या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.69।।यह जो लौकिक और वैदिक व्यवहार है वह सबकासब अविद्याका कार्य है अतः जिसको विवेकज्ञान प्राप्त हो गया है ऐसे स्थितप्रज्ञके लिये अविद्याकी निवृत्तिके साथहीसाथ ( यह व्यवहार भी ) निवृत्त हो जाता है और अविद्याका विद्याके साथ विरोध होनेके कारण उसकी भी निवृत्ति हो जाती है। इस अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए कहते हैं
तामस स्वभावके कारण सब पदार्थोंका अविवेक करानेवाली रात्रिका नाम निशा है। सब भूतोंकी जो निशा अर्थात् रात्रि है
वह ( निशा ) क्या है ( उ0 ) परमार्थतत्त्व जो कि स्थितप्रज्ञका विषय है ( ज्ञेय है )। जैसे उल्लू आदि रजनीचरोंके लिये दूसरोंका दिन भी रात होती है वैसे ही निशाचरस्थानीय जो सम्पूर्ण अज्ञानी मनुष्य हैं जिनमें परमार्थतत्त्वविषयक बुद्धि नहीं है उन सब भूतोंके लिये अज्ञात होनेके कारण यह परमार्थतत्त्व रात्रिकी भाँति रात्रि है।
उस परमार्थतत्त्वरूप रात्रिमें अज्ञाननिद्रासे जगा हुआ संयमी अर्थात् जितेन्द्रिय योगी जागता है।
ग्राह्यग्राहकभेदरूप जिस अविद्यारात्रिमें सोते हुए भी सब प्राणी जागते हैं ऐसे कहा जाता है अर्थात् जिस रात्रिमें सब प्राणी सोते हुए स्वप्न देखनेवालोंके सदृश जागते हैं। वह ( सारा दृश्य ) अविद्यारूप होनेके कारण परमार्थतत्त्वको जाननेवाले मुनिके लिये रात्रि है।
सुतरां ( यह सिद्ध हुआ कि ) अविद्याअवस्थामें ही ( मनुष्यके लिये ) कर्मोंका विधान किया जाता है विद्यावस्थामें नहीं क्योंकि जैसे सूर्यके उदय होनेपर रात्रिसम्बन्धी अन्धकार दूर हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान उदय होनेपर अज्ञान नष्ट हो जाता है।
ज्ञानोत्पत्तिसे पहलेपहले प्रमाणबुद्धिसे ग्रहण की हुई अविद्या ही क्रिया कारक और फल आदिके भेदोंमें परिणत होकर सब कर्म करवानेका हेतु बन सकती है अप्रमाणबुद्धिसे ग्रहण की हुई ( अविद्या ) कर्म करवानेका कारण नहीं बन सकती।
क्योंकि प्रमाणस्वरूप वेदने मेरे लिये अमुक कर्तव्यकर्मोंका विधान किया है ऐसा मानकर ही कर्ता कर्ममें प्रवृत्त होता है यह सब रात्रिकी भाँति अविद्यामात्र है इस तरह समझकर नहीं होता।
जिसको ऐसा ज्ञान प्राप्त हो गया है कि यह सारा दृश्य रात्रिकी भाँति अविद्यामात्र ही है उस आत्मज्ञानीका तो सर्व कर्मोंके संन्यासमें ही अधिकार है प्रवृत्तिमें नहीं।
इस प्रकार तद्बुद्धयस्तदात्मानः इत्यादि श्लोकोंसे उस ज्ञानीका अधिकार ज्ञाननिष्ठामें ही दिखलायेंगे।
पू0 उस ज्ञाननिष्ठामें भी ( तत्त्ववेत्ताको ) प्रवृत्त करनेवाले प्रमाणका ( विधिवाक्यका ) अभाव है इसलिये उसमें भी उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मज्ञान अपने स्वरूपको विषय करनेवाला है अतः अपने स्वरूपज्ञानके विषयमें प्रवृत्त करनेवाले प्रमाणकी अपेक्षा नहीं होती। वह आत्मज्ञान स्वयं आत्मा होनेके कारण स्वतःसिद्ध है और उसीमें सब प्रमाणोंके प्रमाणत्वका अन्त है अर्थात् आत्मज्ञान होनेतक ही प्रमाणोंका प्रमाणत्व है अतः आत्मस्वरूपका साक्षात् होनेके बाद प्रमाण और प्रमेयका व्यवहार नहीं बन सकता।
( आत्मज्ञानरूप ) अन्तिम प्रमाण आत्माके प्रमातापनको भी निवृत्त कर देता है। उसको निवृत्त करता हुआ वह स्वयं भी जागनेके बाद स्वप्नकालके प्रमाणकी भाँति अप्रमाणी हो जाता है अर्थात् लुप्त हो जाता है।
क्योंकि व्यवहारमें भी वस्तु प्राप्त होनेके बाद कोई प्रमाण ( उस वस्तुकी प्राप्तिके लिये ) प्रवृत्तिका हेतु होता नहीं देखा जाता।
इसलिये यह सिद्ध हुआ कि आत्मज्ञानीका कर्मोंमें अधिकार नहीं है।