अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।17.15।। --,अनुद्वेगकरं प्राणिनाम् अदुःखकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् प्रियहिते दृष्टादृष्टार्थे। अनुद्वेगकरत्वादिभिः धर्मैः वाक्यं विशेष्यते। विशेषणधर्मसमुच्चयार्थः चशब्दः। परप्रत्ययार्थं प्रयुक्तस्य वाक्यस्य सत्यप्रियहितानुद्वेगकरत्वानाम् अन्यतमेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा हीनता स्याद्यदि? न तद्वाङ्मयं तपः। तथा सत्यवाक्यस्य इतरेषाम् अन्यतमेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा विहीनतायां न वाङ्मयतपस्त्वम्। तथा प्रियवाक्यस्यापि इतरेषाम् अन्यतमेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा विहीनस्य न वाङ्मयतपस्त्वम्। तथा हितवाक्यस्यापि इतरेषाम् अन्यतमेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा विहीनस्य न वाङ्मयतपस्त्वम्। किं पुनः तत् तपः यत् सत्यं वाक्यम् अनुद्वेगकरं प्रियं हितं च? तत् तपः वाङ्मयम् यथा शान्तो भव वत्स? स्वाध्यायं योगं च अनुतिष्ठ? तथा ते श्रेयो भविष्यति इति। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव यथाविधि वाङ्मयं तपः उच्यते।।
।।17.15।।जो वचन किसी प्राणीके अन्तःकरणमें उद्वेगदुःख उत्पन्न करनेवाले नहीं हैं? तथा जो सत्य? प्रिय और हितकारक हैं अर्थात् इस लोक और परलोकमें सर्वत्र हित करनेवाले हैं? यहाँ उद्वेग न करनेवाले इत्यादि लक्षणोंसे वाक्यको विशेषित किया गया है और च शब्द सब लक्षणोंका समुच्चय बतलानेके लिये है ( अतः समझना चाहिये कि ) दूसरेको किसी बातका बोध करानेके लिये कहे हुए वाक्यमें यदि सत्यता? प्रियता? हितकारिता और अनुद्विग्नता -- इन सबका अथवा इनमेंसे किसी एक? दो या तीनका अभाव हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है। जैसे सत्य वाक्य यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है? वैसे ही प्रिय वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है? तथा हितकारक वचन भी यदि अन्य एक? दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है। पू0 -- तो फिर वह वाणीका तप कौनसा है उ0 -- जो वचन सत्य हो और उद्वेग करनेवाला न हो तथा प्रिय और हितकर भी हो? वह वाणीसम्बन्धी परम तप है। जैसे? हे वत्स तू शान्त हो स्वाध्याय और योगमें स्थित हो? इससे तेरा कल्याण होगा इत्यादि वचन हैं तथा यथाविधि स्वाध्यायका अभ्यास करना भी वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।