आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।2.29।।
श्रीमद् भगवद्गीता
2.29 आश्चर्यवत् as a wonder, पश्यति sees, कश्चित् sone one, एनम् this (Self), आश्चर्यवत् as a wonder, वदति speaks of, तथा so, एव also, च and, अन्यः another, आश्चर्यवत् as a wonder, च and, एनम् this, अन्यः another, श्रृणोति hears, श्रुत्वा having heard, अपि even, एनम् this, वेद knows, न not, च and, एव also, कश्चित् any one.
Commentary:
The verse may also be interpreted in this manner. He that sees, hears and speaks of the Self is a wonderful man. Such a man is very rare. He is one among many thousands. Thus the Self is very hard to understand.
।।2.29।।जिसका प्रकरण चल रहा है यह आत्मतत्त्व दुर्विज्ञेय है। सर्वसाधारणको भ्रान्ति करा देनेवाले विषयमें केवल एक तुझे ही क्या उलाहना दूँ यह आत्मा दुर्विज्ञेय कैसे है सो कहते हैं
पहले जो नहीं देखा गया हो अकस्माद् दृष्टिगोचर हुआ हो ऐसे अद्भुत पदार्थका नाम आश्चर्य है उसके सदृशका नाम आश्चर्यवत् है इस आत्माको कोई ( महापुरुष ) ही आश्चर्यमय वस्तुकी भाँति देखता है।
वैसे ही दूसरा ( कोई एक ) इसको आश्चर्यवत् कहता है अन्य ( कोई ) इसको आश्चर्यवत् सुनता है एवं कोई इस आत्माको सुनकर देखकर और कहकर भी नहीं जानता।
अथवा जो इस आत्माको देखता है वह आश्चर्यके तुल्य है जो कहता है और जो सुनता है वह भी ( आश्चर्यके तुल्य है )। अभिप्राय यह कि अनेक सहस्रोंमेंसे कोई एक ही ऐसा होता है। इसलिये आत्मा बड़ा दुर्बोध है।