सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।17.18।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya
।।17.18।। --,सत्कारः साधुकारः साधुः अयं तपस्वी ब्राह्मणः इत्येवमर्थम्? मानो माननं प्रत्युत्थानाभिवादनादिः तदर्थम्? पूजा पादप्रक्षालनार्चनाशयितृत्वादिः तदर्थं च तपः सत्कारमानपूजार्थम्? दम्भेन चैव यत् क्रियते तपः तत् इह प्रोक्तं कथितं राजसं चलं कादाचित्कफलत्वेन अध्रुवम्।।
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।17.18।।जो तप सत्कार? मान और पूजाके लिये किया जाता है -- यह बड़ा श्रेष्ठ पुरुष है? तपस्वी है? ब्राह्मण है। इस प्रकार जो बड़ाई की जाती है उसका नाम सत्कार है। ( आते देखकर ) खड़े हो जाना तथा प्रणाम आदि करना -- ऐसे सम्मानका नाम मान है। पैर धोना? अर्चन करना? भोजन कराना इत्यादिका नाम पूजा है। इन सबके लिये जो तप किया जाता है और जो दम्भसे किया जाता है? वह तप यहाँ राजसी कहा गया है। तथा अनिश्चित फलवाला होनेसे नाशवान् और अनित्य भी कहा गया है।