हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.37।।पक्षान्तरमें कर्ण आदि शूरवीरोंके साथ युद्ध करने पर
या तो उनके द्वारा मारा जाकर ( तू ) स्वर्गको प्राप्त करेगा अथवा कर्णादि शूरवीरोंको जीतकर पृथिवीका राज्य भोगेगा। अभिप्राय यह कि दोनों तरहसे तेरा लाभ ही है।
जब कि यह बात है इसलिये हे कौन्तेय युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा अर्थात् मैं या तो शत्रुओंको जीतूँगा या मर ही जाऊँगा ऐसा निश्चय करके खड़ा हो जा।
।।2.34 2.38।।यद्भयाच्च भवान् युद्धात् निवर्तते (K निवर्तेत) तदेव शतशाखमुपनिपतिष्यति भवत इत्याह
अथ चेत्यादि। श्लोकपञ्चकमिदम् अभ्युपगम्यवादरूपमुच्यते ( N उपगम्य) यदि लौकिकेन व्यवहारेणास्ते भवान् तथाप्यवश्यानुष्ठेयमेतत्।
।।2.37।। अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अतः हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
।।2.37।। युद्ध में मरकर तुम स्वर्ग प्राप्त करोगे या जीतकर पृथ्वी को भोगोगे; इसलिय, हे कौन्तेय ! युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ।।
।।2.37।।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम् हतः सन् स्वर्गं प्राप्स्यसि। जित्वा वा कर्णादीन् शूरान् भोक्ष्यसे महीम् । उभयथापि तव लाभ एवेत्यभिप्रायः। यत एवं तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः जेष्यामि शत्रून् मरिष्यामि वा इति निश्चयं कृत्वेत्यर्थः।।
तत्र युद्धं स्वधर्म इत्येवं युध्यमानस्योपदेशमिमं श्रृणु