देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya
।।17.14।। --,देवाश्च द्विजाश्च गुरवश्च प्राज्ञाश्च देवद्विजगुरुप्राज्ञाः तेषां पूजनं देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्? शौचम्? आर्जवम् ऋजुत्वम्? ब्रह्मचर्यम् अहिंसा च शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं शरीरप्रधानैः सर्वैरेव कार्यकरणैः कर्त्रादिभिः साध्यं शारीरं तपः उच्यते। पञ्चैते तस्य हेतवः (गीता 18।15) इति हि वक्ष्यति।।
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।17.14।।अब तीन प्रकारका तप कहा जाता है --, देव? ब्राह्मण? गुरु और बुद्धिमान्ज्ञानी इन सबका पूजन? शौच -- पवित्रता? आर्जव -- सरलता? ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह सब शरीरसम्बन्धी -- शरीरद्वारा किये जानेवाले तप कहे जाते हैं अर्थात् शरीर जिनमें प्रधान है? ऐसे समस्त कार्य और करणोंसे जो कर्ताद्वारा किये जायँ वे शरीरसम्बन्धी तप कहलाते हैं। आगे यह कहेंगे भी कि उन ( सबकर्मों ) के ये पाँच कारण हैं इत्यादि।