श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति

विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।8.11।।फिर भी भगवान् आगे बतलाये जानेवाले उपायोंसे प्राप्त होनेयोग्य और वेदविदो वदन्ति इत्यादि विशेषणोंद्वारा वर्णन किये जानेयोग्य ब्रह्मका प्रतिपादन करते हैं --, हे गार्गि ब्राह्मणलोग उसी इस अक्षरका वर्णन किया करते हैं इस श्रुतिके अनुसार वेदके परम अर्थको,जाननेवाले विद्वान् जिस अक्षरका अर्थात् जिसका कभी नाश न हो ऐसे परमात्माका वह न स्थूल है न सूक्ष्म है इस प्रकार सब विशेषोंका निराकरण करके वर्णन किया करते हैं तथा जिनकी आसक्ित नष्ट हो चुकी है ऐसे वीतराग यत्नशील संन्यासी यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेपर जिसमें प्रविष्ट होते हैं। एवं जिस अक्षरको जानना चाहनेवाले ( साधक ) गुरुकुलमें ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया करते हैं वह अक्षरनामक पद अर्थात् प्राप्त करनेयोग्य स्थान मैं तुझे संग्रहसे -- संक्षेपसे बतलाता हूँ। संग्रह संक्षेपको कहते हैं। सत्यकामके यह पूछनेपर कि हे भगवन् मनुष्योंमेंसे वह जो कि मरणपर्यन्त ओंकारका भली प्रकार ध्यान करता रहता है वह उस साधनसे किस लोकको जीत लेता है पिप्पलाद ऋषिने कहा कि हे सत्यकाम यह ओंकार ही निःसन्देह परब्रह्म है और यही अपर ब्रह्म भी है। इस प्रकार प्रसङ्ग आरम्भ करके फिर जो कोई इस तीन मात्रावाले ओम् इस अक्षरद्वारा परम पुरुषकी उपासना करता रहता है। इत्यादि वचनोंसे ( प्रश्नोपनिषद्में ) तथा जो धर्मसे विलक्षण है और अधर्मसे भी विलक्षण है इस प्रकार प्रसङ्ग आरम्भ करके फिर समस्त वेद जिस परमपदका वर्णन कर रहे हैं समस्त तप जिसको बतला रहे हैं तथा जिस परमपदको चाहनेवाले ब्रह्मचर्यका पालन किया करते हैं वह परमपद संक्षेपसे तुझे बतलाऊँगा वह है ओम् ऐसा यह ( एक अक्षर )। इत्यादि वचनोंसे ( कठोपनिषद्में )। परब्रह्मका वाचक होनेसे एवं प्रतिमाकी भाँति उसका प्रतीक ( चिह्न ) होनेसे मन्द और मध्यम बुद्धिवाले साधकोंके लिये जो परब्रह्मपरमात्माकी प्राप्तिका साधनरूप माना गया है उस ओंकारकी कालान्तरमें मुक्तिरूप फल देनेवाली जो उपासना बतलायी गयी है

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Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।8.11।। -- यत् अक्षरं न क्षरतीति अक्षरम् अविनाशि वेदविदः वेदार्थज्ञाः वदन्ति तद्वा एतदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्ति (बृ0 उ0 3।8।8) इति श्रुतेः सर्वविशेषनिवर्तकत्वेन अभिवदन्ति अस्थूलमनणु (बृ0 उ0 3।8।8) इत्यादि। किञ्च -- विशन्ति प्रविशन्ति सम्यग्दर्शनप्राप्तौ सत्यां यत् यतयः यतनशीलाः संन्यासिनः वीतरागाः वीतः विगतः रागः येभ्यः ते वीतरागाः। यच्च अक्षरमिच्छन्तः -- ज्ञातुम् इति वाक्यशेषः -- ब्रह्मचर्यं गुरौ चरन्ति आचरन्ति तत् ते पदं तत् अक्षराख्यं पदं पदनीयं ते तव संग्रहेण संग्रहः संक्षेपः तेन संक्षेपेण प्रवक्ष्ये कथयिष्यामि।।

स यो ह वै तद्भगवन्मनुष्येषु प्रायणान्तमोंकारमभिध्यायीत कतमं वाव स तेन लोकं जयतीति। तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्य यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत (प्र0 उ0 5।1।2।5।। -- स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकम् इत्यादिना वचनेन अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात् इति च उपक्रम्य सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति। तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् (क0 उ0 1।2।14.15) इत्यादिभिश्च वचनैः परस्य ब्रह्मणो वाचकरूपेण प्रतिमावत् प्रतीकरूपेण वा परब्रह्मप्रतिपत्तिसाधनत्वेन मन्दमध्यमबुद्धीनां विवक्षितस्य ओंकारस्य उपासनं कालान्तरे मुक्तिफलम् उक्तं यत् तदेव इहापि कविं पुराणमनुशासितारम् (गीता 8।9) यदक्षरं वेदविदो वदन्ति (गीता 8।11) इति च उपन्यस्तस्य परस्य ब्रह्मणः पूर्वोक्तरूपेण प्रतिपत्त्युपायभूतस्य ओंकारस्य कालान्तरमुक्तिफलम् उपासनं योगधारणासहितं वक्तव्यम् प्रसक्तानुप्रसक्तं च यत्किञ्चित् इत्येवमर्थः उत्तरो ग्रन्थ आरभ्यते --

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।8.11।। वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यति जिसको प्राप्त करते हैं और साधक जिसकी प्राप्तिकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वह पद मैं तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।8.11।। वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा।।