपपत्तेः -- दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता (क0 उ0 1।2।4)। तथा च तयोः विद्याविद्याविषययोः फलभेदोऽपि विरुद्धः निर्दिष्टः -- श्रेयश्च प्रेयश्च इति विद्याविषयः श्रेयः? प्रेयस्तु अविद्याकार्यम् इति। तथा च व्यासः -- द्वाविमावथ पन्थानौ (महा0 शान्ति0 241।6) इत्यादि? इमौ द्वावेव पन्थानौ इत्यादि च। इह च द्वे निष्ठे उक्ते। अविद्या च सह कार्येण हातव्या इति श्रुतिस्मृतिन्यायेभ्यः अवगम्यते। श्रुतयः तावत् -- इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः (के0 उ0 2।5) तमेवं विद्वानमृत इह भवति (नृ0 पू00 6)। नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय (श्वे0 उ0 3।8) विद्वान्न बिभेति कुतश्चन (तै0 उ0 2।4)। अविदुषस्तु -- अथ तस्य भयं भवति (तै0 उ0 2।7)? अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः (क0 उ0 1।2।5) ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मु0 उ0 3।2।9) अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स देवानाम् आत्मवित् यः स इदं सर्वं भवति (बृह0 उ0 1।4।10) यदा चर्मवत् (श्वे0 उ0 6।20) इत्याद्याः सहस्रशः। स्मृतयश्च -- अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः (गीता 5।15) इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः (गीता 5।19) समं पश्यन् हि सर्वत्र (गीता 13।28) इत्याद्याः। न्यायतश्च -- सर्पान्कुशाग्राणि तथोदपानं ज्ञात्वा मनुष्याः परिवर्जयन्ति। अज्ञानतस्तत्र पतन्ति केचिज्ज्ञाने फलं पश्य तथाविशिष्टम् (महा0 शा0 201।16)। तथा च -- देहादिषु आत्मबुद्धिः अविद्वान् रागद्वेषादिप्रयुक्तः धर्माधर्मानुष्ठानकृत् जायते म्रियते च इति अवगम्यते देहादिव्यतिरिक्तात्मदर्शिनः रागद्वेषादिप्रहाणापेक्षधर्माधर्मप्रवृत्त्युपशमात् मुच्यन्ते इति न केनचित् प्रत्याख्यातुं शक्यं न्यायतः। तत्र एवं सति? क्षेत्रज्ञस्य ईश्वरस्यैव सतः अविद्याकृतोपाधिभेदतः संसारित्वमिव भवति? यथा देहाद्यात्मत्वमात्मनः। सर्वजन्तूनां हि प्रसिद्धः देहादिषु अनात्मसु आत्मभावः निश्चितः अविद्याकृतः? यथा स्थाणौ पुरुषनिश्चयः? न च एतावता पुरुषधर्मः स्थाणोः भवति? स्थाणुधर्मो वा पुरुषस्य? तथा न चैतन्यधर्मो देहस्य? देहधर्मो वा चेतनस्य सुखदुःखमोहात्मकत्वादिः आत्मनः न युक्तः अविद्याकृतत्वाविशेषात्? जरामृत्युवत्।।न? अतुल्यत्वात् इति चेत् -- स्थाणुपुरुषौ ज्ञेयावेव सन्तौ ज्ञात्रा अन्योन्यस्मिन् अध्यस्तौ अविद्यया देहात्मनोस्तु ज्ञेयज्ञात्रोरेव इतरेतराध्यासः? इति न समः दृष्टान्तः। अतः देहधर्मः ज्ञेयोऽपि ज्ञातुरात्मनः भवतीति चेत्? न अचैतन्यादिप्रसङ्गात्। यदि हि ज्ञेयस्य देहादेः क्षेत्रस्य धर्माः सुखदुःखमोहेच्छादयः ज्ञातुः भवन्ति? तर्हि? ज्ञेयस्य क्षेत्रस्य धर्माः केचित् आत्मनः भवन्ति अविद्याध्यारोपिताः? जरामरणादयस्तु न भवन्ति इति विशेषहेतुः वक्तव्यः। न भवन्ति इति अस्ति अनुमानम् -- अविद्याध्यारोपितत्वात् जरामरणादिवत् इति? हेयत्वात्? उपादेयत्वाच्च इत्यादि। तत्र एवं सति? कर्तृत्वभोक्तृत्वलक्षणः संसारः ज्ञेयस्थः ज्ञातरि अविद्यया अध्यारोपितः इति? न तेन ज्ञातुः किञ्चित् दुष्यति? यथा बालैः अध्यारोपितेन आकाशस्य तलमलिनत्वादिना।।एवं च सति? सर्वक्षेत्रेष्वपि सतः भगवतः क्षेत्रज्ञस्य ईश्वरस्य संसारित्वगन्धमात्रमपि नाशङ्क्यम्। न हि क्वचिदपि लोके अविद्याध्यस्तेन धर्मेण कस्यचित् उपकारः अपकारो वा दृष्टः।।यत्तु उक्तम् -- न समः दृष्टान्तः इति? तत् असत्। कथम् अविद्याध्यासमात्रं हि दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः साधर्म्यं विवक्षितम्। तत् न व्यभिचरति। यत्तु ज्ञातरि व्यभिचरति इति मन्यसे? तस्यापि अनैकान्तिकत्वं दर्शितं जरादिभिः।।अविद्यावत्त्वात् क्षेत्रज्ञस्य संसारित्वम् इति चेत्? न अविद्यायाः तामसत्वात्। तामसो हि प्रत्ययः? आवरणात्मकत्वात् अविद्या विपरीतग्राहकः? संशयोपस्थापको वा? अग्रहणात्मको वा विवेकप्रकाशभावे तदभावात्? तामसे च आवरणात्मके तिमिरादिदोषे सति अग्रहणादेः अविद्यात्रयस्य उपलब्धेः।।

अत्र आह -- एवं तर्हि ज्ञातृधर्मः अविद्या। न करणे चक्षुषि तैमिरिकत्वादिदोषोपलब्धेः। यत्तु मन्यसे -- ज्ञातृधर्मः अविद्या? तदेव च अविद्याधर्मवत्त्वं क्षेत्रज्ञस्य संसारित्वम् तत्र यदुक्तम् ईश्वर एव क्षेत्रज्ञः? न संसारी इत्येतत् अयुक्तमिति -- तत् न यथा करणे चक्षुषि विपरीतग्राहकादिदोषस्य दर्शनात्। न विपरीतादिग्रहणं तन्निमित्तं वा तैमिरिकत्वादिदोषः ग्रहीतुः? चक्षुषः संस्कारेण तिमिरे अपनीते ग्रहीतुः अदर्शनात् न ग्रहीतुर्धर्मः यथा तथा सर्वत्रैव अग्रहणविपरीतसंशयप्रत्ययास्तन्निमित्ताः करणस्यैव कस्यचित् भवितुमर्हन्ति? न ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य। संवेद्यत्वाच्च तेषां प्रदीपप्रकाशवत् न ज्ञातृधर्मत्वम् -- संवेद्यत्वादेव स्वात्मव्यतिरिक्तसंवेद्यत्वम् सर्वकरणवियोगे च कैवल्ये सर्ववादिभिः अविद्यादिदोषवत्त्वानभ्युपगमात्। आत्मनः यदि क्षेत्रज्ञस्य अग्न्युष्णवत् स्वः धर्मः? ततः न कदाचिदपि तेन वियोगः स्यात्। अविक्रियस्य च व्योमवत् सर्वगतस्य अमूर्तस्य आत्मनः केनचित् संयोगवियोगानुपपत्तेः? सिद्धं क्षेत्रज्ञस्य नित्यमेव ईश्वरत्वम् अनादित्वान्निर्गुणत्वात् (गीता 13।31) इत्यादीश्वरवचनाच्च।।ननु एवं सति संसारसंसारित्वाभावे शास्त्रानर्थक्यादिदोषः स्यादिति चेत्? न सर्वैरभ्युपगतत्वात्। सर्वैर्हि आत्मवादिभिः अभ्युपगतः दोषः न एकेन परिहर्तव्यः भवति। कथम् अभ्युपगतः इति मुक्तात्मनां हि संसारसंसारित्वव्यवहाराभावः सर्वैरेव आत्मवादिभिः इष्यते। न च तेषां शास्त्रानर्थक्यादिदोषप्राप्तिः अभ्युपगता। तथा नः क्षेत्रज्ञानाम् ईश्वरैकत्वे सति? शास्त्रानर्थक्यं भवतु अविद्याविषये च अर्थवत्त्वम् -- यथा द्वैतिनां सर्वेषां बन्धावस्थायामेव शास्त्राद्यर्थवत्त्वम्? न मुक्तावस्थायाम्? एवम्।।ननु आत्मनः बन्धमुक्तावस्थे परमार्थत एव वस्तुभूते द्वैतिनां सर्वेषाम्। अतः हेयोपादेयतत्साधनसद्भावे शास्त्राद्यर्थवत्त्वं स्यात्। अद्वैतिनां पुनः? द्वैतस्य अपरमार्थत्वात्? अविद्याकृतत्वात् बन्धावस्थायाश्च आत्मनः अपरमार्थत्वे निर्विषयत्वात्? शास्त्राद्यानर्थक्यम् इति चेत्? न आत्मनः अवस्थाभेदानुपपत्तेः। यदि तावत् आत्मनः बन्धमुक्तावस्थे? युगपत् स्याताम्? क्रमेण वा। युगपत् तावत् विरोधात् न संभवतः स्थितिगती इव एकस्मिन्। क्रमभावित्वे च? निर्निमित्तत्वे अनिर्मोक्षप्रसङ्गः।,अन्यनिमित्तत्वे च स्वतः अभावात् अपरमार्थत्वप्रसङ्गः। तथा च सति अभ्युपगमहानिः। किञ्च? बन्धमुक्तावस्थयोः पौर्वापर्यनिरूपणायां बन्धावस्था पूर्वं प्रकल्प्या? अनादिमती अन्तवती च तच्च प्रमाणविरुद्धम्। तथा मोक्षावस्था आदिमती अनन्ता च प्रमाणविरुद्धैव अभ्युपगम्यते। न च अवस्थावतः अवस्थान्तरं गच्छतः नित्यत्वम् उपपादयितुं शक्यम्। अथ अनित्यत्वदोषपरिहाराय बन्धमुक्तावस्थाभेदो न कल्प्यते? अतः द्वैतिनामपि शास्त्रानर्थक्यादिदोषः अपरिहार्य एव इति समानत्वात् न अद्वैतवादिना परिहर्तव्यः दोषः।।न च शास्त्रानर्थक्यम्? यथाप्रसिद्धाविद्वत्पुरुषविषयत्वात् शास्त्रस्य। अविदुषां हि फलहेत्वोः अनात्मनोः आत्मदर्शनम्? न विदुषाम् विदुषां हि फलहेतुभ्याम् आत्मनः अन्यत्वदर्शने सति? तयोः अहमिति आत्मदर्शनानुपपत्तेः। न हि अत्यन्तमूढः उन्मत्तादिरपि जलाग्न्योः छायाप्रकाशयोर्वा ऐकात्म्यं पश्यति किमुत विवेकी। तस्मात् न विधिप्रतिषेधशास्त्रं तावत् फलहेतुभ्याम् आत्मनः अन्यत्वदर्शिनः भवति। न हि देवदत्त? त्वम् इदं कुरु इति कस्मिंश्चित् कर्मणि नियुक्ते? विष्णुमित्रः अहं नियुक्तः इति तत्रस्थः नियोगं श्रृण्वन्नपि प्रतिपद्यते। वियोगविषयविवेकाग्रहणात् तु उपपद्यते प्रतिपत्तिः तथा फलहेत्वोरपि।।ननु प्राकृतसंबन्धापेक्षया युक्तैव प्रतिपत्तिः शास्त्रार्थविषया -- फलहेतुभ्याम् अन्यात्मविषयदर्शनेऽपि सति -- इष्टफलहेतौ प्रवर्तितः अस्मि? अनिष्टफलहेतोश्च निवर्तितः अस्मीति यथा पितृपुत्रादीनाम् इतरेतरात्मान्यत्वदर्शने सत्यपि अन्योन्यनियोगप्रतिषेधार्थप्रतिपत्तिः। न व्यतिरिक्तात्मदर्शनप्रतिपत्तेः प्रागेव फलहेत्वोः आत्माभिमानस्य सिद्धत्वात्। प्रतिपन्ननियोगप्रतिषेधार्थो हि फलहेतुभ्याम् आत्मनः अन्यत्वं प्रतिपद्यते? न पूर्वम्। तस्मात् विधिप्रतिषेधशास्त्रम् अविद्वद्विषयम् इति सिद्धम्।।ननु स्वर्गकामो यजेत न कलञ्जं भक्षयेत् इत्यादौ आत्मव्यतिरेकदर्शिनाम् अप्रवृत्तौ? केवलदेहाद्यात्मदृष्टीनां च अतः कर्तुः अभावात् शास्त्रानर्थक्यमिति चेत्? न यथाप्रसिद्धित एव प्रवृत्तिनिवृत्त्युपपत्तेः। ईश्वरक्षेत्रज्ञैकत्वदर्शी ब्रह्मवित् तावत् न प्रवर्तते। तथा नैरात्म्यवाद्यपि नास्ति परलोकः इति न प्रवर्तते। यथाप्रसिद्धितस्तु विधिप्रतिषेधशास्त्रश्रवणान्यथानुपपत्त्या अनुमितात्मास्तित्वः आत्मविशेषानभिज्ञः कर्मफलसंजाततृष्णः श्रद्दधानतया च प्रवर्तते। इति सर्वेषां न प्रत्यक्षम्। अतः न शास्त्रानर्थक्यम्।।

विवेकिनाम् अप्रवृत्तिदर्शनात् तदनुगामिनाम् अप्रवृत्तौ शास्त्रानर्थक्यम् इति चेत्? न कस्यचिदेव विवेकोपपत्तेः। अनेकेषु हि प्राणिषु कश्चिदेव विवेकी स्यात्? यथेदानीम्। न च विवेकिनम् अनुवर्तन्ते मूढाः? रागादिदोषतन्त्रत्वात् प्रवृत्तेः? अभिचरणादौ च प्रवृत्तिदर्शनात्? स्वाभाव्याच्च प्रवृत्तेः -- स्वभावस्तु प्रवर्तते (गीता 5।14) इति हि उक्तम्।।

तस्मात् अविद्यामात्रं संसारः यथादृष्टविषयः एव। न क्षेत्रज्ञस्य केवलस्य अविद्या तत्कार्यं च। न च मिथ्याज्ञानं परमार्थवस्तु दूषयितुं समर्थम्। न हि ऊषरदेशं स्नेहेन पङ्कीकर्तुं शक्नोति मरीच्युदकम्। तथा अविद्या क्षेत्रज्ञस्य न किञ्चित् कर्तुं शक्नोति। अतश्चेदमुक्तम् -- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि (गीता 13।2) ? अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् (गीता 5।15) इति च।।अथ किमिदं संसारिणामिव अहमेवम् ममैवेदम् इति पण्डितानामपि श्रृणु इदं तत् पाण्डित्यम्? यत् क्षेत्रे एव आत्मदर्शनम्। यदि पुनः क्षेत्रज्ञम् अविक्रियं पश्येयुः? ततः न भोगं कर्म वा आकाङ्क्षेयुः मम स्यात् इति। विक्रियैव भोगकर्मणी। अथ एवं सति? फलार्थित्वात् अविद्वान् प्रवर्तते। विदुषः पुनः अविक्रियात्मदर्शिनः फलार्थित्वाभावात् प्रवृत्त्यनुपपत्तौ कार्यकरणसंघातव्यापारोपरमे निवृत्तिः उपचर्यते।।इदं च अन्यत् पाण्डित्यं केषाञ्चित् अस्तु -- क्षेत्रज्ञः ईश्वर एव। क्षेत्रं च अन्यत् क्षेत्रज्ञस्यैव विषयः। अहं तु संसारी सुखी दुःखी च। संसारोपरमश्च मम कर्तव्यः क्षेत्रक्षेत्रज्ञविज्ञानेन? ध्यानेन च ईश्वरं क्षेत्रज्ञं साक्षात्कृत्वा तत्स्वरूपावस्थानेनेति। यश्च एवं बुध्यते? यश्च बोधयति? नासौ क्षेत्रज्ञः इति। एवं मन्वानः यः सः पण्डितापसदः? संसारमोक्षयोः शास्त्रस्य च अर्थवत्त्वं करोमीति आत्महा स्वयं मूढः अन्यांश्च व्यामोहयति शास्त्रार्थसंप्रदायरहितत्वात्? श्रुतहानिम् अश्रुतकल्पनां च कुर्वन्। तस्मात् असंप्रदायवित् सर्वशास्त्रविदपि मूर्खवदेव उपेक्षणीयः।।यत्तूक्तम् ईश्वरस्य क्षेत्रज्ञैकत्वे संसारित्वं प्राप्नोति? क्षेत्रज्ञानां च ईश्वरैकत्वे संसारिणः अभावात् संसाराभावप्रसङ्गः इति?,एतौ दोषौ प्रत्युक्तौ विद्याविद्ययोः वैलक्षण्याभ्युपगमात् इति। कथम् अविद्यापरिकल्पितदोषेण तद्विषयं वस्तु पारमार्थिकं न दुष्यतीति। तथा च दृष्टान्तः दर्शितः -- मरीच्यम्भसा ऊषरदेशो न पङ्कीक्रियते इति। संसारिणः अभावात् संसाराभावप्रसङ्गदोषोऽपि संसारसंसारिणोः अविद्याकल्पितत्वोपपत्त्या प्रत्युक्तः।।ननु अविद्यावत्त्वमेव क्षेत्रज्ञस्य संसारित्वदोषः। तत्कृतं च सुखित्वदुःखित्वादि प्रत्यक्षम् उपलभ्यते इति चेत्? न ज्ञेयस्य क्षेत्रधर्मत्वात्? ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य तत्कृतदोषानुपपत्तेः। यावत् किञ्चित् क्षेत्रज्ञस्य दोषजातम् अविद्यमानम् आसञ्जयसि? तस्य ज्ञेयत्वोपपत्तेः क्षेत्रधर्मत्वमेव? न क्षेत्रज्ञधर्मत्वम्। न च तेन क्षेत्रज्ञः दुष्यति? ज्ञेयेन ज्ञातुः संसर्गानुपपत्तेः। यदि हि संसर्गः स्यात्? ज्ञेयत्वमेव नोपपद्येत। यदि आत्मनः धर्मः अविद्यावत्त्वं दुःखित्वादि च कथं भोः प्रत्यक्षम् उपलभ्यते? कथं वा क्षेत्रज्ञधर्मः। ज्ञेयं च सर्वं क्षेत्रं ज्ञातैव क्षेत्रज्ञः इति अवधारिते? अविद्यादुःखित्वादेः क्षेत्रज्ञविशेषणत्वं क्षेत्रज्ञधर्मत्वं तस्य च प्रत्यक्षोपलभ्यत्वम् इति विरुद्धम् उच्यते अविद्यामात्रावष्टम्भात् केवलम्।।अत्र आह -- सा अविद्या कस्य इति। यस्य दृश्यते तस्य एव। कस्य दृश्यते इति। अत्र उच्यते -- अविद्या कस्य दृश्यते इति प्रश्नः निरर्थकः। कथम् दृश्यते चेत् अविद्या तद्वन्तमपि पश्यसि। न च तद्वति उपलभ्यमाने सा कस्य इति प्रश्नो युक्तः। न हि गोमति उपलभ्यमाने गावः कस्य इति प्रश्नः अर्थवान् भवति। ननु विषमो दृष्टान्तः। गवां तद्वतश्च प्रत्यक्षत्वात् तत्संबन्धोऽपि प्रत्यक्ष प्रश्नो निरर्थकः। न तथा अविद्या तद्वांश्च प्रत्यक्षौ? यतः प्रश्नः निरर्थकः स्यात्। अप्रत्यक्षेण अविद्यावता अविद्यासंबन्धे ज्ञाते? किं तव स्यात् अविद्यायाः अनर्थहेतुत्वात् परिहर्तव्या स्यात्। यस्य अविद्या? सः तां परिहरिष्यति। ननु ममैव अविद्या। जानासि तर्हि अविद्यां तद्वन्तं च आत्मानम्। जानामि? न तु प्रत्यक्षेण। अनुमानेन चेत् जानासि? कथं संबन्धग्रहणम् न हि तव ज्ञातुः ज्ञेयभूतया अविद्यया तत्काले संबन्धः ग्रहीतुं शक्यते? अविद्याया विषयत्वेनैव ज्ञातुः उपयुक्तत्वात्। न च ज्ञातुः अविद्यायाश्च संबन्धस्य यः ग्रहीता? ज्ञानं च अन्यत् तद्विषयं संभवति अनवस्थाप्राप्तेः। यदि ज्ञात्रापि ज्ञेयसंबन्धो ज्ञायते? अन्यः ज्ञाता कल्प्यः स्यात्? तस्यापि अन्यः? तस्यापि अन्यः इति अनवस्था अपरिहार्या। यदि पुनः अविद्या ज्ञेया? अन्यद्वा ज्ञेयं ज्ञेयमेव। तथा ज्ञातापि ज्ञातैव? न ज्ञेयं भवति। यदा च एवम्? अविद्यादुःखित्वाद्यैः न ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य किञ्चित् दुष्यति।।

ननु अयमेव दोषः? यत् दोषवत्क्षेत्रविज्ञातृत्वम् न च विज्ञानस्वरूपस्यैव अविक्रियस्य विज्ञातृत्वोपचारात् यथा उष्णतामात्रेण अग्नेः तप्तिक्रियोपचारः? तद्वत्। यथा अत्र भगवता क्रियाकारकफलात्मत्वाभावः आत्मनि स्वत एव दर्शितः -- अविद्याध्यारोपितैः एव क्रियाकारकादिः आत्मनि उपचर्यते तथा तत्र तत्र य एनं वेत्ति हन्तारम् (गीता 2।19) प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः (गीता 3।27) नादत्ते कस्यचित्पापम् (गीता 5।15) इत्यादिप्रकरणेषु दर्शितः। तथैव च व्याख्यातम् अस्माभिः। उत्तरेषु च प्रकरणेषु दर्शयिष्यामः।।

हन्त तर्हि आत्मनि क्रियाकारकफलात्मतायाः स्वतः अभावे? अविद्यया च अध्यारोपितत्वे? कर्माणि अविद्वत्कर्तव्यान्येव? न विदुषाम् इति प्राप्तम्। सत्यम् एवं प्राप्तम्? एतदेव च न हि देहभृता शक्यम् (गीता 18।11) इत्यत्र दर्शयिष्यामः। सर्वशास्त्रार्थोपसंहारप्रकरणे च समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा (गीता 18।50) इत्यत्र विशेषतः दर्शयिष्यामः। अलम् इह बहुप्रपञ्चनेन? इति उपसंह्रियते।।

इदं शरीरम् (गीता13।1) इत्यादिश्लोकोपदिष्टस्य क्षेत्राध्यायार्थस्य संग्रहश्लोकः अयम् उपन्यस्यते तत्क्षेत्रं यच्च (गीता 13।3) इत्यादि? व्याचिख्यासितस्य हि अर्थस्य संग्रहोपन्यासः न्याय्यः इति --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।13.3।।हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! तू सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मेरेको ही समझ; और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है, वही मेरे मतमें ज्ञान है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।13.3।। हे भारत ! तुम समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही (वास्तव में) ज्ञान है , ऐसा मेरा मत है।।